महर्षि दयानंद ने वेदों का प्रचार और खंडन मंडन क्यों किया?

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ओ३म्

महर्षि दयानन्द ने अपने वैदिक, योग एवं उपासना ज्ञान सहित तदनुरूप कार्यों से विश्व के धार्मिक व सामाजिक जगत में अपना सर्वोपरि स्थान बनाया है। उन्होंने सप्रमाण सिद्ध किया है कि ज्ञान-विज्ञान का स्रोत ईश्वर व वेद हैं। आर्यसमाज के दस नियमों में उन्होंने पहला ही नियम बनाया है कि सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदि मूल परमेश्वर है। यहां प्रयुक्त विद्या शब्द में ज्ञान व विज्ञान दोनों सम्मिलित हैं। जिस मनुष्य को ईश्वर व वेदों का पूर्ण, स्पष्ट व निर्भरान्त ज्ञान नहीं है वह अध्यात्म में पूर्णता=ईश्वर साक्षात्कार को प्राप्त नहीं कर सकता। ईश्वर का सत्य वा यथार्थ ज्ञान भी मुख्यतः वेदों व तदाधारित वैदिक साहित्य के अध्ययन से ही होता है। वेद ही आध्यात्मिक व सामाजिक ज्ञान की प्रमाणिकता की प्रमुख कसौटी है।

यही कारण है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक वेदों के आश्रय से अनेक शास्त्रों उपनिषद, दर्शन, मुस्मृति की रचना हमारे निभ्र्रान्त ज्ञानी ़ऋषियों ने की और उन्हीं का प्रचार प्राचीन काल में समूचे विश्व में रहा है। वैदिक विचारधारा ने ही भारत को अतीत में अगणित ऋषियों सहित महाराजा हरिश्चन्द्र, अयोध्या के राजा राम और महाभारत के योगेश्वर श्री कृष्ण सदृश महात्मा व महापुरुष दिये हैं। वैदिक धर्म व संस्कृति रूपी ज्ञान की निर्मल व पवित्र धारा वेदों के आविर्भाव से ही सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुई व बही जो कि वैदिक काल गणना के अनुसार लगभग 1 अरब 96 करोड़ वर्षों की अवधि वा महाभारत काल पर्यन्त चली और आज भी यह विचारधारा निर्दोष एवं सर्वाधिक प्रभावशाली होने के कारण गौरव के साथ देश में विद्यमान है।

