जब इंदिरा के इशारे पर गिरी सरकार
केसी त्यागी,पूर्व सांसद
24 जनवरी 1979, जनता पार्टी के आंतरिक कलह का यादगार दिन रहा है। इसी दिन मोरारजी मंत्रिमंडल में चौधरी चरण सिंह को पुनः उप प्रधान मंत्री एवं वित्त मंत्री की शपथ दिलाई गई। इससे पूर्व चौधरी चरण सिंह, राजनारायण और इनके कई करीबी मंत्री मोरारजी सरकार से अलग किए जा चुके थे। जनता पार्टी में उस समय के सभी शीर्ष नेताओं में चौधरी चरण सिंह सर्वाधिक जनाधार वाले नेता थे। उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा और ओडिशा में पूर्ववर्ती लोकदल की सरकारें थीं। यूं तो जनता पार्टी सत्तासीन होते ही अंतर्कलह की दास्तान लिख चुकी थी, जब मंत्रिमंडल गठन के समय मोरारजी समर्थक आधा दर्जन नेता मंत्रिपरिषद में स्थान पा चुके थे, जबकि उनके समर्थक सांसदों की संख्या 25 थी। दूसरी तरफ 100 से अधिक सांसदों वाले चौधरी चरण सिंह गुट से सिर्फ चार नेताओं को ही मंत्रिपरिषद में जगह मिल पाई थी, जिनमें खुद चौधरी चरण सिंह के अलावा राजनारायण, बीजू पटनायक और एचएम पटेल शामिल थे। पटेल, जो कि गुजरात के सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी थे, उन्हें वित्त मंत्रालय का प्रभार दिया गया। उन्हें मोरारजी भाई का भी करीबी माना जाता था।
जनता पार्टी में आंतरिक कलह दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा थी। 23 दिसंबर, 1978 को बोट क्लब पर हुई किसान रैली संख्या बल के आधार पर पुराने कीर्तिमान तोड़ चुकी थी। चौधरी चरण सिंह के जन्मदिन के अवसर पर मोरारजी देसाई का बेरुखा व्यवहार भी इस अंतर्कलह को नए आयाम तक पहुंचाने का काम कर गया, जब उन्होंने चौधरी साहब को जन्मदिन की शुभकामनाएं देना भी मुनासिब नहीं समझा। इसके विपरीत श्रीमती इंदिरा गांधी ने गुलदस्ता भेज चरण सिंह को जन्मदिन की शुभकामनाएं प्रेषित कर भावी राजनीति और गठबंधन के संकेतों को भी हवा दे दी थी। सरकार और पार्टी के शीर्ष नेतृत्व की चेतावनी के बावजूद कई मुख्यमंत्री समेत दर्जनों मंत्री इस रैली में हिस्सा ले चुके थे और विभाजन स्पष्ट दिख रहा था। जॉर्ज फर्नांडिस, लाल कृष्ण आडवाणी, बीजू पटनायक सरीखे नेताओं के इस्तीफे की चर्चा अखबारों की सुर्खियां बन रही थीं।
कर दी ऐतिहासिक गलती
इसी बीच एक और रोचक घटनाक्रम के तहत नए राजनीतिक जोड़-तोड़ के दरवाजे खुलते दिखने लगे, जब चौधरी चरण सिंह के पौत्र जयंत चौधरी के जन्मदिन के अवसर पर श्रीमती इंदिरा गांधी दिल्ली में उनके निवास स्थान पर उपस्थित हो गईं। पूर्व रक्षा राज्य मंत्री स्व. जगवीर सिंह और मैं स्वयं श्रीमती गांधी के विलिंगटन क्रिसेंट स्थित निवास पर निमंत्रण देने गए थे। आरके धवन ने गर्मजोशी के साथ न केवल हमारी मुलाकात श्रीमती गांधी से कराई थी, बल्कि समारोह में शामिल होने के संकेत भी दिए। इस समारोह में इंदिरा गांधी की उपस्थिति ने राजनीतिक तापमान को बढ़ा दिया। चरण सिंह और उनके समर्थकों को वापस लेने, जनता पार्टी में सुलह करने की अपील जय प्रकाश नारायण द्वारा भी की जा चुकी थी। इसमें दो राय नहीं कि इस फूट का फायदा निरंतर कांग्रेस पार्टी को मिल रहा था। कर्नाटक के चिकमगलूर के एक उपचुनाव में श्रीमती गांधी की बड़े अंतर से हुई जीत भविष्य की राजनीति की पटकथा लिख चुकी थी। ऐसे कई अन्य दबावों और झंझावातों के कारण निरंतर कमजोर दिखती पार्टी और सरकार को मजबूरन चौधरी चरण सिंह को उप प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलानी पड़ी और वित्त मंत्रालय का पदभार भी सौंपना पड़ा।
