मजहब ही तो सिखाता है आपस में बैर रखना , अध्याय 3 (क)
सभ्यताओं को गटक जाता है मजहब
सारे संसार को इस्लाम अल्लाह की पार्टी और शैतान की पार्टी में बांट कर देखता है । इसी को दारुल- इस्लाम और दारुल हरब के नाम से भी जाना जाता है । जहाँ इस्लाम के व्याख्याकारों में एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो इस्लाम को भाईचारे और शान्ति का मजहब कहकर इस बात पर बल देता है कि इस्लाम के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करने में इस्लाम से द्वेष रखने वाले लोगों ने लापरवाही बरती है और दारुल- हरब व दारुल – इस्लाम जैसी कोई सोच इस्लाम की नहीं रही है, वहीं इस्लाम के भीतर ही जमात-ए-इस्लामी के संस्थापक मौलाना मौदूदी जैसे इस्लामिक विद्वान इस्लाम के दारुल- इस्लाम और दारुल -हरब के सिद्धांत की बड़ी मजबूती से पैरोकारी करते दिखाई देते हैं।
इन विद्वानों की दृष्टि से भी यदि देखा जाए तो जो लोग अल्लाह की पार्टी में नहीं हैं या जिन देशों का इस्लामीकरण किया जाना अभी शेष है, उनके प्रति इस्लाम और इस्लाम के विद्वानों का दृष्टिकोण या तो उपेक्षापूर्ण है या फिर शत्रुतापूर्ण है । उनका जिहाद संसार में तब तक चलता रहेगा जब तक कि सम्पूर्ण भूमण्डल इस्लाम के रंग में रंग नहीं जाता है। कहने का अभिप्राय है कि ये लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से संसार में उस समय तक नरसंहार और रक्तपात की वकालत करते दिखाई देते हैं जब तक कि सारा संसार इस्लाम को स्वीकार नहीं कर लेता है या सारा संसार अल्लाह की पार्टी में सम्मिलित नहीं हो जाता है।
कम्युनिस्ट और दूसरे ऐसे ही विचारक इस्लाम और ईसाइयत को प्रगतिशीलता का प्रतीक मानते हैं। जबकि इस्लाम अपनी विचारधारा से विपरीत विचारधारा रखने वाले व्यक्ति के विनाश में तब तक लगा रहेगा जब तक कि उस विपरीत व्यक्ति का सर्वनाश ना हो जाए और सारा संसार केवल एक विचारधारा के नीचे ना आ जाए। वास्तव में इस्लाम की यह प्रवृत्ति लोगों की भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन करती है। लोगों को अपने आत्मिक, मानसिक और शारीरिक विकास की छूट प्रदान नहीं करते अपितु उन्हें सीमाओं में जकड़कर किसी एक संकीर्ण विचारधारा के खूंटे से बांध देना चाहती है।
जब तक कि सारी दुनिया न इस्लाम में रंगेगी,
जब तक कि सारे जग में न कुरआन की चलेगी ।
कत्लोगारत का ये सिलसिला तब तक यूँ ही चलेगा, हैवानियत की आग में यह दुनिया यूँ ही जलेगी।।
उनके इस प्रकार के दृष्टिकोण और चिंतन से या तो संसार के अन्य सभी सम्प्रदायों को अपना स्वरूप समाप्त कर इस्लाम में दीक्षित हो जाना चाहिए या फिर मरने – कटने के लिए तैयार रहना चाहिए । कुल मिलाकर जिहाद, आतंकवाद और मजहब के आधार पर एक दूसरे से घृणा करने का यह क्रम अभी रुकने वाला नहीं है।
इस्लाम में फतवे जारी करने की परम्परा किसी भी देश की न्यायपालिका को अस्वीकार करने के लिए पर्याप्त है। किसी भी देश की न्यायव्यवस्था या राज्य व्यवस्था को मुसलमान तभी तक स्वीकार करते हैं जब तक कि उनकी संख्या वहाँ पर बहुत कम होती है । जब तक अति अल्प संख्या में मुसलमान होता है तब तक वह किसी भी देश की न्याय व्यवस्था राज्य व्यवस्था के प्रति पूर्णतया निष्ठावान रहने का प्रदर्शन करता है और यह दिखाता है कि जैसे उससे अच्छा मानव कोई नहीं है। जैसे-जैसे संख्या बढ़ती जाती है वैसे – वैसे ही उनकी अपनी मांगें बढ़ती चली जाती हैं । धीरे-धीरे एक समय आता है जब वह पर्याप्त संख्या में होने के पश्चात वहाँ के संविधान, वहाँ की न्याय व्यवस्था और राज्य व्यवस्था को चुनौती देने लगते हैं।
और कह देते हैं कि :-
कानून जो हमारा हमको है वो ही प्यारा।
उसके सिवा न हमको कुछ भी है गंवारा ।।
हम कुरआन को खुदाई इल्हाम मानते हैं ,
शरीयत को मानते हैं दुनिया में सबसे न्यारा।।
यही कारण है कि मुसलमान किसी भी देश में अपनी संख्या बहुसंख्यक होते ही उस देश के संविधान आदि को परिवर्तित कर उसका इस्लामीकरण कर डालते हैं । यदि संसार के उन देशों का इतिहास उठाकर देखा जाए जो देश आज अपने आपको :इस्लामिक स्टेट’ के रूप में घोषित किए हुए हैं तो यही प्रक्रिया उनके इस्लामीकरण करने के लिए अपनाई गई स्पष्ट हो जाएगी ।
यदि गांधीजी ने इस्लाम के इस स्वरूप को पढ़ा व समझा होता तो वह भारतवर्ष के सन्दर्भ में इस्लामिक दृष्टिकोण को समझने में सफल हो जाते । लगता है या तो गांधीजी ने इस्लाम के इस स्वरूप को समझा नहीं या फिर समझकर भी वह अनसमझ बने रहे और देश विभाजन के लिए वह स्वयं और उनके पश्चात उनकी कांग्रेस पार्टी हिन्दूवादी लोगों को उत्तरदायी मानने लगे।
‘मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’- इस पंक्ति को गा-गाकर भारत के साथ किए गए उन सभी अत्याचारों और पापाचरण पर पर्दा डालने का प्रयास किया गया, जिनके कारण भारत टूटते – टूटते वर्तमान स्वरूप में पहुँचा है।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक : उगता भारत