इस्लाम के आगमन से पहले शिव का पुजारी था सारा अरब?

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सातवीं शती ईसवी (सन् 622) में नवस्थापित इस्लाम की आँधी ने अरब का उसके अतीत से संबंध बिलकुल ही विच्छेद कर दिया। अतीत से जोड़नेवाली हर कड़ी तोड़ डाली गयी। अपने नये धर्म के निर्माण के लिए पुराना ढाँचा (हिंदू-धर्म) गिराना आवश्यक समझकर मुहम्मद साहब (570-632) ने अपने अनुयायियों को सभी प्रतीकों, चिह्नों को मिटाने का आदेश दिया। फलस्वरूप सभी मूर्तियाँ तोड़ दी गयीं; धर्मग्रन्थ एवं पाण्डुलिपियाँ नष्ट कर दी गयीं; मन्दिरों को अपवित्र किया गया; विश्वविद्यालय और पुस्तकालय जला डाले गये; सांस्कृतिक केन्द्रों को लूटा गया, विद्वज्जनों की निर्ममतापूर्वक हत्याएँ की गयीं- अर्थात् हर वह वस्तु, जो अतीत से संबंध जोड़ती थी, नष्ट कर दी गयी।

इतिहास से यह ज़ानकारी मिलती है कि मुस्लिम-आक्रान्ता पुस्तकालयों तथा ज्ञानवर्धक पुस्तकों से घृणा करते थे। इसलिए उन्होंने दुनिया के बड़े-बड़े पुस्तकालय जलाकर राख कर दिये, जिसमें अनेक विषयों की पुस्तकें संरक्षित थीं। उनका उद्देश्य था कि मुहम्मद ने सीधे अल्लाह से हासिलकर जो कुछ ज्ञान दिया, उसके अलावा किसी ज्ञान का अस्तित्व नहीं रहना चाहिये। इसलिए मुस्लिम-आक्रान्ताओं ने उन विद्वानों को मार डाला, जिनके पास ज्ञान का भण्डार था और जो इस मुस्लिम-अहंकार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे कि धरती पर कुरआन के पृष्ठों के सिवा कहीं और ज्ञान है।

भारत-अरब-संबंध का इतिहास दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुराना है। प्रथम शताब्दी ई.पू. में भारत और सेल्यूसिड साम्राज्य के बीच व्यापारिक संबंध थे। व्यापार सड़क और समुद्री- दोनों मार्गों से होता था । सड़क-मार्ग उत्तर में तक्षशिला से सेल्यूसिया, कपिसा, बैक्ट्रिया, हिके़टोमोपाइलस होकर जाता था, जो एक महत्त्वपूर्ण सड़क-मार्ग था, जबकि दक्षिण से दूसरा सड़क-मार्ग सीस्तान और कार्मेनिया होकर जाता था।

सन् 570 ई. (?) में मुहम्मद साहब के जन्म के समय अर्वस्थान में एक उन्नत, समृद्ध एवं वैविध्यपूर्ण वैदिक संस्कृति थी। प्रत्येक घर में हिंदू देवी-देवताओं की प्रतिमाएँ थीं। सार्वजनिक मन्दिर, पूजा-पाठ के साथ-साथ शिक्षा एवं संस्कृति के भी केन्द्र थे। हरिहरक्षेत्रमाहात्म्य नामक ग्रन्थ में अर्वस्थान की धार्मिक-सांस्कृतिक राजधानी व साहित्यिक क्रियाकलापों तथा अनेक उत्सवों और मेलों की कार्यस्थली ‘मक्का’ के लिए निम्नलिखित उल्लेख मिलता है :

एकं पदं गयायांतु मक्कायांतु द्वितीयकम्।

तृतीयं स्थापितं दिव्यं मुक्त्यै शुक्लस्य सन्निधौ।।

अर्थात्, ‘(भगवान् विष्णु का) एक पद (चिह्न) गया में, दूसरा मक्का में तथा तीसरा शुक्लतीर्थ के समीप स्थापित है।’

हिंदू-मान्यतानुसार मक्का (मक्केश्वर) तीर्थ को स्वयं भगवान् ब्रह्माजी ने बसाया था। इन्हीं ब्रह्माजी को मुसलमान, यहूदी और ईसाई ‘अब्राहम’ या ‘इब्राहीम’ कहते हैं। इस्लामी-परम्परा में मक्का को अब्राहम ने बसाया था। मक्का शहर अति प्राचीन काल से ही विभिन्न व्यापारिक-मार्गों के मध्य में अवस्थित होने के कारण वाणिज्यिक महत्त्व का रहा है। इस्लाम अथवा मुहम्मद साहब के प्रादुर्भाव से बहुत पूर्व से ही यह शहर ‘हरियम्’ (हरम्) सहित विभिन्न धर्मस्थलों का केन्द्र रहा है। इस्लाम के आगमन के पहले का युग में यहाँ 360 वैदिक देवी-देवताओं की पूजा होती थी। सन् 622 में इस्लामी पैगंबर मुहम्मद साहब ने मक्का में, जो एक महत्त्वपूर्ण व्यापारिक-केन्द्र था, में इस्लाम की घोषणा की और तब से इस शहर ने इस्लाम के इतिहास में एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी। तब से यह शहर इस्लाम का पवित्रतम शहर हो गया है, जहाँ प्रतिवर्ष दुनिया के लगभग 10 लाख मुसलमान इस्लामी कैलेण्डर के अन्तिम महीने में ‘हज’ तीर्थयात्रा करने पहुँचते हैं। ‘हज’ तीर्थयात्रा को इस्लाम के पाँच स्तम्भों (ईमान, नमाज़, रोज़ा, ज़कात एवं हज) में से एक माना गया है।