विगत पांच हजार वर्षों में भारत में धार्मिक, सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से अनेक उतार चढ़ाव आये हैं। पांच हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत के महाविनाशकारी युद्ध के कारण देश भर में राजनैतिक, सामाजिक व शैक्षिक व्यवस्था ढीली वा भंग हो गई थी। इस कारण दिन प्रतिदिन ज्ञान व विज्ञान घटने लगा व आलस्य व प्रमाद वृद्धि को प्राप्त होता गया। इस कारण समाज में अन्धविश्वासों की सृष्टि हुई। यज्ञ व अग्निहोत्र जिसको ‘‘अध्वर” इस कारण कहते हैं कि यह पूर्ण अंहिसक होता है, इसमें अज्ञानता व स्वार्थवश पशुओं की हत्या कर इनके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। अश्वमेध यज्ञ जो राष्ट्र रक्षा के पर्याय कार्यों का हितकारी कार्य होता था, उसमें घोड़े की हत्या कर उसके मांस से आहुतियां दी जाने लगी थी। इसी प्रकार अजामेध व गोमेध का भी हश्र हुआ। आश्चर्य होता है कि उस समय क्या भारत भूमि के एक भी ऐसा विद्वान नहीं रहा था जो इन दुष्कार्यों का विरोध करता? यह अत्याचार व अनाचार बढ़ता गया। अन्य अन्धविश्वास भी उत्पन्न होने लगे। क्योंकि यह सब अज्ञान के कार्य हमारे वेद के यथार्थ अर्थों व अभिप्रायों को भूले हुए पण्डितों द्वारा किये जाते थे। इस कारण किसी मनुष्य में इसका विरोध करने का साहस नहीं होता था। गुण, कर्म व स्वभाव के आधार पर वैदिक काल में स्थापित और सुचारू रूप से कार्यरत वर्ण-व्यवस्था का स्थान भी दोषपूर्ण जन्मना जाति व्यवस्था ने ले लिया जिससे दलित व छोटी जातियों पर अत्याचार होने लगे। वैदिक काल में सभी स्त्रियों व शूद्रों को अन्यान्य विषयों के अध्ययन सहित वेदों के अध्ययन का भी अधिकार प्राप्त था जिसे मध्यकाल के पण्डितों ने समाप्त कर दिया। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के समय में ऐसा भी एक समय आया कि जब वेदों के यथार्थ ज्ञान को जानने व समझने वाला एक भी विद्वान भारत में नहीं रहा। सारा समाज व देश अज्ञान व अन्धकार में डूब गया। इससे वैदिक धर्म व मनुष्य जाति की हानि व पतन तो होना ही था, जो भरपूर हुआ, और इस कारण हम पहले यवनों के और बाद में अंग्रेजों के गुलाम बन गये। महर्षि दयानन्द के समय में ऐसी स्थिति आ गई थी कि गुलामी से निकलने का कोई रास्ता किसी देशवासी व महापुरुष को नजर नहीं आता था। देश के अनेक अग्रणीय पुरूष तो अंग्रेजों के मत व उनकी गुलामी के प्रशंसक भी हुए हैं। ऐसे संक्रमण काल में यदि किसी ने देश व समाज के धार्मिक व सामाजिक रोगों का उपाय ढूंढा व उससे समाज को रोग मुक्त करने का प्राणपण से प्रयास किया तो उस महान अद्वितीय पुरूष का नाम है ऋषि स्वामी दयानन्द सरस्वती।

स्वामी दयानन्द ने देश भर में भ्रमण कर विद्वानों की खोज की और उनसे जो ज्ञान प्राप्त हो सकता था, प्राप्त करते रहे। उन्होंने अनेक योगियों से योग की अनेक क्रियाओं व रहस्यों को जाना व उनका अभ्यास किया। इस क्रम में वह एक सफल योगी बन गये और योग के चरम लक्ष्य ईश्वर साक्षात्कार को भी प्राप्त किया। अभी उनकी विद्या की तृप्ति होनी शेष थी। सौभाग्य से उन्हें मथुरा में एक प्रज्ञाचक्षु दण्डी गुंरु स्वामी विरजानन्द जी का पता मिला। वह देश का प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम समाप्त होने के बाद सन् 1860 में वहां पहुंचे और उनसे 3 वर्षों तक वेद-वेदांग अर्थात् संस्कृत के आर्ष व्याकरण सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया। उन्होंने अपने इन गुरुजी से सत्य व असत्य का ज्ञान करने कराने की कसौटी भी प्राप्त की। इसी कसौटी से उन्होंने वैदिक शास्त्रों व अन्य मतों के ग्रन्थों के सत्यासत्य की परीक्षा व अनुसंधान किया। गुरु विरजानन्द जी के सान्निध्य में तीन वर्ष रहकर अध्ययन पूरा हुआ और गुरु दक्षिणा का समय आया। स्वामीजी ने अपने गुरु विरजानन्द जी को उनकी प्रिय वस्तु कुछ लौंग दक्षिणा में दिये। गुरुजी ने उनकी दक्षिणा को ससम्मान स्वीकार किया परन्तु अपने मन की पीड़ा को भी उन्होंने स्वामी दयानन्द जी पर प्रकट किया। उन्होंने देश की दयनीय अवस्था का वर्णन करने के साथ देश में फैले अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, रूढ़िवाद, सामाजिक असमानता व विषमता, फलित ज्योतिष व अवतारवाद आदि की चर्चा की और बताया कि वह नेत्रहीन होने के कारण वेद प्रचार द्वारा धार्मिक सुधार, समाज सुधार व देशोन्नति के कार्य नहीं कर सके। उन्होंने स्वामी दयानन्द को इन कार्यों को करने की प्रेरणा व अपनी इच्छा व्यक्त की। यह गुरु विरजानन्द की इच्छा भी थी और प्रेरणा भी। इस प्रेरणा में देशोन्नति के लिए एक पवित्र आदेश भी था। स्वामी दयानन्द ने गुरुजी के इस प्रस्ताव पर कुछ क्षण मौन रहकर विचार किया और गुरुजी को उनकी आज्ञानुसार कार्य करने का आश्वासन दिया। गुरुजी जी प्रसन्नता से भरकर साश्रु हो गये और उन्होंने अपने शिष्य को सफल मनोरथ होने का आशीर्वाद दिया। यही स्वामी दयानन्द जी के वेद प्रचार, धर्म सुधार व प्रचार, समाज सुधार, देशोन्नति सहित असत्य व पाखण्ड के खण्डन तथा सत्य के मण्डन की भूमिका है।

