हम ‘ताश’ खेलते रह गए और जिंदगी नजदीक से होकर चली गई
हम टाइम पास करते रह गए ….
हम संसारीजन जब परस्पर एक दूसरे से कुशलक्षेम पूछते हैं तो अक्सर कुशल क्षेम बताने वाला व्यक्ति यह कहता हुआ पाया जाता है कि ‘बस कर रहे हैं टाइम पास।’ युद्धिष्ठिर परिव्राजक जी इस विषय में अपने प्रवचनों में कहते हैं कि जैसे कोई व्यक्ति रेलवे स्टेशन पर जाता है और वहां जाकर उसे पता चलता है कि गाड़ी के आने में अभी बहुत समय है तो वह ताश खेलने लगता है, टीवी देखने लगता है या किसी और दूसरे मनोरंजन में अपने आपको लगा लेता है। उससे पूछा जाए कि क्या कर रहे हो ? – तो वह कहता है कि टाइम पास कर रहा हूं । बस, यही स्थिति हम सब की हो गई है। हम सब मोक्ष प्राप्ति के जिस उद्देश्य को लेकर यहां आए थे, उससे अलग हटकर सांसारिक विषय वासना, ऐश्वर्यों और भोगों में अपने आप को लगाकर टाइम पास कर रहे हैं। समझ लो कि जैसे स्टेशन पर बैठे व्यक्ति के पास रेल में बैठने का टिकट होता है वैसे ही यह मानव रूपी चोला ईश्वर ने हमें मोक्ष की गाड़ी में बैठने का टिकट देकर भेजा है।
पर हम भी ताश खेलने में लग गए। मैं वकील हूं, मैं प्रोफेसर हूँ, मैं पत्रकार हूं, मैं नेता हूं, मैं विधायक हूँ , मंत्री हूँ – ये सारे के सारे ताश के पत्ते हैं ,जिनमें हम उलझ कर रह गए। हम इन पत्तों को चलते फेंटते रह गए और रेल आकर हमारे पास से चली गई। हम एक दूसरे को नीचा दिखाने की घात प्रतिघात की नीतियों में या कुटिल चालों में ऐसे उलझे कि रेल की सीटी की आवाज भी हमें सुनाई नहीं दी। हम टाइम पास करते रह गए और टाइम हमारे बहुत निकट से होकर निकल गया।
हमने इस संसार में आने के बाद डॉक्टर, वकील, प्रोफ़ेसर, उद्योगपति या ऐसे ही अन्य खिलौनों को प्राप्त कर यह समझ लिया कि शायद हम जीवन के वास्तविक उद्देश्य को प्राप्त कर चुके हैं ,जबकि यह तो मात्र टाइमपास का साधन था। हमने साधन को साध्य समझ लिया। इन सबको प्राप्त करके हमें इनके बीच रहकर बड़े लक्ष्य को प्राप्त करना था , पर उस वाली बात हो गई कि –
हम फूल चुनने आए थे बागे हयात में ।
दामन को खारजार में उलझा के रह गए।।
आत्मा की इच्छा थी कि मानव योनि को पाकर ईश्वर का सानिध्य, सामीप्य मिलेगा, उसकी आराधना और उपासना का समय मिलेगा और उसकी आराधना उपासना का आनंद अनुभव कर सकूंगी । पर मानव ने यहां आते ही दूसरी दुकानों पर जाकर ऐसे ऐसे सौदा खरीदने आरंभ कर दिए जिनका आत्मा से दूर का भी संबंध नहीं था। उन्होंने मेवों को खाने वाली अर्थात आत्मानंद के योगरूपी भोग से अपने आपको जोड़कर चलने वाली आत्मा को कूड़ा कबाड़ खिलाना आरंभ कर दिया। सारी कुछ फजीहत हो गई।
शंकराचार्य जी से जब पूछा गया कि “मुमुक्षुत्वम किम?” उन्होंने कहा – “मोक्षो मे भूयादितीच्छा” – अर्थात मेरा मोक्ष हो, ऐसी इच्छा का होना मुमुक्षत्व है। स्वामी दयानंद जी सरस्वती ने इसकी व्याख्या यह कि है जैसे क्षुधा- तृषातुर को शिवाय अन्न जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वैसे बिना मुक्ति के साधन और मुक्ति से अन्य दूसरे में प्रीति न होना मुमुक्षुत्व है।
उत्कट अभिलाषा का होना कि सब प्रकार के दुखों से मुझे मुक्ति मिल जाए और परमानंद प्राप्त हो। साधक जब इस अवस्था को प्राप्त हो जाता है तो उसे परोपकार और परमार्थ के अतिरिक्त अन्य कोई दूसरा रास्ता अपने आपको साधकर और संभाल कर चलने के लिए दिखाई नहीं देता । ऐसी अवस्था को प्राप्त साधक जगतहित और प्राणीमात्र के कल्याण में लगा रहता है। उनसे प्राप्त आनंद को जब प्रभु की गोद में बैठकर अर्थात संध्या उपासना में जाकर उसे सौंपता है तो उसका यह आनंद और भी अधिक बढ़ जाता है।