मक्का के केन्द्र में दुनिया की सबसे बड़ी मस्ज़िद और हज़-यात्रा का केन्द्र ‘अल्-मस्ज़िद अल्-हरम्’ स्थित है। इसे ‘अल्-हरम् मस्ज़िद’, ‘हरम् अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद अल्-शरीफ़’, ‘मस्ज़िद-ए-हरम्’, ‘प्रधान मस्ज़िद’ और सिर्फ़ ‘हरम्’ भी कहा जाता है। प्रख्यात इतिहास-संशोधक पुरुषोत्तम नागेश ओक (1916-2008) ने उल्लेख किया है कि अरबी-शब्द ‘हरम्’ संस्कृत के ‘हरियम्’ शब्द का अपभ्रंश है, जो विष्णु-मन्दिर का द्योतक है।

‘अल्-मस्ज़िद अल्-हरम्’ का सर्वप्रथम निर्माण सन् 638 (16 हिज्ऱी) में किया गया था । सन् 692 में इसका प्रथम पुनर्निर्माण किया गया था। सन् 1399 ई. में आग और भारी बारिश से यह नष्ट हो गया। सन् 1405 ई. में इसे पुनः बनाया गया। बाद की शताब्दियों में इसका निरन्तर पुनर्निर्माण और विस्तार होता रहा। आज यह मस्ज़िद कुल 4,00,800 वर्गमीटर (43,14,211.2 वर्ग फीट) क्षेत्रफल में फैली है, जिसके विशाल संगमरमरी-प्रांगण में एकसाथ 8,20,000 हज-यात्री नमाज़ अदा कर सकते हैं। इसके बाहरी परिसर में 9 मीनारें खड़ी हैं, जिनकी ऊँचाई 89-89 मीटर है। इस विशाल मस्ज़िद से जुड़ी विशेषताएँ, जो इसे इस्लाम के आगमन के पहले का शिव-मन्दिर सिद्ध करती हैं, इस प्रकार हैं :

मक्का-स्थित ‘अल्-मस्ज़िद-अल्-हरम्’ के विशाल प्रांगण के बीचोबीच लगभग 60 फीट ऊँची, 60 फीट लम्बी और 60 फीट चौड़ी (लगभग 627 वर्गफीट) एक घनाकार इमारत है, जिसे ‘काबा’ कहा जाता है। इसका निर्माण मक्का के चारों ओर विस्तृत ‘सफा’ और ‘मेरवा’ नामक दो पहाड़ियों के नीले ग्रेनाइट पत्थरों से किया गया है। काबा के एक पुराने नक़्शे से ज्ञात होता है कि काबा का निर्माण वैदिक अष्टकोणीय आकार में हुआ है। एक चतुर्भुज पर तिरछा बैठाया हुआ दूसरा चतुर्भुज- ऐसे वैदिक अष्टकोणीय आकारवाले मन्दिर पर वह बना है। मन्दिर के आठ कोणों पर वैदिक अष्टदिक्पाल- इन्द्र, वरुण, यम, अग्नि, वायु, कुबेर, ईशान और निरुत् प्रस्थापित थे। बीचोबीच वर्तमान खण्डित काबा का चौकोर है। यह ‘काबा’ शब्द भी ‘गर्भगृह’ शब्द का विकसित रूप है : ‘गर्भगृह’ > ‘गाभा’ > ‘काबा’। जैसे ‘गौ’ का आंग्ल-उच्चारण ‘कौ’ हुआ है, उसी प्रकार ‘गाभा’ का ‘काबा’ हुआ है। निःसन्देह यह इस्लाम के आगमन के पहले का मक्केश्वर महादेव-मन्दिर का गर्भगृह रहा होगा।

