आर्य समाज विश्वकल्याण सहित संसार से अविद्या दूर करने का आंदोलन है
ओ३म्
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आर्यसमाज एक सार्वभौमिक संगठन है जो संसार से धर्म व मनुष्य जीवन के क्षेत्र में सभी प्रकार की अविद्या को दूर करने के प्रयत्न करता है। आर्यसमाज की मुख्य विशेषता इसका ईश्वरीय ज्ञान वेदों पर आधारित होना है। आर्यसमाज के पास वेदों के सत्य अर्थों से युक्त ज्ञान प्राप्त है। आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द थे जो एक सिद्ध योगी होने सहित वेदों के मर्मज्ञ विद्वान थे। ऋषि दयानन्द ने वेदों के परम्परागत अर्थों को स्वीकार नहीं किया था अपितु अनेक प्रयास व पुरुषार्थ कर योग्य वेदगुरु प्रज्ञाचक्षु स्वामी विरजानन्द सरस्वती को प्राप्त होकर उनसे वेदांगों का अध्ययन किया था। उन्होंने अपने गुरु से वेदों के सत्य अर्थों पर विचार करने सहित मार्गदर्शन प्राप्त किया था। वह वेद के उसी अर्थ को स्वीकार करते थे जो व्याकरण शास्त्रानुसार पुष्ट होने के साथ सृष्टि कर्म के अनुकूल होने सहित ज्ञान व विज्ञान के सर्वथा अनुकूल तथा मनुष्य जीवन व समाज के लिये उपयोगी व लाभप्रद हो। ऋषि दयानन्द अज्ञान व अन्धविश्वासों सहित सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध थे जिससे मनुष्य मनुष्य में भेद किया जाता था और जिसमें किसी एक वर्ग को बिना विद्या प्राप्त किये ही विशेष अधिकार दिये जाते थे। ऋषि दयानन्द के समय में सभी अन्धश्विासों और सामाजिक कुरीतियों वा परम्पराओं को वेदों पर आधारित माना जाता था इसलिये ऋषि दयानन्द ने वेदों के सभी अर्थों पर विचारकर मिथ्याज्ञान व विश्वासों का खण्डन करने के साथ वेद के मन्त्रों का प्राचीन ऋषि व निरुक्त परम्परा के अनुसार सत्य अर्थों का अनुसंधान कर उनको प्रस्तुत किया। वेदों के सत्य अर्थ का प्रकाश होने से सभी अविद्यायुक्त मत-मतान्तरों में विद्यमान अन्धविश्वासों व मिथ्या परम्पराओं की पोल खुल गई और मानव जाति के व्यापक हित में व्यापक सुधारों की आवश्यकता अनुभव की गई।
देश व समाज से अज्ञान, अविद्या, अन्धविश्वास तथा सामाजिक कुरीतियों को दूर कर सत्य ज्ञान पर आधारित वेद प्रचार का कार्य करने के लिये ऋषि दयानन्द ने अपने कुछ प्रबुद्ध अनुयायियों के अनुरोध व प्रेरणा करने पर मुम्बई में चैत्र शुक्ल पंचमी 1931 विक्रमी तदनुसार दिनांक 10 अप्रैल, 1875 को ‘आर्यसमाज’ नामी संगठन की स्थापना की थी। आर्यसमाज का उद्देश्य व कार्य मुख्यतः सभी प्रकार की अविद्या को दूर कर उसके स्थान पर विद्या वा ज्ञान-विज्ञान पर आधारित सत्य सिद्धान्तों व मान्यताओं का प्रचार कर मत-पंथ व सम्प्रदायों का संशोधन करना कराना था। जिस प्रकार विज्ञान में सृष्टि विषयक उन्हीं मान्यताओं व सिद्धान्तों को स्वीकार किया जाता है जो पूर्णतः निर्भ्रांत रूप से सत्य, तर्क व युक्तियों पर आधारित होते हैं, उसी प्रकार से आर्यसमाज ने भी वेदों के सत्य सिद्धान्तों के आधार पर प्राचीन व्याकरणानुसार वेदों के सत्य अर्थ प्रस्तुत किये और समाज में उनका प्रचार कर उसे अपनाने का महान प्रयास किया। आर्यसमाज संगठन के लोग वेद की मान्यताओं को ऋषि दयानन्द के अनुसार पूरी तरह से अपनाते व उसी के अनुसार अपना जीवन व्यतीत करते हैं। वह वेदों का स्वाध्याय करने के साथ सन्ध्या, देवयज्ञ अग्निहोत्र, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ तथा बलिवैश्वदेव-यज्ञ भी यथाशक्ति करते हैं तथा इन कर्तव्यों की युक्तियुक्तता पर प्रवचन, लेख व पुस्तकों द्वारा प्रचार भी करते हैं। यह भी कह सकते हैं वेदों की आज्ञा व सार मनुष्य जीवन में वेदों का स्वाध्याय करते हुए पंचमहायज्ञों को करना व अपने अन्य सभी कर्तव्यों को भी वेदों में निहित आज्ञाओं व मान्यताओं के अनुसार पालन करना है।