ऐसी साधक को यदि भूख लगती है तो वह भी परमार्थ, परोपकार और परमानंद की लगती है और यदि प्यास लगती है तो वह भी परमार्थ, परोपकार और परमानंद की लगती है । सारा कुछ इन्हीं तीनों शब्दों में सिमट कर रह जाता है। तब उसे संसार के ऐश्वर्य और ऐषणाएं अपनी ओर आकर्षित नहीं करती। संसार के लफड़ों झगड़ों में पड़े उन लोगों के बीच जाकर वह अपने आप को असहज अनुभव करता है जिन लोगों की चेतना घुटनों में निवास करती हो। क्योंकि ऐसे लोग संसार के लफड़े और झगड़ों में ही सुख की अनुभूति करते हैं। उनके बीच बैठकर उसे लगता है कि जैसे उसने अपना समय नष्ट कर दिया है। वह टाइम पास करने वाला नहीं होता बल्कि वह टाइम का सदुपयोग करने वाला होता है। उसके लिए एक एक पल कीमती होता है।
ऐसी साधक की वियोग की तड़प बढ़ने लगती है। तब वह कहता है :-
मैं प्यासी हौं पीव की रटत सदा पिव पीव।
पिया मिले तो जीवहौं सहजै त्यागो जीव।।
महर्षि दयानंद ने ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका के उपासना विषय में यजुर्वेद के 11 वें अध्याय के पहले मंत्र का अर्थ करते हुए लिखा है कि – “योग को करने वाला मनुष्य तत्वज्ञान अर्थात ब्रह्म ज्ञान के पहले जब अपने मन को परमेश्वर में युक्त करते हैं तब परमेश्वर उनकी बुद्धि को अपनी कृपा से अपने में युक्त कर लेता है। फिर वह परमेश्वर के प्रकाश को निश्चय करके यथावत धारण करते हैं। पृथ्वी के बीच में योगी का यही प्रसिद्ध लक्षण है।”
यजुर्वेद के इसी अध्याय के तीसरे मंत्र की व्याख्या में महर्षि दयानंद ने लिखा है कि ” वही अंतर्यामी परमात्मा अपनी कृपा से उनको अर्थात साधकों को युक्त करके उनके अंतरात्मा में प्रकाश ब्रह्म ज्योति को प्रकट करता है।”
कितना पवित्र है मेरा वेद ? कितना महान है मेरा भारत ? जिसकी वेदों की ऋचाएं मनुष्य को महान बनने की प्रेरणा देती हैं। उसके जीवन को सुव्यवस्थित करती हैं। सच्ची धर्मनिरपेक्ष शिक्षा यदि कहीं से मिल सकती है तो निश्चित रूप से वह वेदों से ही मिल सकती है। संसार के झगड़ों से बचाकर और संसार में रहकर इस प्रकार की मानसिकता से ऊपर उठाने की शिक्षा केवल वेद की ऋचाएँ ही दे सकती हैं कि यहां पर काफिरों को खत्म कर दो और जो आपकी बात को नहीं मानते हैं उनके सर कलम कर दो आदि आदि।
वेद का एक-एक शब्द इसके विपरीत अपने साधक को यही कहता है कि इस संसार में ऐसा कुछ भी मत करना जो उपद्रव ,उत्पात और उग्रवाद को प्रोत्साहित करे या बढ़ावा दे। क्योंकि यदि इन सारे झगड़ों में अपने जीवन को नष्ट किया तो अनर्थ हो जाएगा । ईश्वर से की गई प्रतिज्ञा का उल्लंघन हो जाएगा। इसलिए वेद कहता है कि यहाँ आकर टाइम पास मत करो, खिलौनों में मत उलझो। ताश मत खेलो। ऐसा ना हो कि तुम ताश खेलते रह जाओ और मोक्ष रूपी गाड़ी आकर चली जाए। प्रमाद रूपी नींद के झटके मत लो बल्कि समय का सदुपयोग करते हुए ईश्वर के निकट जाने की साधना में लगो। इसके लिए जितने भी जन्म लेने पड़ें उतने लेते रहो पर तैयारी करो मोक्ष की। जिससे आवागमन के दुखपूर्ण चक्र से छुटकारा मिल सके।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत