वामियों का नरेटिव : सीता रावण के घर में सुरक्षित थीं
कई दिनों से एक दिलेर जवान की तस्वीर सोशल मीडिया पर घूम रही है। सर्पों के बीच मे गरुण जैसा यह जांबाज पूरी निडरता और आत्मविश्वास के साथ माओवादियों के बीच में बैठा है। इस तस्वीर को जारी कर कम्युनिस्टों ने एक बयान भी जारी किया कि जवान भी उनके अपने हैं और यहाँ सुरक्षित हैं, सरकार ही जवानों की दुश्मन है। जैसा की वामियों की धूर्त संतानें बार बार कहती हैं कि सरकार किसानों की जवानों की और भी पता नही किसकी किसकी दुश्मन है लेकिन रुकिए! यह नरेटिव क्या माओवादियों के लिए ही सेट किया गया ? नही यह सिर्फ माओवाद के लिए नही बल्कि साहित्य से लेकर राजनीति में हर जगह क्रूर हत्यारों के बीच एक आम व्यक्ति को सुरक्षित बताने का कुत्सित प्रयास किया जाता रहा।
वीर अभिनन्दन के मामले को याद कीजिये। किस तरीके से इमरान को हीरो स्थापित करने की कोशिश की गई। मानों अभिनन्दन की वापसी करवाने में सरकार की कोई भूमिका ही नही रही और यह तो हैंडसम इमरान का बड़ा और भावुक हृदय था(जो मोदी के पास नही है) जिसकी वजह से अभिनन्दन भारत लौट सके। वामी आतंकियों की चलती तो उस आतंकवादी देश के प्रधानमंत्री को शांति का नोबल पुरस्कार दिलवा देते जिसने भारत के निर्दोष सिपाहियों की पुलवामा में हत्या करवाई।
साहित्य में रावण जैसा भाई चाहने वाली वामपंथने प्रायः यह कहती हैं कि रावण के घर सीता सुरक्षित थी। अरे इन दुष्टों के पाखण्ड का चरम तो देखो कि रावण तो सीता जी पर नियंत्रण पाने के लिए साम दाम दंड भेद सबका प्रयोग किया किंतु माता की आंखों के ताप से निस्तेज हो गया पर ये दुष्ट औरतें एक बलात्कारी को भाई के रूप में चाहती हैं और उसे नैतिकता का आवरण भी पहनाती हैं। नैतिकता के आवरण और पीड़ित बताने से ही तो सामान्य जनता इनसे जुड़ सकेगी यह बात ये गिरोह जानता है इसलिए ये रावण को शांति का प्रतीक बनाकर उस पर उदास शाम वाली कविता लिखा करते हैं।
इस गैंग में एक मारता है, दूसरा उसको न्यायोचित ठहराता है, तीसरा हत्यारे को असहाय और कमजोर बताता है, चौथा उस पर साहित्य रचता है और पांचवा सरकार को ही हत्यारी बता कर दूसरा नरेटिव तैयार करती है जिसकी डफली कोई ##&& कुमार किसी विश्वविद्यालय में महिसासुर उत्सव मनाते हुए बजाता है।
✍🏻पवन विजय
गांव के लोग रात को जाग जाग ग्रुप बना बना कर पहरा देते थे .. ताकि नक्सली उनका अनाज, बच्चे आदि न ले जा सकें..
नक्सल आंदोलन से गांव वालों का मोह भंग हो चुका था और हिंसा से भी ..
ऐसे ही जागरूक हुए एक गांव के लोगों ने अपने गांव में सुरक्षा बलों के कैम्प के बारे में प्रयास किया ..
वो साल 2016 था ..
6 महिला प्रोफेसर उस गांव में पँहुची .. ग्रामीणों को समझाया ..
“तुम्हारी कोई भी दिक्कत है उसे जंगल के अंदर बैठे दादा लोग सुलझाएंगे .. कैम्प आ गया तो तो तुम्हारी बेटी, बहुओं के बलात्कार हुआ करेंगे, मत पड़ो सरकार को सपोर्ट करने के चक्कर में, सरकार तुम्हें मूर्ख बना रही है, जिन लोगों में आत्मसमर्पण किया है उन सबको वापिस बुला लो ”
और साथ ही साथ धमकाया भी..