हम जानते हैं कि विद्या को प्राप्त कर उसके अनुसार जीवन बनाने व व्यवहार करने से ही मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति हो सकती है। इसके विपरीत अविद्या का अनुसरण करने पर मनुष्य का सार्वत्रिक पतन होता है। यही कारण था कि महाभारत के बाद आलस्य प्रमाद के कारण वेदों से दूर होने के कारण आर्यजाति का पतन हुआ। इसमें नाना प्रकार के अन्धविश्वास व कुरीतियां प्रचलित हो गईं थी। पतन की यह स्थिति थी कि आधी मनुष्य जाति मातृशक्ति व स्त्री जाति को वेदों के अध्ययन से वंचित कर दिया गया। यही नहीं हमारे सेवक श्रमिक व शूद्र बन्धुओं को भी वेदाध्ययन से वंचित कर दिया गया था। समाज के अधिकार सम्पन्न अन्य लोग भी वेदों के अध्ययन व उसके सत्य अर्थों का चिन्तन मनन नहीं करते थे। इसी कारण से समाज अत्यधिक पतन को प्राप्त होकर दुःख, पराभव तथा दासत्व को प्राप्त हुआ। इस पराभव व दासत्व की स्थिति से मुक्त होने का एक ही साधन था कि मनुष्य अपनी अविद्या को दूर करने के लिये वेद ज्ञान का आश्रय लें और संगठित होकर अपने सभी काम एक दूसरे के हित व लाभ के लिये करें। पंच महायज्ञ सहित वेदाज्ञाओं का पालन करने से मनुष्य समाज श्रेष्ठ मानव समाज बनता है। अतः ऋषि दयानन्द ने अज्ञान, अन्धविश्वास, अविद्या, पाखण्ड, मिथ्या मान्यताओं व परम्पराओं का खण्डन तथा सत्य ज्ञान युक्त वैदिक मान्यताओं का प्रचार व मण्डन किया। यही मनुष्य जाति के उत्थान व उत्कर्ष का मन्त्र है। ऋषि दयानन्द समाज सुधार के लिये वेदों की मान्यताओं पर मौखिक व्याख्यान दिया करते थे। इस कार्य के लिये वह देश के ऐसे स्थानों पर जाते थे जहां अविद्या, अन्धश्विास, पाखण्ड तथा मिथ्या परम्परायें आदि विद्यमान थे। इस कार्य को करते हुए उन्होंने देश भर में सत्यधर्म, नैतिकता, समाजोन्नति तथा वेदाज्ञाओं के प्रचार के लिये सत्य वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों का प्रचार किया। लोग उनके विचारों को सुनकर सहमति व्यक्त करते थे और निःस्वार्थ भाव वाले निष्पक्ष व्यक्ति उनके अनुयायी बन जाते थे।
वेद व वैदिक मान्यताओं का प्रचार करते हुए ऋषि दयानन्द ने अनुभव किया कि वेदों के व्यापक प्रचार के लिये एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता है जिसमें वेदों की सभी मुख्य मुख्य मान्यताओं को युक्ति व तर्क सहित प्रस्तुत किया जाये। लोगों के सभी भ्रमों सहित उनकी शंकाओं को भी उसमें सम्मिलित किया जाये और उनके ज्ञान व वेदों के अनुसार सत्य समाधान किये जायें। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिये उन्होंने एक अभूतपूर्व ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ का प्रणयन किया। यह ग्रन्थ ऋषि दयानन्द ने मात्र साढ़े तीन महीनों में पूरा कर दिया था। सन् 1875 में इसका प्रथम प्रकाशन हुआ था। इस ग्रन्थ के प्रकाशन व प्रचार से समाज में एक हलचल वा क्रान्ति उत्पन्न हुई थी। इसमें प्रथम दस समुल्लासों में सभी वैदिक मान्यताओं का प्रमाण पुरस्सर समर्थन व मण्डन किया गया था। इसके अतिरिक्त ग्यारहवें व बारहवें समुल्लासों में आर्यावर्तीय मत-मतान्तरों की अविद्या व मिथ्या मान्यताओं का खण्डन किया गया था। ग्रन्थ के प्रकाशक राजा जयकृष्ण दास, मुरादाबाद ने सत्यार्थप्रकाश के तेरहवें व चौदहवें समुल्लास का प्रकाशन नहीं किया था। कुछ समय बाद ऋषि दयानन्द ने इस संस्करण का संशोधित संस्करण तैयार किया और इसे चौदह समुल्लासों सहित प्रकाशित कराया। यह दूसरा व संशोधित संस्करण सन् 1884 में प्रकाशित हुआ था। आज यही संस्करण आर्यसमाज द्वारा देश देशान्तर में प्रकाशित किया जाता है। इस ग्रन्थ के देशी व विश्व की अनेक भाषाओं में अनुवाद भी हुए हैं। इससे इस ग्रन्थ की महत्ता व उपयोगिता का ज्ञान होता है। सत्यार्थप्रकाश को पढ़ने व समझने से मनुष्य अपनी अविद्या को दूर कर सकते हैं और सत्य ज्ञान सहित ईश्वर व अपनी आत्मा को प्राप्त हो सकते हैं। यही इस ग्रन्थ की सबसे बड़ी विशेषता है।
