शिवाजी महाराज का जय सिंह को पत्र, भाग – 2
ऐ सरदारों के सरदार,राजाओ के राजा तथा भारत रूप उद्यान की क्यारियों के व्यवस्थापक! ऐ रामचन्द्र के चैतन्य हृदयांश,तुझसे राजपूतों की ग्रीवा उन्नत है।
लेकिन बाबर के वंशजों की राज्यलक्ष्मी अधिक प्रबल हो रही है,तथा उसे तुझसे सहायता मिलती है। हे प्रबलभाग्य तथा वृद्ध बुधि वाले जयशाह!शिव का प्रणाम और आशीष स्वीकार कर। जगत का जनक तेरा रक्षक हो,तथा तुझको धर्म एवं न्याय का मार्ग दिखावे।
मैंने सुना है कि तू मुझ पर आक्रमण करने एवम दक्षिण प्रान्त विजय करने आया है। हिन्दुओं के हृदय और आँखों के रक्त से तू संसार में लाल मुंह वाला(यशस्वी)होना चाहता है। पर तू यह नहीं जानता कि इससे तेरे मुँह पर कालिख लग रही है,क्यों कि इससे देश तथा हमारे ही धर्म की हानी हो रही है।
यदि तू तनिक विचार करे तो जान पायेगा कि यह लाल रंग किसके लहू का है,साथ ही तुझे समझ आयेगा कि यह रंग लाल नहीं अपितु काला है।
यदि तू अपनी तरफ से दक्षिण विजय करने आता तो मेरे सिर और आंख तेरे रास्ते के बिछोने बन जाते।मै स्वयं तेरे साथ अपनी सेना मिला देता और जीती हुई सारी भूमि तुझे सौंप देता। पर तू तो उस ओरंग जेब की तरफ से आया है जो कि भद्रजनों को धोखा देने वाला है,
अब मै यह नहीं समझ पा रहा हूँ कि तेरे साथ कौनसा खेल खेलूँ?
यदि मैं तुझ से मिल जावूँ तो अब यह पुरुषत्व नहीं। क्यों कि पुरुष लोग समय की सेवा नहीं करते,सिंह कभी लोमड़ी पना नहीं करते। और यदि मै तलवार से काम लेता हूँ तो दोनों और से हिन्दुओं की बड़ी हानि होती है।
बड़ा दुःख होगा जब मेरी तलवार केवल मुसलमानों का खून पीने के अतिरिक्त किसी अन्य कार्य से म्यान से निकालनी पड़े। यदि इस समय तुम्हारी जगह तुर्क आये होते तो मेरे लिए ये शेर के घर में आये शिकार की तरह सुनहरा मौका होता!!
पर ये औरंग़ज़ेब तो मानव देह में राक्षस है तथा धर्म से वंचित पापी है,उसने शाईस्ता खान और अफजल खान जैसे अयोग्यो को यहाँ भेज मुंह की खायी। जब कोई मुसलमान मुझसे लड़ने लायक न बचा तो तुझे भेजा है। इससे हिन्दुओं में कोई बलशाली जीवित नहीं रहे ये उसकी योजना है।
वह चाहता है कि सिंह आपस में लड़कर श्रांत हो जाएँ ताकि भेड़िये(गीदड़)जंगल के सिंह बन जाएँ। यह गुप्त भेद तेरे सिर में क्यों नहीं बैठता?
हे जयसिंह!!
मुझे लगता है कि उस पापी औरंगजेब का मिथ्या जादू तुझे बहकाए हुए है। अन्यथा तूने संसार में बहुत भला बुरा देखा है। उद्यान से फूल और काँटे दोनों ही चुने हैं। ऐसी मुर्खता मत कर कि हम लोगों से युद्ध कर हिन्दुओं के मस्तक ही धुल में मिलाने पड़ें। तेरे परिपक्व चिन्तन व क्षत्रियोचित जवानी के अनुकूल ये कभी नहीं। प्रत्युत तू सादी के इस कथन को स्मरण कर-“सब स्थानों पर घोडा दौड़ाया नहीं जाता। कहीं तो ढाल भी फेंककर भागना उचित है!”
व्याघ्र, मृग आदि पर वार करते हैं,सिंहों के साथ गृहयुद्ध में प्रवृत नहीं होते।
यदि तेरी तलवार में पानी और घोड़े में दम है,तो तुझको चाहिए कि धर्म के शत्रु(औरंग़ज़ेब)पर आक्रमण कर। यदि तू असली क्षत्रिय है तो इस्लाम को जड़ मूल से खोद के फेंक डाल।
तू जिसकी सेवा कर रहा है उसने दाराशिकोह जैसे सहिष्णु को मार डाला। जसवन्तसिंह को धोखा दिया। लोमड़ी वाले खेल से वो अभी तक अघाया नहीं,और अब हम सिहों की लड़ाई चाहता है। जरा सोच!!तुझको इस दौड़ धुप से क्या मिलता है?