” जो न मानोगे तो मारे जाओगे”
ग्रामीणों ने खास तवज्जो न दी और ये दल वापस लौट गया ..
गांव के लोगों ने कलेक्टर को चिट्ठी लिखी .. जिसमें उन्होंने पूरी घटना का जिक्र किया .. साथ ही लिखा कि कल को यदि हमें कुछ होता है तो उसकी जिम्मेदारी इन शहरी प्रोफेसरों की रहेगी ..
कलेक्टर ने एक्शन लिया और प्रोफेसरों के संस्थानों में इस बाबत चिट्ठी लिखी ..
इस चिट्ठी से हड़कंप मचा और सीताराम येचुरी इन महिलाओं के बचाव में कूदे .. उन्होंने मुख्यमंत्री को फोन किया और अधिकारियों की शिकायत की ..
कुछ ही दिन बीते होंगे ..उसी गांव के स्याम नाथ बघेल के घर बालक हुआ .. गांव का पहरा छोड़कर बघेल अपनी संतान को देखने घर आये .. जहां नक्सलियों ने उनकी परिवार के सामने ही निर्ममता से हत्या कर दी और कहा कि दीदी (प्रोफेसर) लोग की बात न मानी, अब भुगतो।
बघेल की पत्नी ने नामजद FIR दर्ज कराई .. जिसमें दिल्ली यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नंदिनी सुंदर का नाम था ..
नंदनी सुंदर सीधे सुप्रीम कोर्ट गईं ..अपने प्रोफेसर होने का हवाला दिया .. FIR को निरस्त करने की मांग की.. कोर्ट ने मात्र 1 दिन का समय राज्य पुलिस को दिया पक्ष/सबूत रखने के लिए .. राज्य पुलिस ने सील बंद लिफाफे में दस्तावेज पेश किए .. कोर्ट साहब ने पुलिस को बोला कि नंदिनी सुंदर से पूछताछ करने से 4 हफ्ते पहले आप इन्हें सूचित करेंगे और गिरफ्तारी पर रोक लगा दी।
ध्यान दीजिए कि साक्ष्य स्पष्ट थे इसलिये FIR रद्द नहीं की।
समय बदला, सरकार बदली..
कांग्रेस सत्ता में आई.. आते ही पहला काम नंदिनी सुंदर के खिलाफ दर्ज FIR को निरस्त करने का किया ।
क्या कोई और हत्या का अपराधी सीधे सुप्रीम कोर्ट जा सकता है ?
क्या 22 जवानों की हत्या में दोष नंदिनी सुंदर , कोर्ट साहब, सीताराम येचुरी जैसे अर्बन नक्सलियों का नहीं है ..
मत भूलिए की नक्सलियों के सफाए में सबसे कारगर भूमिका सलवा जुडूम ने निभाई थी .. ग्रामीणों ने खुद ही छोटे छोटे हथियारों के साथ नक्सलियों से मोर्चा संभालना शुरू किया था .. इसी नंदिनी सुंदर की याचिका पर सुनवाई करते हुए कोर्ट ने इस अभियान पर रोक लगा दी ..
हम सच को सच नहीं कह पा रहे हैं, गद्दार को गद्दार नहीं कह पा रहे हैं ..
हमारे जवान एक गिनती बन कर रह गए हैं .. कभी 10 कभी 20 कभी 23 ..
कब तक चलेगा ये ..
#आखिरकबतक
✍🏻साभार
एक आध अपवादों को छोड़ दिया जाय तो मुझे आज तक एक भी भौतिक विज्ञानी, केमिकल साईटिंस्ट, जीव विज्ञानी, गणितज्ञ, टॉप सर्जन, टॉप डॉक्टर, टॉप रॉकेट साईटिस्ट वामपंथी नहीं मिला।
कोई धावक, मुक्केबाज़ या मल्ल योद्धा भी नही मिलता वामपंथ में।
ये सब, बकैत शास्त्र में ही निपुण होते हैं।
अधिकतर वामपंथी, पत्रकारिता, मनोविज्ञान, फिलॉस्फी, इतिहास, इकॉनॉमिक्स और लैंगुएज के क्षेत्र के ही तथाकथित विद्वान होते हैं।
आप इतिहास पढ़कर कुछ भी बकैती कर सकते हैं….