प्रसिद्ध अंग्रेज़-इतिहासकार और ब्रिटिश-संसद-सदस्य एडवर्ड ग़िब्बन (1737-1794) ने अपने महान् ग्रन्थ ‘द हिस्ट्री ऑफ़ डिक़्लाइन एण्ड फ़ाल ऑफ़ द रोमन इम्पायर’ (1776-1788) ईसाइयत से पूर्व काबा और उसके अस्तित्व के बारे में लिखा है : ‘काबा की वास्तविक प्राचीनता ईसाइयत से ऊपर है : लाल सागर के तट के वर्णन में यूनानी-इतिहासकार डियोडोरस ने टिप्पणी की है, थैमुडाइट्स और सैबेअन्स के मध्य स्थित एक प्रसिद्ध मन्दिर, जिसकी पवित्रता सभी अरबों द्वारा पूजनीय थी; रेशमी दुपट्टे की सनी, जिसका तुर्की-सम्राट् द्वारा वार्षिक नवीनीकरण किया जाता था, मुहम्मद से सात सौ वर्ष पूर्व होमेराइट्स द्वारा प्रथम समर्पित किया गया था।’ यूनानी-इतिहासकार डियोडोरस सिक़्यूलस (90-27 ईपू) ने यूनानी-भाषा में लिखे अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘बिबलिओथेका हिस्टोरिक़ा’ में विश्व के विभिन्न भागों के वर्णन किया है। एडवर्ड ग़िब्बन द्वारा उद्धृत डियोडोरस के यूनानी-ग्रन्थ की पंक्तियों का अंग्रेजी अनुवाद किया गया है, जिसमें डियोडोरस ने समूचे अरब में पवित्रतम एक मन्दिर का उल्लेख किया है : ‘…और एक मन्दिर, जो वहाँ खड़ा है, जो बहुत पवित्र है और सभी अरबों द्वारा अत्यन्त पूजनीय है।‘ एक आस्ट्रियाई पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार एडुअर्ड ग़्लेसर (1855-1908) के अनुसार ‘काबा’ शब्द दक्षिणी अरबी या इथियोपियाई शब्द ‘मिक़राब’ से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ है मन्दिर। इनसाइक़्लोपीडिया ब्रिटैनिक़ा के अनुसार ‘काबा का आरम्भिक इतिहास ज्ञात नहीं है, किन्तु यह निर्विवाद है कि स्थान इस्लाम के उदय से पूर्व बहुत-से देवी-देवताओं के मन्दिरोंवाला और अरब प्रायद्वीप के निवासियों का तीर्थस्थल था।’ इन सभी उद्धरणों से सिद्ध होता है कि मक्का में शिवलिंग अत्यन्त प्राचीनकाल से विद्यमान रहा है। इसलिये उस तीर्थ को सदैव ‘मन्दिर’ ;ज्मउचसमद्ध ही कहा और माना गया है न कि मस्ज़िद।

काबा की यात्रा से पूर्व हज-यात्री को अपना सिर और दाढ़ी मुँडवाने के लिए और एक विशिष्ट परिधान धारण करने के लिए कहा जाता है। ये बिना सिलाई किए हुए श्वेत वस्त्रों की दो चादरें होती हैं। एक को कमर के चारों ओर लपेटना होता है और दूसरे को कंधे पर धारण करना होता है। ये दोनों कृत्य हिंदू-देवालयों में मुण्डन कराकर एवं बिना सिलाई किए श्वेत वस्त्र धारणकर प्रविष्ट होने की पुरातन वैदिक-रीति के ही चिह्न हैं।

हज-यात्री घड़ी की सूइयों की विपरीत दिशा में काबा की सात परिक्रमा करते हैं। इस प्रथा को ‘तवाफ़’ कहा जाता है। चूँकि मुहम्मद साहब प्रत्येक हिंदू रीति-रिवाज का विरोध करते थे, इसलिए उन्होंने अपने अनुयायियों (मुसलमानों) को काबा की उलटी परिक्रमा करने का आदेश दिया। दुनिया की अन्य किसी भी मस्ज़िद में परिक्रमा करने की प्रथा नहीं है। मन्दिरों में देव-विग्रहों की परिक्रमा करना हिंदू पूजन-पद्धति का अभिन्न अंग है। यह भी इस बात का प्रमाण है कि काबा एक इस्लाम के आगमन के पहले का शिव-मन्दिर है, जहाँ सात परिक्रमाएँ लगाने की हिंदू-रीति का अभी भी पालन हो रहा है। इतना ही नहीं, इससे यह भी सिद्ध हो रहा है कि इस्लाम की यह उद्घोषणा, कि वह मूर्तिपूजक नहीं है, सत्य नहीं है।

इस घनाकार इमारत के चार कोने कुतुबनुमा पर प्रधान चार दिशा-बिन्दु को प्रदर्शित करते हैं। काबा के चारों कोनों का भी इस्लामी नामकरण किया गया है। इसके पूर्वी कोने को ‘रुक़्न-उल्-अस्वद’ अथवा ‘काला कोना’ कहा जाता है। उत्तरी कोने को ‘रुक़्न-उल्-इराक़ी’ अथवा ‘इराक़ी कोना’ कहा जाता है। पश्चिमी कोने को ‘रुक़्न-उश्-शमी’ अथवा ‘लिवैन्टाइन कोना’ कहा जाता है। दक्षिणी कोने को ‘रुक़्न-उल्-यमानी’ अथवा ‘येमेनी कोना’ ;ल्मउमदप ब्वतदमद्ध कहा जाता है।

काबा का ठोस सोने से निर्मित 7 फीट ऊँचा प्रवेशद्वार इसकी उत्तर-पूर्वी दीवाल में सतह से 7 फीट ऊपर स्थित है। काबा के भीतर एक ही कक्ष है। साधारणतः कक्ष में जाना प्रतिबन्धित है। कक्ष के भीतरी भाग का चित्र नहीं लिया जा सकता, किन्तु बाहरी हिस्से का लिया जा सकता है। प्रवेशद्वार पर सदैव स्वर्ण-ताला जड़ा रहता है। कक्ष को वर्ष में दो ही बार सफ़ाई हेतु खोला जाता है। कक्ष की स्वर्ण-कुंजी परम्परगत रूप से ‘बानी शैबात’ वंश के पास रहती है। काबा के ‘स्वच्छता-समारोह’ के समय इसी वंश के सदस्य काबा के भीतर जाकर ‘आब-ए-ज़मज़म’ (ज़मज़म के जल) और फ़ारसी-गुलाबजल से इसकी सफ़ाई करते हैं। इस मौके पर कुछ अतिविशिष्ट लोगों को काबा के भीतर जाने के लिए आमन्त्रित किया जाता है।

