राष्ट्रीय एकता का सुदृढ़ आधार : शुद्धि और संगठन

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– डॉ. भवानीलाल भारतीय

आर्यसमाज का सुदृढ़ विश्वास है कि राष्ट्रीय एकता की सिद्धि और प्राप्ति तब तक सम्भव नहीं है जब तक भारत की आर्य-धर्मावलम्बिनी प्रजा अपने-आपको सबल और सप्राण बनाकर अपने सभी घटकों को एकता के सूत्र में न पिरो ले। इस महद् उद्देश्य की सिद्धि के लिए आर्यसमाज ने शुद्धि और संगठन का कार्यक्रम प्रस्तुत किया। इससे पूर्व कि शुद्धि के संबंध में आर्यसमाज की मान्यताओं की आलोचना करें, यह आवश्यक है कि इस विषय की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की जानकारी प्रस्तुत की जाय। लगभग एक सहस्र वर्ष पूर्व से ही भारत पर तातार, तुर्क, मंगोल, अफगान और अरब जाति के मुसलमानों के आक्रमण आरम्भ हुए। यद्यपि आक्रमणकारी मुसलमान एक सीमित संख्या में ही भारत आए थे, परन्तु थोड़े समय पश्चात् जब मुसलमानी शासकों ने अपनी रीति-नीति के अनुसार हिन्दू धर्म पर सांस्कृतिक आक्रमण करने की योजना को क्रियान्वित करना आरम्भ किया, यथा – भारत के बहुमत समाज की धार्मिक आस्थाओं पर आघात करना, उनके पूजा-स्थानों को विनष्ट करना, अन्य मतावलम्बियों पर जजिया कर लगाना तथा बलात् उन्हें अपने मत में दीक्षित करना आदि, तो सन्तुलन बिगड़ने लगा। अपने मध्यकालीन जर्जर सामाजिक ढाँचे तथा अन्य आचारगत विसंगतियों के कारण इस आक्रमण का प्रतिरोध करना जब हिन्दुओं के लिए संभव नहीं रहा तो उनमें से दुर्बल संकल्प वाले व्यक्तियों ने इस्लाम को स्वीकार कर लेना ही श्रेयस्कर समझा। इस्लाम के दायरे में प्रवेश करनेवाले वे लोग भी थे जिनकी स्थिति हिन्दू समाज में सम्मानास्पद नहीं थी, जो अत्याचारों से त्रस्त, लांछित, प्रताड़ित तथा सर्वतोभावेन शोषित थे। इस प्रकार जब मुसलमानों का संख्या-बल इस देश में बढ़ता गया और लगभग सात सौ वर्षों तक उन्होंने क्रूर दमन और अनेकविध अत्याचारों के साथ देश का शासन किया तो हिन्दू समाज का मनोबल दिन-प्रतिदिन गिरने लगा। वे अपने-आपको सर्वथा दीन, हीन और पराधीन समझने लगे।

अंग्रेजी शासन ने भी हिन्दू समाज की स्थिति में कोई विशिष्ट परिवर्तन नहीं किया। अंग्रेज-कूटनीति हिन्दू मुसलमानों में परस्पर विरोध उत्पन्न कर अपने शासन को स्थायी बनाने की रही। फलस्वरूप हिन्दू समाज एक अस्त व्यस्त, जीर्ण एवं मुमूर्षु अवस्था को प्राप्त जनसमूह-मात्र रह गया। जब कांग्रेस के काकीनाडा-अधिवेशन की अध्यक्षता करते हुए मौलाना मुहम्मद अली ने सात करोड़ अछूतों का विभाजन कर उन्हें हिन्दू और मुसलमानों के बीच बाँट लेने की बात कही तो अन्य किसी राष्ट्रीय नेता के कान पर जूँ रेंगी या नहीं, किन्तु स्वामी श्रद्धानन्द जैसे मनस्वी पुरुष ने मौलाना के इस प्रस्ताव का खुलकर विरोध किया। उसी दिन से स्वामी श्रद्धानन्द ने शुद्धि और संगठन का शंख फूंककर हिन्दू समाज को बलवान् बनाने की घोषणा की। आर्यसमाज ने शुद्धि के कार्यक्रम को सैद्धान्तिक आधार प्रदान किया। उसकी यह धारणा रही है कि पुराकाल में जो जातियाँ संस्कार-भ्रष्ट होकर अनार्य हो गई थीं, उन्हें पुनः शुद्ध कर बृहत् आर्यसमाज में सम्मिलित किया जाता था। मनुस्मृति में यह उल्लेख मिलता है कि ब्राह्मणों के अदर्शन से क्षत्रिय जातियाँ द्विजोचित संस्कारों से च्युत होकर वृषलत्व को प्राप्त हो गई। पौण्ड्रक, ओड्र, द्रविड़, किरात, कम्बोज, यवन, शक, पारद, पल्हव, चीन, दरद और खश आदि नाम इन्हीं क्रियालुप्त अनार्य जातियों के हैं; परन्तु इन्हें पुनः आर्योचित गुण-कर्मों से दीक्षित कर अपने भीतर समाविष्ट करने की शक्ति प्राचीन आर्यसमाज में थी।