पर यदि हार्ट खोलने वाला सर्जन बकैत होगा तो आपका जीवन संकट में पड़ जाएगा।
यह एक हल्की पोस्ट है पर इसको गम्भीरता से सोचिएगा, अवश्य।।
कल शाम कॉलेज के बच्चों के एक झुण्ड से मिला.
20-22 साल के बच्चे, प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारियाँ करते हुए.
उनका आधा घंटा समय चुरा कर उनसे बातें की.
उन्हें उनकी भाषा में वामपंथ का विष समझाया.
उनमें से एक लड़का वामियों के प्रभाव में था.
उसने कुछ बेहद प्रासंगिक प्रश्न पूछे जिनका जवाब देने में मजा आया, और अपनी सोच भी स्पष्ट हुई.
पहली शंका थी वामपंथ की परिभाषा में.
उसने कहा – वामपंथ वह सिद्धांत है जो समानता चाहता है.
मैंने कहा – नहीं! वामपंथ वह सिद्धांत है जो संघर्ष चाहता है.
उसने कहा – हाँ, अमीर और गरीब के बीच संघर्ष तो होगा.
मैंने कहा – कौन अमीर है और कौन गरीब?
हर कोई किसी ना किसी से अमीर है और किसी ना किसी से गरीब.
यह दो वर्ग नहीं हैं, एक स्पेक्ट्रम है.
जब मैं हवाई जहाज की इकॉनमी क्लास में चलता हूँ तो मैं गरीब हूँ.
मुझे इच्छा होती है कि बिज़नेस क्लास वालों से संघर्ष करूँ और उनकी सीट ले लूँ.
और हमें समानता क्यों चाहिए? किसने समझा दिया कि हमारा लक्ष्य समानता है?
हमारा लक्ष्य समानता नहीं, समृध्दि और उन्नति है.
तुम नौकरी ढूँढ़ रहे हो…क्या तुम्हें रतन टाटा बनना है?
या तुम टाटा कंपनी में एक अच्छी नौकरी चाहते हो जिसमें तुम्हें अच्छी सैलरी मिले?
बच्चे ने मैक्सिम गोर्की की माँ, मेरा बचपन, मेरे विश्वविद्यालय पढ़ रखी थी.
मैंने भी अपनी किशोरावस्था में यही किताबें पढ़ी थीं.
बहुत रोचक रहा, पुरानी पढ़ी हुई किताबों की यादें निचोड़ना. उसने कहा – मैक्सिम गोर्की जैसा लेखक अगर मार्क्सवाद से प्रभावित था तो उसमें कुछ तो बात होगी…
कोई बेवकूफ लोग तो नहीं थे…
मैंने कहा – पर वे बेवकूफ बन गए.
उनके जैसे कितने ही लेखकों और बुद्धिजीवियों ने साम्यवाद का समर्थन किया.
रूस में उनमें से अधिकांश साइबेरिया जा पहुँचे.
चीन में हंड्रेड फ्लावर्स कैंपेन के बाद वे जेल में डाल दिये गए या मार डाले गए.
हाँ, मार्क्स ने दुनिया को बेवकूफ़ बनाया.
उसने एक झूठ बोला जिसपर उनलोगों ने प्रश्न नहीं किया.
यह बताओ, लाभ किस बात का परिणाम है और इसपर किसका हक़ है?
श्रम का या पूँजी का?
उसने कहा – श्रम का.
पूँजी तो पूरे समाज की साझा सम्पत्ति है.
मैंने कहा – यही मार्क्स का बेसिक झूठ है.
लाभ ना श्रम का परिणाम है ना पूँजी का.
श्रम का रिवॉर्ड पारिश्रमिक है, पूँजी का रिवॉर्ड है सूद.