काबा के संबंध में एक प्रारम्भिक इस्लामी मान्यता है कि ‘काबा की दीवारों के भीतर ख़ज़ाना गड़ा है, जिसकी रक्षा एक नाग करता है’। यह मान्यता भी काबा के हिंदू-मूल की ओर इशारा करती है। भगवान् शंकर से नागों का संबंध तो सुप्रसिद्ध है। शिव-मन्दिरों में प्रायः नागदेवता दिख जाते हैं। स्पष्ट है कि काबा भी एक समय में शिव-मन्दिर रहा है, तभी वहाँ नागों का आना-जाना लगा रहा है। इसके बाद मुसलमानों को अब और किस प्रमाण की आवश्यकता है?

शैवागम और वैदिक वास्तुशास्त्र के ग्रन्थों के अनुसार शिव-मन्दिर (शिवलिंग सहित) का मुख उत्तर की ओर होना चाहिए। मन्दिर का प्रवेश-द्वार भी पूर्व या उत्तर-पूर्व की ओर होना चाहिए। प्रार्थना-कक्ष भी प्रार्थना-भवन के उत्तर-पूर्व की ओर होना चाहिए और कक्ष में स्थापित मूर्ति का मुख उत्तर की ओर होना चाहिए। भवन का प्रवेश-द्वार उत्तर या उत्तर-पूर्व की ओर होना चाहिए। दुनिया के किसी भी हिंदू-मन्दिर एवं प्रार्थना-भवन में इस विशेषता को देखा जा सकता है। इस तथ्य के आलोक में ‘इस्लामी इमारत’ कही जानेवाली ‘काबा’ का अवलोकन करना उचित होगा।

इस्लामी-किंवदन्तियों के अनुसार काबा का 9 से लेकर 12 बार तक पुनर्निर्माण हुआ है। इनके अनुसार काबा का सर्वप्रथम निर्माण पैगंबर आदम ने किया था। कुरआन के अनुसार अल्लाह के आदेश से पैग़ंबर अब्राहम (2000-1825 ई.पू.) ने अपने ज्येष्ठ पुत्र इश्माइल (1914-1777 ई.पू.) की सहायता से काबा का पुनर्निर्माण किया था। तीसरी बार (?) मुहम्मद साहब ने पैग़ंबर होने से पूर्व काबा का पुनर्निर्माण करवाया था। एक समय मक्का में विनाशकारी बाढ़ आने पर काबा को काफ़ी क्षति पहुँची और इसके जीर्णोद्धार की आवश्यकता महसूस हुई। इस कार्य को कुरैशियों के चार कुलों ने अपने हाथों में लिया। मुहम्मद साहब ने जीर्णोद्धार में सहायता की थी। सन् 683 से 692 तक मक्का पर शासन करनेवाले अब्दुल्लाह इब्न-अल्-जुबैर (624.692) ने चतुर्थ बार (?) काबा का जीर्णोद्धार करवाया। उसने काबा की छत को सँभालने के लिए कक्ष में 3 काष्ठ-स्तम्भ लगवाए। उस समय उसने काबा में दो दरवाजे लगवाए थे, जिसमें एक का मुँह पूर्व की ओर और दूसरे का पश्चिम की ओर था। कक्ष में रोशनदान की भी व्यवस्था की गई थी। यह निर्माण सन् 683 में जुबैर और अरबी-प्रशासक व राजनीतिज्ञ अल्-हज़्ज़ाज़-इब्न-यूसुफ़ (661-714) के नेतृत्ववाली उमैय्या सेना के मध्य हुए युद्ध में अग्निकाण्ड का शिकार हो गया। बाद में 5वें उम्मैय्या ख़लीफ़ा अब्द अल्-मलिक इब्न् मारवान (646-705) ने युद्ध की समाप्ति की और सन् 693 में क्षतिग्रस्त काबा को तुड़वाकर उसकी जगह नयी इमारत का निर्माण करवाया और काबा को किस्वत् से ढकने की परम्परा की शुरूआत की।

