लोहारू का मुस्लिम नवाब और आर्य समाज का संघर्ष

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लोहारू 1947 से पहले एक मुस्लिम रियासत थी। रियासत का नवाब मतान्ध मुस्लिम था। आर्यसमाज का जब प्रचार कार्य लोहारू में आरम्भ हुआ तो मुस्लिम नवाब को यह असहनीय हो गया कि आर्यसमाज उसके रहते कैसे समाज सुधार करने की सोच कैसे सकता है। लोहारू में समाज सुधार के लिए आर्यसमाज की स्थापना हेतु आर्यसमाज के प्रधान सेनानी स्वामी स्वतंत्रानन्द जी लोहारू पधारे। उनके साथ स्वामी ईशानन्द, न्योननंद सिंह (स्वामी नित्यानंद), भरत सिंह शास्त्री, ठाकुर भगवंत सिंह आदि प्रमुख आर्य सज्जन थे। आप सभी जुलुस निकालते हुए लोहारू की गलियों से निकले। नवाब ने अपने मुस्लिम गुंडों द्वारा जुलुस पर आक्रमण करवा दिया। स्वामी स्वतंत्रानन्द के सर पर कुल्हाड़े से हमला किया गया। उनका सर फट गया। बाद में रोहतक जाकर दिल्ली के ट्रैन मैं बैठकर उन्होंने टांकें लगवाये। अनेक आर्यों को शारीरिक हानि हुई। मगर जुलुस अपने गंतव्य तक पंहुचा। सम्पूर्ण लोहारू में आर्यों पर हुए अत्याचार को लेकर नवाब की घोर आलोचना हुई। आर्यसमाज की विधिवत स्थापना हुई। आर्यसमाज के सत्यवादी एवं पक्षपात रहित आचरण से नवाब प्रभावित हुआ। नवाब ने स्वामी स्वतंत्रानन्द को अपने महल में बुलाकर क्षमा मांगी। समाज सुधार के लिए आर्यसमाज ने लोहारू और उसके समीप विभिन्न विभिन्न ग्रामों में पाठशाला की स्थापना करी। यह पाठशालाएं आर्यों के महान परिश्रम का परिणाम थी। नवाब के डर से आर्यों को न कोई सहयोग करता था। न भोजन देता था। चार-चार दिन भूखे रहकर उन्होंने श्रमदान दिया। तब कहीं जाकर पाठशालाएं स्थापित हुई। दरअसल लोहारू में उससे पहले केवल एक इस्लामिक मदरसा चलता था जिसमें केवल उर्दू पढ़ाई जाती थी। अधिकतर मुस्लिम बच्चे ही पढ़ते थे। एक आध हिन्दू बच्चा अगर पढ़ता भी था तो उसके ऊपर मौलवी इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाते रहते थे। इसलिए हिन्दू जनता प्राय: अशिक्षित थी। आर्यसमाज द्वारा स्थापित पाठशाला में सवर्णों के साथ साथ दलितों को सभी को समान्तर शिक्षा दी जाती थी।
1947 के पश्चात नवाब जयपुर चला गया। एक बार स्वामी ईशानन्द उनसे किसी समारोह में मिले। स्वामी जी ने नवाब से पूछा की अपने आर्यों पर इतना अत्याचार क्यों किया जबकि वे तो उत्तम कार्य ही करने लोहारू आये थे। नवाब ने उत्तर दिया। अगर आर्यसमाज के प्रभाव से मेरी रियासत की जनता जागृत हो जाती तो मेरी सत्ता को खतरा पैदा हो जाता। अगर हिन्दू पढ़-लिख जाते तो मेरी नवाबशाही के विरोध में खड़े हो जाते। इसलिए मैंने आर्यसमाज का लोहारू में विरोध किया था।

पाठक समझ सकते है कि हिन्दू जनता पर मुस्लिम शासक कैसे इतने वर्षों से अत्याचार करते आ रहे है। इसीलिए स्वामी दयानंद ने स्वदेशी राजा होने का आवाहन किया था। आर्यसमाज का इतिहास ऐसे अनेक प्रेरणादायक संस्मरणों से भरा हुआ हैं।

#डॉविवेकआर्य

Pic-गुरुकुल झज्झर की रजत जयंती पर वर्ष १९४७ में पधारे स्वामी स्वतंत्रतानन्द जी, जगदेव सिंह सिद्धांति, स्वामी ओमानंद जी।

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