लाभ साहस का परिणाम है. जिसने नुकसान उठाने का जोखिम लिया, लाभ पर उसका हक़ है.
बच्चे ने पूछा – फिर आपका सोल्यूशन क्या है?
आदमी को एक विचारधारा तो चाहिए.
मैंने कहा – मैंने यह पुस्तक एक विचारधारा के विरुद्ध दूसरी विचारधारा को स्थापित करने के लिए नहीं लिखी.
यह इस पुस्तक का विषय नहीं है.
पर मैंने इसमें दो लोगों का जिक्र किया है जिन्होंने एक समाधान सा प्रस्तुत किया है?
एक है चीन के देंग सियाओ पिंग और दूसरे सिंगापुर के ली कुआन यू.
एक कम्युनिस्ट और दूसरा घोर एन्टी-कम्युनिस्ट.
और इन दोनों ने अपने अपने देशों को समृद्धि दी.
क्योंकि ये दोनों ही विचारधारा के फेर में नहीं पड़े.
दोनों ने प्रत्येक समस्या के अलग अलग समाधान ढूँढ़े.
हर बीमारी की एक दवा नहीं होती.
हम विचारधारा के फेर में फँस के समस्या को भूल जाते हैं, समाधान को खो देते हैं.
बच्चे ने कहा – सर! इतने सालों से मैं कम्युनिस्टों के साथ हूँ, अपनी विचारधारा को एक दिन में छोड़ तो नहीं सकता.
लेकिन यह किताब पढ़ूँगा जरूर.
छोटी सी पर आरंभिक सफलता. वामपंथ के खोल को भेदते हुए मैं उसके मर्म तक पहुँच सका, तो सिर्फ इसलिए कि वह अभी भी सामाजिक आर्थिक असमानता से आहत था, समाधान चाहता था.
वह क्लासिकल मर्क्सिज्म का शिकार था, कल्चरल मर्क्सिज्म का नहीं.
उसने अपने देश, समाज से घृणा करनी आरंभ नहीं की थी.
उसे जेएनयू के कन्हैया टाइप गुंडों से सहानुभूति नहीं थी जो भारत के टुकड़े टुकड़े के नारे लगाते हैं.
पर उसे शिकायत थी कि शिक्षा फ्री क्यों नहीं है.
मैंने उसे समझाया – तुम्हारा हिस्सा वे जेएनयू वाले खा जा रहे हैं…
जो दिल्ली में वर्षों वर्षों तक दस रुपये महीने के कमरे में पड़े सब्सिडी की रोटियाँ तोड़ते हैं.
वे तुम्हारी लड़ाई नहीं लड़ रहे, तुम्हारे बहाने से पब्लिक के पैसे पर ऐश कर रहे हैं.
वामपंथी भी यही करते हैं.
गरीबों के बहाने से गरीबों के हिस्से के पैसे पर ऐश करते हैं.
समानता वामपंथ का मूलमंत्र है…
सारा झगड़ा ही समानता का है.
कुछ समय पहले की बात है, मेरे साथ काम करने वाली एक लड़की ने शिकायत की…
भारत में बहुत असमानता है, अमीर और गरीब के बीच का फर्क बहुत ज्यादा है.
मैंने पूछा – तो इसमें शिकायत की क्या बात है?
उसने कहा – मैंने ऐसा कुछ सुना, एक भारतीय बिजनेसमैन ने अपनी बेटी की शादी में कितने अरब खर्च किये.
बताओ, यह सही है क्या?
मैंने कहा – जानती हो वह बिजनेसमैन है कौन?
वह अम्बानी है, अम्बानी!
उसका बाप पेट्रोल पंप पर काम करता था, आज दो पीढ़ी में उनके पास इतनी संपत्ति है कि दोनों अम्बानी भाइयों की संपत्ति मिला कर बिल गेट्स से बहुत ज्यादा है, और जॉफ़ बेज़ोस के लगभग बराबर है.
अब वह नहीं खर्च करेगा तो कौन खर्च करेगा?
उसने कहा – पर एक आदमी के पास इतना क्यों होना चाहिए?
– क्यों?
अम्बानी के पैसे से आपको क्या समस्या है?