काबा की पूर्वी बाहरी दीवार के कोने में सतह से 1.5 मीटर ऊपर 30 सेमी. (12 इंच) व्यासवाला लाल-काले रंग का एक अण्डाकार पत्थर चिना हुआ है, जिसे ‘अल्-हजर-उल्-अस्वद’ कहा जाता है। इसे ‘हजर-ए-अस्वद’ ‘हिजरे अस्वद’ ‘काला पत्थर’ और ‘काबा पत्थर’ भी कहा जाता है। इस पत्थर को इस्लाम में पवित्रतम वस्तु माना जाता है। दुनियाभर के मुसलमान इसी पत्थर का दर्शन करने, जितनी बार हो सके, मक्का जाते हैं। इस्लामी-परम्परानुसार यह पत्थर फ़रिश्ते ग़ैब्रियल द्वारा पैग़ंबर अब्राहम को दिया गया था। इस्लामी-मान्यता से यह पत्थर मूलतः सफे़द था, किन्तु सहस्राब्दियों से अशुद्ध लोगों अथवा पापियों द्वारा छूते रहने से काला हो गया था। आमतौर पर यह पत्थर ‘किस्वत’ (काली चादर) से ढका रहता है। हज के दौरान किस्वत को हटाकर इसे दिखाया जाता है। दिखाने की विधि भी रोचक है । इस पत्थर को सीधे न दिखाकर योनि के आकार के चाँदी के एक बड़े भारी फ्रे़म में दिखाया जाता है। हज-यात्री फ्ऱेम के बीचोबीच बने एक गोलाकार छिद्र में झाँककर इसे देखते हैं और इसे चूमते हैं। काबा की सात प्रदक्षिणा करते समय प्रत्येक बार इसे देखने और चूमने का विधान है। कहने की आवश्यकता नहीं कि यह वही शिवलिंग है, जिसे मुसलमानों ने अधिगृहित कर लिया है। योनि के आकार के फ्रे़म में जड़ित पवित्र काला पत्थर शिवलिंग नहीं तो और क्या है ? संस्कृत का ‘अजर-अश्वेत’ (अविनाशी/अमर अश्वेत/काला (पत्थर)) ही अरबी में विकसित होकर ‘हजरे अस्वद’ बन गया है- ‘अजर > ‘हजर’ । फ़ारसी में इस पत्थर को ‘संगे-अस्वद’ कहा जाता है, जो ‘लिंग-अश्वेत’ का विकसित रूप प्रतीत होता है। भविष्यमहापुराण में इसी शिवलिंग का उल्लेख आया है, जिसे राजा भोज ने पंचगव्य एवं गंगाजल से स्नान कराया था।

सुप्रसिद्ध यूरोपीय-लेखिका फै़नी पार्क्स (1794-1875) ने लिखा है : ‘हिंदुओं का दावा है कि काबा की दीवार में फँसा पवित्र मक्का के मन्दिर का काला पत्थर महादेव ही है। मुहम्मद ने वहाँ उसकी स्थापना तिरस्कारवश की। तथापि अपने प्राचीन धर्म से बिछुड़कर नये-नये बनाए गए मुसलमान उस देवता के प्रति अपने श्रद्धाभाव को न छोड़ सके और कुछ बुरे शकुन भी दिखलाई देने के कारण नये धर्म के देवताओं को उस श्रद्धाभाव के प्रति आनाकानी करनी पड़ी।’ काशीनाथ शास्त्री ने उल्लेख किया है- ‘मुसलमानों के तीर्थ मक्काशरीफ में भी ‘मक्केश्वर’ नामक शिवलिंग का होना शिवलीला ही कहनी पड़ेगी। वहाँ के ज़मज़म नामक कुएँ में भी एक शिवलिंग है, जिसकी पूजा खजूर की पत्तियों से होती है।’ डॉ. ता.रा. उपासनी ने भी उल्लेख किया है कि मक्का में दो शिवलिंग हैं।’

काबा-मन्दिर से 21 मीटर पूर्व पवित्र जलवाला एक अत्यन्त प्राचीन कूप है, जिसे ‘ज़मज़म का कुआँ’ कहा जाता है। इस्लामी जनश्रुति के अनुसार यह कुआँ चार हज़ार वर्ष पुराना है (अर्थात् जब इस्लाम का जन्म भी नहीं हुआ था)। इसकी गहराई 30.5 मीटर और इसका आन्तरिक व्यास 1.08 से 2.66 मीटर है। इसके जल को ‘आब-ए-ज़मज़म’ कहा जाता है। फ़ारसी-शब्द ‘आब’ संस्कृत के ‘आप्’ से उद्भूत है, जिसका अर्थ जल होता है। ‘ज़मज़म’ शब्द भी ‘गंगाजलम्’ का विकसित रूप प्रतीत होता है। यह कुआँ कभी नहीं सूखता। मुहम्मद साहब के अनुसार ‘आब-ए-ज़मज़म पृथ्वी का उत्तम जल है; यह भोजन का एक प्रकार है जो थकावट व बीमारी को दूरकर शरीर को स्वस्थ रखता है।’ यूरोपीय वैज्ञानिकों ने भी इसकी गुणवत्ता का परीक्षण करके इसे स्वास्थ्यवर्द्धक माना है।

वैदिक परम्परा है कि जहाँ कहीं भी शिव-मन्दिर हो, वहाँ जलधारा का प्रबन्ध अवश्य होगा, ताकि भक्त शिव का जलाभिषेक कर सकें। शिव के शीर्ष पर भी गंगा का अंकन होता है। इन्हीं सब परम्पराओं के अनुसार काबा के भी समीप ज़मज़म का कुआँ है। हज-यात्री भी इसे गंगाजल के समान पवित्र मानकर पीते हैं और इसे बोतल में भरकर अपने घरवालों, मित्रों और संबंधियों के लिए ले जाते हैं। काबा में प्रवेश से पूर्व हज-यात्रियों को आब-ए-ज़मज़म से मुखमार्जन और पाद-प्रक्षालन के लिए कहा जाता है, जिस प्रकार भारत में हिंदू-तीर्थयात्री तीर्थ में प्रवेश से पूर्व पवित्र जलाशय में डुबकी लगाते हैं। इस्लामी-परम्परा के अनुसार आब-ए-ज़मज़म से शुद्ध होनेवाला मुसलमान सभी पापों मुक्त हो जाता है, जिस प्रकार भारतीय-परम्परा में गंगा में डुबकी लगानेवाला मनुष्य सभी पापों से मुक्त हो जाता है। किसी मुसलमान की मौत होने पर उसके कफ़न पर ठीक उसी प्रकार आब-ए-ज़मज़म का छींटा लगाया जाता है, जिस प्रकार किसी हिंदू का अन्त आने पर उसके मुँह में गंगाजल डाला जाता है।