अपनी स्थापना से अद्यावधि आर्यसमाज ने वेद प्रचार सहित समाज सुधार का महनीय व प्रशंसनीय कार्य किया है। आर्यसमाज किसी भी प्रकार की मूर्तिपूजा को वेद विरुद्ध मानता है। यह अवतारवाद को काल्पनिक मानने सहित मृतक श्राद्ध को भी वैदिक सिद्धान्तों के विरुद्ध व अकरणीय मानता है। सभी जीवात्मायें परमात्मा की सन्तानें हैं। सभी को इस भाव को हृदय में रखकर तथा वेदाज्ञा के अनुसार परस्पर व्यवहार करने की शिक्षा आर्यसमाज देता है। आर्यसमाज मांसाहार आदि अभक्ष्य पदार्थों के सेवन का भी खण्डन व विरोध करता है। इससे अन्य प्राणियों को क्लेश होता है। आर्यसमाज की मान्यता है कि मांसाहार में सम्मिलित सभी व्यक्तियों को उनके इस वेदविरुद्ध कर्म का फल जन्म जन्मान्तर में परमात्मा से मिलता है। आर्यसमाज बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि का विरोधी तथा पूर्ण युवावस्था में गुण, कर्म व स्वभाव के अनुसार वर व वधू की परस्पर सहमति से विवाह का करना उचित मानता है। आर्यसमाज प्रत्येक मनुष्य को वेदाध्ययन करने का अधिकार देता है और अपने गुरुकुल आदि शिक्षण संस्थाओं में इसे क्रियात्मक रूप देकर समाज के सभी वर्गों व वर्णों के बन्धुओं को वेदों का विद्वान व विदुषी बनाता है। देश से अज्ञान दूर करने के लिये ही ऋषि दयानन्द के अनुयायियों ने शिक्षा आन्दोलन के अन्तर्गत डीएवी स्कूल व कालोजों की देश भर में स्थापना कर अज्ञान को दूर किया था जिससे देश को अनेक लाभ हुए।
कम आयु की विधवाओं के पुनर्विवाह का भी आर्यसमाज विरोध नहीं करता। सभी मनुष्यों को व्यभिचार आदि कार्यों से दूर रह कर ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए शिक्षा ग्रहण कर देश व समाज की उन्नति करने का कर्तव्य व अधिकार है। आर्यसमाज किसी भी मनुष्य व समुदाय की किसी भी प्रकार की उपेक्षा, अन्याय, शोषण व पक्षपात का विरोध करता है। वह जन्मना जाति को भी वेद विरुद्ध, मनुष्यों द्वारा अज्ञान से प्रचलित व कृत्रिम मानता है। सभी मनुष्य व प्राणी ईश्वर की सन्तानें हैं और परस्पर बन्धुत्व के भाव में आबद्ध हैं। कोई भी मनुष्य जन्म से महान न होकर अपने ज्ञान, कर्म, सेवाओं, त्याग व योग्यता से महान होता है। इतिहास में वही लोग महान होते हैं जिन्होंने श्रेष्ठत कर्म किये हों। देश की आजादी का मूल मन्त्र भी आर्यसमाज के संस्थापक ऋषि दयानन्द ने दिया था। सत्यार्थप्रकाश के आठवें समुल्लास में उन्होंने देश को स्वराज्य प्राप्ति व आजादी की प्रेरणा की है। उनके अन्य ग्रन्थों में स्वाधीनता के प्रेरक वचन मिलते हैं। ऋषि दयानन्द मनुष्य की बोलने व लिखने की आजादी के समर्थक थे परन्तु इस आजादी के दुरुपयोग का समर्थन कोई भी नहीं कर सकता। आज देश में इस आजादी का दुरुपयोग देखकर दुःख होता है।
आर्यसमाज ने देश व समाज में ईश्वर के सत्यस्वरूप को प्रस्तुत कर उसका प्रचार किया और इस क्षेत्र में विद्यमान अविद्या को दूर किया। आर्यसमाज ईश्वर के उपकारों के लिये मनुष्यों को उसके गुणों का ध्यान करने व उसका साक्षात्कार करने की प्रेरणा करता है। ईश्वर का साक्षात्कार करना ही मनुष्य का कर्तव्य है। वायु व जल की शुद्धि आदि करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है। इसके लिये सभी को देवयज्ञ अग्निहोत्र करना चाहिये जिसका प्रचार आर्यसमाज करता है। मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति केवल आर्यसमाज व वैदिक विचारों के सेवन व धारण से ही होती है। अतः आर्यसमाज विश्व का श्रेष्ठ मानव निर्माण व विश्व कल्याण करने वाला संगठन है। सभी मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश पढ़कर अपनी अविद्या दूर करनी चाहिये और आर्यसमाज से जुड़कर ईश्वर की सन्देश वेदों का प्रचार करने में सहयोगी होना चाहिये। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य