अम्बानी कमा रहा है तो आपको कमाने से रोक रहा है क्या?
जब अम्बानी नहीं था तो मेरे पिताजी साईकल से चलते थे. आज अम्बानी है और मैं मर्सेडीज़ से चलता हूँ.
मैं अपनी तरक्की पर खुश होऊँ या अम्बानी की तरक्की से जलूँ?
वह लड़की अपनी शादी की तैयारी कर रही थी.
मैंने पूछा – तुम्हारी शादी का बजट क्या है?
उसने कहा – लगभग बीस हज़ार पौण्ड.
मैंने उसे हिसाब गिना दिया – तुम्हारा यह जो बीस हज़ार पौण्ड खर्च होगा इसकी एक एक पेनी उस आदमी के पास जाएगी जिसके पास तुमसे अधिक पैसा है. तुम्हारा फूल वाला, डेकोरेशन वाला, कैटरर, ड्रेस मेकर… सब तुमसे अमीर हैं.
अम्बानी की बेटी की शादी में अगर दो सौ मिलियन भी खर्च होगा ना, तो उसका एक एक पैसा जिसके पास जाएगा सभी उससे गरीब हैं.
उसका पैसा अमीर से गरीब की ओर जा रहा है, यह पैसे के फ्लो की सही दिशा है.
तुम्हारा पैसा गरीब से अमीर की ओर जा रहा है, और यह पैसे के फ्लो की गलत दिशा है.
इसलिए तुम अम्बानी की बेटी की शादी की चर्चा छोड़ कर अपनी शादी के खर्चे के बारे में सोचो.
ऐसे ही एक और बन्दे ने एक बार कोई एक वर्ल्ड इक्वलिटी इंडेक्स टाइप का कुछ गूगल किया और दिखाया – देखो, भारत बुरा नहीं है. अमेरिका से बेहतर है, भारत में अमीर और गरीब के बीच की दूरी कम है…
मैंने कहा – ठीक से देखो, शायद सिएरा लियॉन, सोमालिया या अफगानिस्तान में यह दूरी और भी कम हो.
पर मैं चाहूँगा कि मेरा देश अमेरिका बने, ना कि सोमालिया या अफगानिस्तान.
समानता बड़ा ही आकर्षक नारा है.
वामपंथी डेढ़ दो सौ सालों से लोगों को समानता का चारा दे रहे हैं.
पर समानता का अर्थ क्या है? क्या आप सचमुच समानता चाहते हैं या समृद्धि चाहते हैं? क्या समानता और न्याय समानार्थक हैं?
यह असमानता आती कहाँ से है?
ये वामपंथी एक अविकसित बुद्धि वाले बच्चे जैसे हैं.
इन्हें लगता है कि संपत्ति और समृद्धि यूँ ही घास पात की तरह उगती है और उसे उठा कर सबमें बराबर बराबर बाँट दिया जा सकता है…
जैसे एक बच्चा नहीं जानता कि खाना कहाँ से आता है.
वह सोचता कि रोने से उसे खाना मिल जाता है.
थोड़ा और जोर से रोने से उसे खिलौना मिल जाता है.
वैसे ही वामपंथी यह नहीं समझते कि संपत्ति के सृजन की प्रक्रिया क्या है?
क्यों मैं बिल गेट्स या स्टीव जॉब्स जितना अमीर नहीं हुआ? क्योंकि उसने माइक्रोसॉफ्ट या एप्पल बनाया और मैंने नहीं बनाया.
उसे मुझसे धनी होना ही चाहिए, यह असमानता ही न्यायपूर्ण है. अगर हम सबको समान बना दिया जाएगा तो माइक्रोसॉफ्ट और एप्पल और रिलायंस नष्ट हो जाएंगे और लाखों लोग बेरोजगार और गरीब हो जाएंगे…
अम्बानी पहले इतना अमीर नहीं रहेगा पर आप भी पहले से और गरीब हो जाएंगे. क्योंकि व्यापार, व्यवसाय, उद्यम की जिस प्रक्रिया से संपत्ति का सृजन होता है वह प्रक्रिया ही नष्ट हो जाएगी.