कुरआन के अनुसार अल्लाह के आदेश से पैग़ंबर अब्राहम ने अपने ज्येष्ठ पुत्र इश्माइल की सहायता से काबा इमारत का पुनर्निर्माण किया था, जो सेमेटिक-मान्यता से ईसा से 1800 वर्ष पूर्व हुए थे। यद्यपि इतिहाससम्मत तथ्य है कि इस्लाम का प्रादुर्भाव सन् 622 ई. में, अर्थात् आज से मात्र 1388 वर्ष पूर्व हुआ था। स्पष्ट है कि मक्केश्वर महादेव मन्दिर, उसकी देहली, अजर-अश्वेत शिवलिंग, विष्णु पदचिह्न और ज़मज़म के प्राचीन कूप को इस्लामी-रचना सिद्ध करने के लिए उक्त कहानी गढ़ ली गई है। वास्तविकता यह है कि ये सभी रचनाएँ इस्लाम के आगमन के पहले का मक्केश्वर महादेव मन्दिर की हैं, इनका इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है।

इस्तांबुल के प्रसिद्ध राजकीय पुस्तकालय ‘Süleymaniye Library’, जो प्राचीन पश्चिम एशियाई-साहित्य के विशाल भण्डार के लिए प्रसिद्ध है, के अरबी विभाग में प्राचीन अरबी-कविताओं का संग्रह ‘शायर-उल्-ओकुल’ हस्तलिखित ग्रन्थ के रूप में सुरक्षित है। इस ग्रन्थ का संकलन एवं संपादन बग़दाद के ख़लीफ़ा हारून-अल्-रशीद के दरबारी एवं सुप्रसिद्ध अरबी-कवि अबू-अमीर अब्दुल अस्मई ने किया था, जिसे ‘अरबी-काव्य-साहित्य का कालिदास’ कहा जाता है। सन् 1792 ई. में तुर्की के प्रसिद्ध शासक सलीम तृतीय (1789-1807) ने अत्यन्त यत्नपूर्वक किसी प्राचीन प्रति के आधार पर इसे लिखवाया था । इस दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ के पृष्ठ लेखनयोग्य कच्ची रेशम की एक क़िस्म ‘हरीर’ ;भ्ंतममतद्ध के बने हैं, जिसके कारण यह सर्वाधिक मूल्यवान पुस्तकों में से एक है। इस ग्रन्थ के प्रत्येक पृष्ठ को सुनहले सजावटी किनारी (बाॅर्डर) से सुसज्जित किया गया है। जावा एवं अन्य स्थानों पर पाई गई अनेक प्राचीन संस्कृत-पाण्डुलिपियाँ ऐसे ही सुनहली किनारी से सुसज्जित हैं।

इस महान् ग्रन्थ का प्रथम अंग्रे़ज़ी-संस्करण सन् 1864 में बर्लिन से प्रकाशित हुआ। द्वितीय संस्करण सन् 1932 में बेरुत से प्रकाशित हुआ। सन् 1963 ई. में डॉ. हरवंशलाल ओबराय (1925-1983) ने अपने इराक़-प्रवास के दौरान बग़दाद विश्वविद्यालय में हुए अपने व्याख्यान के समय इस ग्रन्थ को वहाँ पुनप्र्रकाशन हेतु संपादित होते देखा। डॉ. ओबराय उस ग्रन्थ की महत्त्वपूर्ण कविताओं को नोट करके भारत लाए। भारत लौटने पर बाबू जुगल किशोर बिड़ला ने उन कविताओं को एक बड़े लाल संगमरमर की पट्टी पर खुदवाकर दिल्ली के बिड़ला-मन्दिर में लगवाने का आदेश दिया। आज भी वह पत्थर बिड़ला-मन्दिर में लगा हुआ है।’

‘शायर-उल्-ओकुल’ ग्रन्थ तीन भागों में विभक्त है । प्रथम भाग में इस्लाम के आगमन के पहले का अरबी-कवियों का जीवनवृत्त एवं उनकी कविताएँ हैं । दूसरे भाग में इस्लाम के जनक मुहम्मद साहब की वाणी से लेकर ‘बानी उमय्या वंश’ (661-750) के ख़लीफ़ाओं के काल तक के कवियों की जीवनियाँ एवं उनकी रचनाएँ संकलित हैं। तीसरे भाग में ‘बानी अब्बासी वंश’ (750) के प्रारम्भ से लेकर संकलनकर्ता (अबू-अमीर अब्दुल असमई) के काल तक के कवियों की रचनाएँ संकलित हैं।

प्राचीन अरबी-कविताओं का यह संग्रह वस्तुतः एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण दस्तावेज है, जो प्राचीन अरबों के जनजीवन, शिष्टाचार, मर्यादाएँ, मनोरंजन, प्रचलित प्रथाओं तथा इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त मुख्य रूप से प्राचीनकालीन अरबों के प्रधान तीर्थ ‘मक्का’ का भी बहुत सुन्दर वर्णन किया गया है।