लेकिन उस समय के रणनीतिकार एक ऐतिहासिक गलती कर गए, जब स्व. राजनारायण को मंत्रिमंडल से बाहर रखा। आगे चलकर यह पार्टी की टूट की बड़ी वजह भी बनी। राजनारायण भी अपने अपमान का बदला लेने के अवसर की तलाश में लग गए। जनता पार्टी का नेतृत्व चौधरी चरण सिंह समर्थक मुख्यमंत्रियों को अपदस्थ करने की मुहिम छेड़ चुका था। किसान रैली के सबसे बड़े समर्थक चौधरी देवीलाल को हटाकर उनके स्थान पर पुराने कांग्रेसी नेता भजन लाल को मुख्यमंत्री बनाया गया, जो 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी के विजयी होने के तुरंत बाद पूरे मंत्रिमंडल के साथ कांग्रेस में चले गए। यह दल-बदल की अनोखी दास्तान थी और जनता पार्टी के अनुभवहीन नेतृत्व की परीक्षा भी। उत्तर प्रदेश में राम नरेश यादव को अपदस्थ किया गया। आरक्षण प्रक्रिया लागू होने के बाद कर्पूरी ठाकुर देश के पिछड़े समुदाय के सर्वधिक लोकप्रिय नेता हो चुके थे। उनके अपदस्थ होते ही लोकदल और समाजवादी खेमे में खलबली मच गई। कर्पूरी ठाकुर और चौधरी देवीलाल ने घोषणा कर दी थी कि जिन्होंने हमारी झोपड़ी जलाई है, अब हम उनके महल ध्वस्त करेंगे। राजनारायण ऐसे ही मौके की तलाश में थे।
इस्तीफा-दर-इस्तीफा
जुलाई 1979 का संसद सत्र प्रारंभ होते ही राजनीतिक गतिविधियां तेज हो गईं। राजनारायण, देवीलाल, कर्पूरी ठाकुर खुले तौर पर मोरारजी भाई को अपदस्थ करने की मुहिम में जुट गए। इस मुहिम को प्रखर समाजवादी नेता मधु लिमये का भी परोक्ष समर्थन प्राप्त हुआ। जनता पार्टी के संसदीय दल से इस्तीफा देने वाले 5 सांसद कर्पूरी ठाकुर और राजनारायण के समर्थक थे। सांसदों का पार्टी से इस्तीफा देने का सिलसिला लगातार तेज होता रहा। ऐसा भी लगने लगा कि सरकार अल्पमत में आ गई है। इस्तीफा देने वाले अंतिम नेता चौधरी साहब ही थे। किसान राजनीति की प्रतिबद्धता के कारण अकाली दल भी सरकार का साथ छोड़ चौधरी साहब के साथ शामिल हो गया। मोरारजी देसाई के विरुद्ध अविश्वास प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान ही श्री देसाई द्वारा त्यागपत्र दे दिया गया और इंदिरा गांधी के हाथ में नई सरकार बनाने की कुंजी भी आ गई।
इंदिरा गांधी की पसंद चौधरी चरण सिंह थे। राष्ट्र्पति को अंतत: चरण सिंह को प्रधानमंत्री पद की शपथ के लिए आमंत्रित करना पड़ा। सारे देश की राजनीति इंदिरा गांधी के इशारों पर चल रही थी। यकीन नहीं होता था कि अब से ठीक तीन वर्ष पहले जनता ने इतना बड़ा फैसला दिया था कि स्वयं श्रीमती गांधी रायबरेली में राजनारायण के हाथों परास्त हुई थीं। चौधरी साहब की स्वीकृति के बाद संजय गांधी से उनके आवास पर मेरी लंबी चर्चा भी हुई, जिसमें उन्होंने अपने विरुद्ध लगे मुकदमे वापस लेने और विधि मंत्री शांति भूषण को बदलने जैसी कई शर्तों के साथ समर्थन जारी रखने की बात की थी। चरण सिंह और उनके मंत्रिमंडल के सदस्य इन शर्तों को मानने को तैयार नहीं थे, लिहाजा बिना संसद गए उन्होंने अपना त्यागपत्र राष्ट्रपति को सौंप दिया।
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