धीरे-धीरे प्राणवान् आर्य जाति विभिन्न प्रकार के अनार्य संस्कारों को ग्रहण कर अपने-आपको संकीर्ण एवं संकुचित कारा में आबद्ध करती चली गई। परिणाम यह हुआ कि अन्य मतावलम्बियों को अपने भीतर समाविष्ट करना तो दूर, उसमें स्वधर्मियों की रक्षा की क्षमता भी नष्ट हो गई। ऐसी परिस्थिति में आर्यसमाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द ने स्वयं अपने जीवनकाल में देहरादून के मुहम्मद उमर नामक एक मुसलमान को वैदिक धर्म की दीक्षा देकर ‘अलखधारी’ नाम प्रदान किया। भारत के राजनैतिक क्षितिज पर उदित मुस्लिम साम्प्रदायिकता के धूमकेतु को विनष्ट करने के लिए शुद्धि और संगठन ही अमोघ उपाय सिद्ध हुआ।

स्वामी श्रद्धानन्द के नेतृत्व में जो शुद्धि-चक्र का प्रवर्तन हुआ, उसने हिन्दू समाज को सुदृढ़ और प्राणवान् बनाया, यद्यपि इस कार्यक्रम के संबंध में स्वकीयों और परकीयों ने नाना प्रकार की शंकाएँ और संदेह व्यक्त किये। लोगों की यह धारणा थी कि परमतावलम्बियों को आर्य धर्म में दीक्षित करना हिन्दू धर्म की धारणाओं के विपरीत है। राजनैतिक अभिनिवेश और पूर्वाग्रह से ग्रस्त व्यक्तियों ने यह भी आशंका व्यक्त की कि यदि शुद्धि को बल मिला तो इससे मुसलमानों का भारत की राजनैतिक धारा से संबंध विच्छेद हो जाएगा और साम्प्रदायिक विरोध का भाव प्रबल होगा, परन्तु आर्यसमाज ने इस प्रकार की सभी आपत्तियों का निराकरण करते हुए यह सिद्ध कर दिया कि स्वाधीनता के आन्दोलन में किसी प्रकार का व्याघात न हो, इसलिए साम्प्रदायिक सौहार्द्र भी वांछनीय वस्तु है; किन्तु हिन्दुओं को शुद्धि के मौलिक अधिकार से वंचित करना उचित नहीं है। स्वामी श्रद्धानन्द तथा महात्मा हंसराज के नेतृत्व में मलकानों की शुद्धि की गई जो नव-मुस्लिम थे तथा आचार विचार की दृष्टि से राजपूतों से अधिक भिन्न नहीं थे।

निश्चय ही आर्यसमाज का शुद्धि-आन्दोलन राष्ट्रीय और सांस्कृतिक एकता का सुदृढ़ आधार प्रस्तुत करता है।

यहाँ हमने राष्ट्रीय एकता के कुछ ऐसे तात्त्विक सूत्रों का उल्लेख किया है जिनके आधार पर इस देश की सर्वांगीण एकता को सुदृढ़ और स्थायी बनाया जा सकता है। आज भारत के राजनैतिक वातावरण में पुनः राष्ट्रीय एकता की महत्ता और आवश्यकता की चर्चा पर बल दिया जाने लगा है, परन्तु इसे प्राप्त करने के व्यावहारिक उपायों की ओर किसी का ध्यान नहीं है। साम्प्रदायिक तुष्टिकरण, क्षेत्रीयता के आधार पर देश की विभिन्न सांस्कृतिक इकाइयों को प्रोत्साहन, प्रान्तवाद, भाषावाद और जातिवाद के कीटाणुओं को फैलाने की नियोजित चेष्टाओं के रहते राष्ट्रीय एकता एक ऐसा स्वप्न बना रहेगा जिसे साकार करना असम्भव है। आर्यसमाज ने राष्ट्रीय एकता की सिद्धि के लिए कुछ ऐसे स्वर्णिम सूत्र उपस्थित किये हैं जिन्हें क्रियान्वित करना आवश्यक है।

[स्रोत: समग्र क्रांति का सूत्रधार आर्य समाज, पृ. 156-159, प्रस्तुतकर्ता: भावेश मेरजा]

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