इस्लामी तवारीख़ों और कतिपय विश्वकोशों के अनुसार मक्का क्षेत्र में 360 देवी-देवताओं की पूजा होती थी। इनमें बृहस्पति, मंगल, सोम, शुक्र शनि आदि नवग्रहों, अश्विनीकुमार, गरुड़, नृसिंह, गणपति, दुर्गा, दशहरा, सरस्वती, अल्लः, बुद्ध, बलि आदि प्रमुख थे। ये निःसन्देह मक्केश्वर तीर्थ के निर्माता भगवान् ब्रह्मा के 360-दिवसीय एक वर्ष का प्रतिनिधित्व करते थे। पुस्तक ‘शायर-उल्-ओकुल’ स्पष्ट रूप से वर्णन करती है कि इन मन्दिरों के बीच में एक विशाल अर्द्धवृत्ताकार काला पत्थर स्थापित है (था), जिसे ‘मक्केश्वर महादेव’ कहा जाता है (था)। उसकी पूजा ‘आब-ए-ज़मज़म’ तथा खजूर के पत्तों से की जाती है (थी)। पुजारी लोग अरब के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली ‘कुरैश’ जाति के थे। यह कुरैश जाति निश्चय ही भारतीय ‘कुरु’ वंश है। महाभारत युद्ध के बाद कौरवपक्षीय कुरुओं को भारतीय सीमा छोड़नी पड़ी थी। देश से निकाले गए यही कुरुवंशी पूरी दुनिया में फैले हैं। इन्हीं कुरुओं की एक शाखा अर्वस्थान में बसकर ‘कुरैशी’ कहलायी।

‘शायर-उल्-ओकुल’ की भूमिका में मक्का में प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि के अवसर पर आयोजित होनेवाले वार्षिक मेले ‘ओकाज़’ का वर्णन है। इस मेले का मुख्य आकर्षण मक्का के मुख्य मन्दिर मक्केश्वर महादेव (अब ‘अल्-मस्ज़िद-अल्-हरम्’) के प्रांगण में होनेवाला एक सारस्वत कवि-सम्मेलन था, जिसमें सम्पूर्ण अर्वस्थान से आमन्त्रित कवि काव्य-पाठ करते थे। ये कविताएँ पुरस्कृत होती थीं। सर्वप्रथम कवि की कविता को स्वर्ण-पत्र पर उत्कीर्णकर मक्केश्वर महादेव मन्दिर के परमपावन गर्भगृह में लटकाया जाता था। द्वितीय और तृतीय स्थानप्राप्त कविताओं को क्रमशः ऊँट और भेड़/बकरी के चमड़े पर निरेखितकर मन्दिर की बाहरी दीवारों पर लटकाया जाता था। इस प्रकार अरबी-साहित्य का अमूल्य संग्रह हज़ारों वर्षों से मन्दिर में एकत्र होता चला आ रहा था। यह ज्ञात नहीं है कि यह प्रथा कब प्रारम्भ हुई थी, परन्तु पैगम्बर के जन्म से 23-24 सौ वर्ष पुरानी कविताएँ उक्त मन्दिर में विद्यमान थीं।

सन् 630 में मुहम्मद साहिब की इस्लामी सेना द्वारा मक्का पर की गई चढ़ाई के समय उनकी सेना ने ये स्वर्ण-प्रशस्तियाँ लूट लीं और शेष में से अधिकांश को नष्ट कर दिया। जिस समय इन्हें लूटा जा रहा था, उस समय स्वयं मुहम्मद साहब का एक सिपहसालार-शायर हसन-बिन्-साबिक़ ने नष्ट की जा रही कविताओं में से कुछ को अपने कब्ज़े में कर लिया । इस संग्रह में 5 स्वर्ण-पत्रों व 16 चमड़े पर निरेखित कविताएँ थीं।

साबिक़ की तीन पीढ़ियों ने उन कविताओं को सुरक्षित रखा। तीसरी पीढ़ी का उत्तराधिकारी पुरस्कृत होने की आशा से इन कविताओं को मदीने से बग़दाद वहाँ के ख़लीफ़ा और संस्कृति के महान् संरक्षक हारून-अल् रशीद के पास ले गया, जहाँ उसे ख़लीफ़ा के दरबारी कवि अबू-अमीर अब्दुल अस्मई ने विपुल धनराशि देकर खरीद लिया।

उन 5 स्वर्ण-पत्रों में से दो पर इस्लाम के आगमन के पहले का अरबी शायरों- अमर इब्न हिशाम (624) और लबी-बिन-ए-अख़्तब-बिन-ए-तुर्फ़ा की कविताएँ उत्कीर्ण थीं। साहित्यप्रेमी हारून-अल्-रशीद ने अस्मई को ऐसी समस्त पूर्वकालीन और वर्तमान कवियों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व को संकलित करने का आदेश दिया, जिसे अरब का विशालतम काव्य-संग्रह कहा जा सके। उसी का परिणाम है- ‘शायर-उल्-ओकुल’ का संकलन।