आप एक धनी समाज में रहते हो, तो आप भी धनी हो जाओगे. आपके पड़ोस में रहने वाला व्यक्ति करोड़पति होगा तो आप भी लखपति हो जाओगे.
उसके बंगले की कीमत बढ़ेगी तो आपके फ्लैट की भी कीमत बढ़ेगी.
अगर आपने वामपंथियों को अपने बीच पनपने दिया तो उस अमीर के बंगले में जाकर ये वामपंथी घुस जाएंगे, और आपके फ्लैट में बिजली भी आनी बन्द हो जाएगी.
आपके मोहल्ले की सड़कें टूट जाएँगी, आपके फ्लैट की भी कीमत कौड़ियों की रह जायेगी.
फिर भी समानता एक आकर्षक कांसेप्ट है…पर कहाँ?
समानता होनी चाहिए, पर सिर्फ एक जगह – कानून की नजर में. एक समाज में अमीर और गरीब दोनों रहेंगे.
पर कानून को यह सुनिश्चित करना होगा कि वह अमीर और गरीब, दोनों के जीवन, स्वतंत्रता और संपत्ति को समान सुरक्षा प्रदान करे.
समान अपराध के लिए दोनों को समान दंड मिले.
बस, समानता का झगड़ा इतने पर समाप्त हो जाना चाहिए. और जिसने पहली बार इस स्तर पर समानता की माँग की थी वह तर्कसंगत था.
पर वामपंथी अपनी बात शुरू हमेशा सही जगह से करते हैं. उन्हें अपना पैर जमाने के लिए इतनी थोड़ी सी जगह चाहिए होती है.
उन्होंने जो भी मुद्दे उठाए हैं, वे सभी पहले पहले तर्कसंगत और न्यायपूर्ण सुनाई देते हैं.
पर देखते देखते वे इस विमर्श को विकृत कर देते हैं,
उसे विनाशकारी बना देते हैं. और वामपंथ जिसके भी अधिकार के लिए खड़े होते हैं, जिसका भी पक्ष लेते हैं, देखते देखते उसका ही विनाश कर देते हैं.
✍🏻राजीव मिश्रा
#BasicEconomics
पूँजीवाद की एक आलोचना सुनाई दी…यह एक अस्थिर व्यवस्था है. यहाँ कंपनियाँ अक्सर डूबती और बन्द होती रहती हैं…
यह पूँजीवादी व्यवस्था का दोष नहीं, उसका सबसे बड़ा गुण है. एक निजी कंपनी जो कम्पटीशन नहीं झेल पाती वह बन्द हो जाती है. इसीलिए जो भी व्यापारी, उद्योगपति एक कंपनी खोलता है वह एक बड़ा रिस्क लेता है. जो इस कंपेटिशन को सर्वाइव कर पाता है वह मुनाफा कमाता है. सौ साल पहले जो भी दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियाँ थीं, उनमें से कोई भी आज दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में नहीं है. एक समय पैसा पेट्रोलियम और ऑटोमोबाइल में था, आज कंप्यूटर्स में है, फिर किसी और चीज में होगा.