तू उस तुच्छ व्यक्ति के सदृश है जो बहुत श्रम कर किसी सुन्दरी को ब्याह कर लाता है,पर उसकी सौन्दर्य वाटिका का फल स्वयं नहीं खाता,प्रत्युत उसको प्रतिद्वंद्वियों के हाथों सौंप देता है।
तू उस नीच की कृपा पर क्या अभिमान करता है?तू जिस राजभक्ति की दुहाई दे रहा है,उसने(औरंगज़ेब ने) तो अपनेइष्ट के साधन अर्थात इस्लाम के प्रसार में अपने बाप और भाइयों का रक्त बहाने में भी संकोच नहीं किया।तू जुझारसिंह के कार्य का परिणाम जानता है। तू जानता है कि कुमार छत्रसाल पर वह किस प्रकार आपत्ति पहुंचना चाहता है?तू जानता है कि समग्र हिन्दू जाति पर उसने क्या क्या जुल्म ढाए?
मै मानता हूँ कि तूने उससे कुछ सम्बन्ध जोड़ा है,और कुल की मर्यादा से बंधा है,परइस राक्षस के लिए सारे कुल बंधन तोड़ डाल। यदि विधाता ने तुझे बुद्धि दी है,और तू अपने को पुरुष सिंह मानने का गर्व करता है तो अपनी प्यारी जन्म भूमि को उसके अत्याचारों के संताप से मुक्त कर।
यह अवसर हम हिन्दुओं के लड़ने का नहीं है। हम पर भारी संकट आन पड़ा है। हमारे लड़के,बाल,देश,धन,देवालय,देव तथा पवित्र देवपूजक सब पर भयंकर आपत्ति है। यदि कुछ दिन ऐसा ही चलता रहा तो हम हिदुओं का पूरी पृथ्वी पर कोई चिन्ह नहीं बचेगा।
हे जयसिंह!!
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि मुट्ठी भर मुसलमान हमारे इतने बड़े देश पर प्रभुता जमावें!!
पर यह उनकी प्रबलता कोई पुरुषार्थ के कारण नहीं है। यदि तुझको समझ की आंख है तो देख कि वह हमारे साथ कैसी धोखे की चालें चलता है?और अपने मुँह को किस किस रंग से रंगता है?(औरंगजेब)हमारे पांवों को हमारी ही सांकल से जकड़ता है,हमारे सिरों को हमारी ही तलवारों से काटता है।
हम लोगों को इस समय हिन्दू हिन्दुस्थान और हिन्दू धर्म की रक्षा के निमित्त अत्यधिक प्रयत्न करना चाहिए। हमको चाहिए कि हम मिल कर कोई राय बनावें,स्थिर करें। अपने देश के लिए खूब हाथ पैर मारें। तलवार और तकदीर चमकावें। और तुर्कों को तुर्की में(जैसे को तैसा)जवाब दें।
यदि तू(जयसिंह)यशवंतसिंह(जोधपुर)से मिल जाये। राणा(उदयपुर)से भी एकता कर ले। उस कपटी कलेवर के पैरों(दिखावटी)पड़ कर बाद में युद्ध कर सांप के सिर को पत्थर के नीचे दबा दो(कुचल डालो)।ऐसा करने पर कुछ दिन वह अपने ही परिणाम की सोच में पड़ा रहे गा। फिर दक्षिण की तरफ अपना जाल न फेलावे। इस बीच मै मेरे भाला चलाने वाले वीरों के साथ इन दोनों (दक्षिण भारत के दो मुस्लिम शासकों)बादशाहों का भेजा निकाल डालूँ।
मेघों की भांति गरजने वाली सेना से मुसलमानों पर तलवार का पानी बरसाऊँ। दक्षिण दिशा के पटल पर एक सिरे से दुसरे सिरे तक इस्लाम का नाम तथा चिह्न तक धो डालूँ।
फिर दक्षिण की यह मेरी विजयी सेना शीघ्र उत्तर के मैदानों में आकर तुमसे मिलेगी।हम चारों (शिवाजी,जयसिंह,जसवन्तसिंह,राजसिंह राणा) की सेनाओ की तरंग से जर्जर दिल्ली में उसे अपने घर पहुंचा दें। जिससे न अवरंग(राज सिंहासन)रहेगा ओर न ज़ेब(शोभा)।न उसका अत्याचारी खड्ग रहेगा न ही कपट जाल।
हम लोग इन मुगलों के रक्त की एक नदी बहा दें और उसमें अपने पितरों का तर्पण करें। यह काम कोई कठिन नहीं। यदि दो हृदय(मै तुम)मिल जाएँ तो पहाड़ को भी तोड़ सकते हैं