स्वामीजी ने अपने गुरु से विदा ली और असत्य व पाखण्डों का खण्डन और वैदिक सत्य मान्यताओं का मण्डन आरम्भ कर दिया। देश की सर्वाधिक हानि अवतारवाद की कल्पना व विश्वास, मूर्तिपूजा, फलित ज्योतिष, यज्ञ व अग्निहोत्र में अनेक प्रकार के विकार, ईश्वरोपासना का सत्यस्वरुप भूलने, सामाजिक असमानता व विषमता सहित स्त्रियों व शूद्रों के वेदाधिकार छीन लेने से हुई थी। कार्यक्षेत्र में उतर कर उन्होंने इन प्रचलित सभी मान्यताओं को धर्म के आदि स्रोत व परम प्रमाण ग्रन्थों वेद के विरुद्ध घोषित किया और विरोधियों को वेदों से सिद्ध करने की चुनौती दी। उन्होंने इन सभी विषयों के ज्ञान-विज्ञान युक्त वैदिक समाधान भी प्रस्तुत किये। काशी में 16 नवम्बर सन् 1869 को मूर्तिपूजा पर काशी व देश के शीर्ष 30 पण्डितों के साथ काशी नरेश की मध्यस्था में उन्होंने शास्त्रार्थ किया और विजयी हुए। अनेक पौराणिक विषयों व मिथ्या विश्वासों पर देश के अनेक स्थानों पर आपने शास्त्रार्थ कर वैदिक मत व मान्यताओं को सत्य व प्रमाणित सिद्ध किया। ईसाई मत व इस्लाम के विद्वानों से भी आपके शास्त्रार्थ व चर्चायें हुईं जिसमें आपने वैदिक मत को युक्ति व तर्क के आधार पर सत्य सिद्ध किया। सभी मतों के विद्वानों ने आपकी विद्वता का लोहा माना परन्तु अपने अज्ञान व स्वार्थों के कारण वह वैदिक मत को स्वीकार नहीं कर सके जिसके प्रमुख कारणों में से एक उनकी आजीविका थी। आज भी न्यूनाधिक यही स्थिति है।