लोग सोचते हैं कि बड़ी कंपनियाँ बड़ा भारी मुनाफा कमा कर बड़ी होती हैं. यह बिल्कुल गलत है. बड़ी कंपनियाँ वही बनती हैं जो कम मुनाफा कमाती हैं…तभी वह कंपेटिशन में बचती हैं. जो भी बड़ी कंपनियाँ हुई हैं, वे अपनी लागत कम कर के बड़ी होती हैं, ना कि कीमत बढ़ा कर. वॉलमार्ट अपने प्रति डॉलर पर बिक्री में सिर्फ एक सेंट का मुनाफा कमाता है. अंतर यह है कि उसका एक डॉलर हर सप्ताह घूम कर वापस बाजार में आ जाता है और इस तरह वह उसी डॉलर पर साल में 52 बार एक एक सेंट कमाता है. हेनरी फोर्ड ने अपनी कारों के निर्माण की लागत को कम किया और अमीर बने. उनकी समृद्धि से उस हर अमेरिकी की समृद्धि जुड़ी थी जो कार पर चल पाया और कारें लक्ज़री के बजाय जरूरत की चीज बनी. रॉकफेलर इसलिए अमीर बना क्योंकि उसने पेट्रोलियम की ढुलाई बैरलों के बजाय टैंकरों में शुरू की जिससे उसकी लागत कम हुई. साथ ही उसने रिसर्च पर निवेश किया जिससे पेट्रोलियम के बायप्रोडक्ट्स से पेंट और वार्निश जैसी दूसरी सैकड़ों चीजें बनाई जाने लगीं. भारत में अम्बानी के जियो की टैरिफ पर रोना धोना तो आप देख ही चुके हैं.. अम्बानी आपको सस्ता देकर भी पैसे कमा रहा है तो भी रोने वाले रो रहे हैं. सच तो यह है कि कीमतें कम करके मार्केट शेयर बढ़ाया जा सकता है, पर सच्ची मोनोपॉली का कोई उदाहरण दुनिया के पास है ही नहीं. क्योंकि आपका मार्केट शेयर तभी तक है जब तक आपकी कीमतें कम हैं. कंपेटिशन दब जाता है पर मरता नहीं है. जिस दिन आप उसकी लागत से अधिक मूल्य लेने की सोचेंगे, कंपेटिशन वापसी करेगा.
एक और शिकायत की जाती है कि अमीर अधिक अमीर हो रहा है और गरीब अधिक गरीब हो रहा है. यह बिल्कुल सच नहीं है. पूँजीवादी व्यवस्था में सामान्यतः लोग हमेशा के लिए अमीर या गरीब नहीं रहते. कोई भी जब कैरियर शुरू करता है, उसकी सैलरी कम ही होती है. जैसे जैसे उम्र और अनुभव बढ़ता है इनकम भी बढ़ती है. अमीर और गरीब अक्सर दो अलग क्लास नहीं होते. लोग एक क्लास से दूसरे क्लास में जाते हैं और खूब जाते हैं. मिशिगन में एक स्टडी में देखा गया कि 1996 में जितने लोग सबसे निचले 20% आय वाले ब्रैकेट में थे, 2005 तक उनमें से 95% उससे बाहर निकल चुके थे, और उसके 29% तो बिल्कुल ऊपर के 25% तक चले गए थे. 2006 के अमेरिका के टॉप 500 लोगों में सिर्फ 2% लोग ऐसे थे जिनकी संपत्ति उन्हें विरासत में मिली थी. 98% ने यह खुद कमाई थी.
यह भी होता है कि अमीर अधिक अमीर होता है, गरीब उसकी अपेक्षा कम अमीर होता है. पर दोनों का ग्राफ ऊपर ही जाता है. जब आर्थिक तेजी आती है तो अमीर का पैसा अधिक तेजी से बढ़ता है क्योंकि उसकी आय इन्वेस्टमेंट से आती है. जबकि गरीब की आय सैलरी से आती है जो बढ़ती है पर उतनी नहीं बढ़ती. वहीं जब आर्थिक मंदी आती है तो अमीर को अधिक नुकसान होता है क्योंकि उसी का पैसा डूबता है जो मार्केट में है. गरीब की आय में मामूली ही कमी आती है.
अमीर और गरीब के बीच का अंतर बढ़ना समाज की आर्थिक समृद्धि का सूचक है और यह अंतर कम होना विपन्नता का. जो आपको समानता के नारे बेचते हैं वे यह नहीं बताते कि समानता सिर्फ गरीबी की ही कीमत पर आती है. आप अपनी सैद्धांतिक प्रतिबध्दता को किनारे रख कर एक व्यावहारिक प्रश्न पूछिये… गरीब क्या चाहता है? असमानता में सम्पन्नता, या गरीबी में रहकर समानता? एक बेरोजगार से पूछिए, उसे रतन टाटा बनना है या उसका काम टाटा कंपनी में नौकरी मिलने से चल जाएगा?
गरीब के माथे पर पहले ही बहुत बोझ है …उसपर अपनी बौद्धिकता का बोझ और मत लादो कॉमरेड…
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