‘शायर-उल्-ओकुल’ की सबसे महत्त्वपूर्ण एवं रहस्योद्घाटनकारी कविता अरब के महाकवि और भगवान् महादेव के परम भक्त ‘अमर-इब्न हिशाम’ की है, जिन्हें उनके समकालीन व्यक्ति सम्मानपूर्वक ‘अबूल हक़म’ (ज्ञान का पिता) कहकर पुकारते थे। हिशाम मक्का के एक प्रसिद्ध नेता थे, जो कुरैशी वंश के ‘बानु मखजुम’ शाखा से संबंध रखते थे। इस दृष्टि से हिशाम, मुहम्मद साहब के चाचा लगते थे, यद्यपि वह उनके सगे चाचा नहीं थे। हिशाम ने मक्का के इस्लामीकरण के समय इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया था, अतः मुसलमान द्वेषवश उन्हें ‘अबू ज़हाल’ कहते थे। हिशाम के पुत्र इकरिमाह इब्न अबि-जहाल ने सन् 630 ई. में इस्लाम स्वीकार कर लिया और वह प्रारम्भिक इस्लामी राज्य का महत्त्वपूर्ण नेता हुआ। हिशाम हिंदू-धर्म को बचाने के लिए लड़े गए बद्र के युद्ध में उन मुसलमानों के हाथों शहीद हुए जो सभी ग़ैर-इस्लामी चिह्नों को मिटा देना चाहते थे। इस महाकवि ने मक्का के कुलदेवता मक्केश्वर महादेव और पवित्र भारतभूमि के लिए कविता लिखी थी, जो मक्का के वार्षिक ओकाज़ मेले में प्रथम पुरस्कृत होकर काबा देवालय के भीतर स्वर्णाक्षरों में उत्कीर्ण होकर टंगी थी-

‘कफ़विनक़ ज़िक़रा मिन उलुमिन तब असेरू । क़लुवन अमातातुल हवा तज़क्क़रू ।।1।।

न तज़ख़ेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा । वलुकएने ज़ातल्लाहे औम तब असेरू ।।2।।

व अहालोलहा अज़हू अरामीमन महादेव ओ । मनोज़ेल इलमुद्दीने मीनहुम व सयत्तरू ।।3।।

व सहबी के याम फ़ीम क़ामिल हिंदे यौग़न । व यकुलून न लातहज़न फ़इन्नक़ तवज़्ज़रू ।।4।।

मअस्सयरे अख़्लाक़न हसनन कुल्लहूम । नजुमुन अज़ा अत सुम्मा ग़बुल हिंदू ।।5।।’ख् 100 ,

अर्थात्, ‘वह मनुष्य, जिसने अपना जीवन पाप और अधर्म में बिताया हो; काम-क्रोध में अपना यौवन नष्ट कर लिया हो ।।1।। यदि अन्त में उसे पश्चाताप हो और वह भलाई के मार्ग पर लौटना चाहे तो क्या उसका कल्याण हो सकता है ? ।।2।। हाँ, यदि वह एक बार भी सच्चे हृदय से महादेव की आराधना करे, तो वह धर्म-मार्ग पर परम पद को प्राप्त कर सकता है ।।3।। हे प्रभु ! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन हिंद (भारत) में निवास के लिए दे दो, क्योंकि उस पवित्र भूमि पर पहुँचकर मनुष्य आध्यात्मिकतः मुक्त हो जाता है ।।4।। वहाँ की यात्रा से सत्कर्म के गुणों की प्राप्ति होती है और आदर्श हिंदू-गुरुजनों का सत्संग मिलता है ।।5।।’

इस्लाम के आगमन के पहले का अरबी-कवि अमर इब्न हिशाम की उपर्युक्त कविता से अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकलते हैं । सर्वप्रथम, हमारी यह मान्यता और भी पुष्ट हुई है कि भगवान् महादेव समस्त अर्वस्थान में परमपूज्य देवता के रूप में प्रतिष्ठित थे। दूसरा, उपर्युक्त कविता में ‘हिंद’ (भारत) और ‘हिंदू’ शब्द अरबवासियों के लिए वरदानस्वरूप बताया गया है। इस्लाम के आगमन के पहले का युग में अरबवासी भारतभूमि को ‘हिंद’ कहते थे और उसकी यात्रा के लिए अत्यन्त उत्सुक रहा करते थे। हिंद के प्रति अरबों में इतना श्रद्धाभाव था कि अरबवासी प्रायः अपनी बेटियों के नाम ‘हिंद’ रखते थे। इस्लाम के आगमन के पहले का अर्वस्थान में ‘हिंद-बिन-उतबाह’ नामक एक प्रभावशाली महिला हुई, जिसने मुहम्मद साहब के विचारों का विरोध किया था। इस कारण इस्लामी इतिहास में वह कुख्यात है। स्वयं मुहम्मद साहब की एक पत्नी का नाम भी हिंद (पूरा नाम ‘उम्म सलमा हिंद बिन्त अबी उम्मैया’) था। इनके अतिरिक्त अर्वस्थान में हिंद नामवाली कई महिलाएँ हुईं। अरबवासी भारतीय ऋषि-मुनियों, चिन्तकों, वेदांतियों, विद्वानों तथा द्रष्टाओं को अपना मार्गदर्शक मानते थे। उन्हीं के चरणों में बैठकर अरबों ने सभ्यता का प्रथम पाठ सीखा।
( सोशल मीडिया से साभार)

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