वेद सभी सत्य विद्याओं से युक्त धार्मिक ग्रन्थ हंै जो धर्म की दृष्टि से परम प्रमाण है। आज भी वेद पूरी तरह से प्रासंगिक एवं मनुष्य जाति के सभी प्रकार के भेदभाव मिटाकर उन्हें संगठित कर सबकी समान उन्नति करने में सक्षम व समर्थ हैं। वेदों की इसी विशेषता के कारण महर्षि दयानन्द ने वेदों को अपनाया था और मानवमात्र के हित व कल्याण की दृष्टि से उनका प्रचार किया और वैदिक मान्यताओं के विपरीत मत-मतान्तरों की अज्ञान व पाखण्ड मूलक बातों का खण्डन किया। खण्डन का कार्य कुछ ऐसा था जैसा कि दूषित स्थान पर झाडूं लगाकर उसे स्वच्छ बनाना अथवा किसी शल्य चिकित्सक द्वारा किसी रोगी के किसी वृहत शारीरिक विकार की शल्य क्रिया कर उसे स्वस्थ करना होता है। इस कार्य में स्वामी जी का न तो अपना कोई निजी प्रयोजन व स्वार्थ था और न वेदों की भारतीय विचारधारा के प्रति पक्षपात। उन्होंने भारत में विद्यमान सभी मतों के ग्रन्थों व उनकी मान्यताओं को अपनी ज्ञान की तराजू पर तोल कर सत्य सिद्ध होने पर ही अपनाया था। सत्य व असत्य के मन्थन से उन्हें जो अमृत प्राप्त हुआ था, उसे उन्होंने स्वयं प्रयोग में न लेकर समस्त विश्व को उसका सहभागी बनाया था। अज्ञान व स्वार्थों में फंसा विश्व उनकी मानवहितकारी भावनाओं को समझ नहीं सका और उन्हें अनेकानेक प्रकार से पीड़ित करता रहा जिसकी अन्तिम परिणति उन्हें विष देकर उनके प्राणहरण करके की गई। महर्षि दयानन्द ने जो कार्य किया उससे सारा संसार लाभान्वित हुआ है। बहुत से लोग जान कर भी उससे लाभ नहीं उठाना चाहते और अपने स्वार्थों में लगे हुए हैं।

वर्तमान समय में यह भी देखा जाता है कि लोग धर्म विषयक सत्य व असत्य स्वरूप को जानना ही नहीं चाहते। इसका एक कारण विज्ञान द्वारा सुख सुविधाओं में वृद्धि की चकाचैंध है जिससे आकृष्ट व विमोहित होकर सब उसमें फंस गये हैं। देश में विद्यमान मतों के जो मताचार्य हैं वह भी सत्य का अनुसंधान व प्रचार नहीं करते। इन कार्यों ने विद्या व मनुष्य का विवेक नष्ट कर दिया है। किसी को इस बात को जानने की चिन्ता ही नहीं है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य व लक्ष्य क्या है? इन प्रश्नों का युक्ति व तर्क प्रमाण सहित उत्तर वेदों व वैदिक साहित्य में ही मिलता है। महर्षि दयानन्द का यह संसार के लोगों के लिए अनुपम उपहार है। जिन मनुष्यों को अपना जीवन व भविष्य सुधारना व संवारना हो, वह वैदिक धर्म के सुख व शान्ति प्रदान करने वाले वटवृक्ष की शीतल छांव में आ सकते हंै। निष्पक्ष दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि महर्षि दयानन्द ने वेद प्रचार, पाखण्ड खण्डन व सत्य के मण्डन का जो कार्य किया है वह मानव जाति के कल्याण की दृष्टि से अपूर्व था। इसके लिए वह इतिहास में चिरकाल तक अमर रहेंगे। असत्य का खण्डन व सत्य का मण्डन मानव जाति की उन्नति के लिए अनिवार्य होने के कारण मानव धर्म है। महर्षि दयानन्द ने इस कर्तव्य को ही अपने जीवन का उद्देश्य बनाया और संसार का अपूर्व उपकार किया। उन्होंने सत्य मानयताओं का प्रचार व प्रसार किया तथा असत्य मान्यताओं व अन्धविश्वासों को बढ़ने से रोका। महर्षि दयानन्द को उनके कल्याणकारी कार्यों के लिए हमारा सादर नमन।

-मनमोहन कुमार आर्य

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