लेखनी को बेचने वालों ने बेच दिया देश का सम्मान
मौहम्मद गौरी के हाथों पृथ्वीराज चौहान की पराजय का उल्लेख करते हुए डा. शाहिद अहमद ने अपनी पुस्तक ‘भारत में तुर्क एवं गुलाम वंश का इतिहास’ नामक पुस्तक में कई इतिहास लेखकों के उद्घरण प्रस्तुत किये हैं। इन इतिहास लेखकों के उक्त उद्घरणों को हम यहां यथावत दे रहे हैं।जो ये सिद्घ करते हैं कि भारतीय इतिहास लेखकों ने किस प्रकार ‘लेखनी को दास’ बनाकर उसके साथ अन्याय किया है, और तथ्यों, कथ्यों एवं सत्यों की कितनी घोर अवहेलना की है।
डा. शाहिद अहमद की उक्त पुस्तक के अनुसार इस पराजय पर डा. स्मिथ का कहना है-”यह एक निर्णयात्मक युद्घ था, जिससे मुसल मानों की अंतिम सफलता निश्चित हो गयी। इसके उपरांत मुसलमानों को जो अनेक बार सफलता प्राप्त हुई, वह इसी के परिणामस्वरूप थी?”
डा. गांगुली कहते हैं-”तराइन के द्वितीय युद्घ में पृथ्वीराज चौहान की पराजय हुई, उससे न केवल चौहानों की राजनीतिक शक्ति का विनाश हो गया, वरन इससे संपूर्ण भारत का सर्वनाश हो गया। सत्ताधारी राजकुमारों तथा जनता का नैतिक बल पूर्ण रूप से ध्वस्त हो गया और संपूर्ण भारत में आतंक छा गया।” डा. हबीब उल्लाह ने कहा है-मुईजुद्दीन की तराइन के मैदान में जो विजय हुई, वह न केवल उसकी व्यक्तिगत विजय और आकस्मिक घटना मात्र थी, वरन यह एक सुनिश्चित योजना का सम्पादन था और इस योजना का संपादन संपूर्ण बारहवीं शती के अंत तक चलता रहा।”
प्रो. के.ए. निजामी लिखते हैं-”तराइन से राजपूतों की महती क्षति पहुंची। इससे राजपूतों की राजनीतिक प्रतिष्ठा और विशेषकर चौहानों की सत्ता को बहुत बड़ा धक्का लगा। संपूर्ण चौहान साम्राज्य अब आक्रमणकारियों के तलवों के नीचे था। चूंकि राजपूतों ने संगठित रूप से इसमें भाग लिया था, अत: इसका प्रभाव बहुत बड़े क्षेत्र पर पड़ा और उनके नैतिक पतन की परिधि भी अत्यंत व्यापक थी।”
डा. अवध बिहारी पाण्डेय ने तराइन के युद्घ के विषय में लिखा है-”इस युद्घ में शिहाबुद्दीन को जो सफलता मिली, उससे उसे ये विश्वास हो गया कि भारत में तुर्की साम्राज्य की स्थापना करने की उसकी महत्वाकांक्षा की पूर्ति अब हो सकती है। चौहानों की शक्ति के विच्छिन्न हो जाने के फलस्वरूप शिहाबुद्दीन की प्रभुता दो अब तथा पूर्वी राजपूताना में स्थापित हो गयी।”
डा. आशीर्वादीलाल ने इस युद्घ के विषय में लिखा है-”तराइन का द्वितीय युद्घ भारत के इतिहास में एक युगांतरकारी घटना है। यह एक निर्णयात्मक युद्घ सिद्घ हुआ, और इससे हिंदुस्तान के विरूद्घ मुहम्मद गौरी की सफलता सुनिश्चित हुई। चौहानों की सैनिक शक्ति पूर्ण रूप से विच्छिन्न हो गयी।”
डा. ईश्वरी प्रसाद का कहना है-”यह राजपूत शक्ति पर असाध्य आघात था। ….भारतीय समाज के सभी अंगों का नैतिक पतन इससे आरंभ हो गया और अब राजपूतों में कोई ऐसा नही रह गया था जो मुसलमानों के आक्रमणों को रोकने के लिए दूसरे राजाओं को अपने झण्डे के नीचे एकत्र करता।”
डा. आशीर्वादीलाल कहते हैं-”सभी विजित स्थानों मेंं हिंदुओं के मंदिरों को विनष्टï कर दिया गया और उनके स्थान पर मस्जिदों का निर्माण किया गया। इस्लाम की परंपरा के अनुसार सभी स्थानों में इस्लाम को राजधर्म बना दिया गया और चौहान शासक विग्रहराज द्वारा स्थापित किये गये सुप्रसिद्घ संस्कृत कालेज का विध्वंस करके उसके स्थान पर एक मस्जिद का निर्माण कराया गया।”
टिप्पणियों की विवेचना
पश्चिमी देशों और मुस्लिम इतिहास लेखकों की एक विशेषता रही है कि ये इतिहास को वैसे ही लिखते हैं, और उसे वैसे ही करवट दिलाने में सिद्घहस्त होते हैं जैसे विजित पक्ष चाहता है। इनकी इस सिद्घहस्तता के कारण इतिहास को विजेतापक्ष की चरणवंदना का ग्रंथ मानने का प्रचलन बढ़ा। परिणामस्वरूप इतिहास के प्रति लोगों में उपेक्षा भाव भी बढ़ा। यहां भी इन लोगों ने तराइन युद्घ के परिणामों का उल्लेख करते हुए अपनी टिप्पणियों में अतिवादी होने का या विजेता पक्ष की चरणवंदना करने का ही परिचय दिया है।
किसी ने भी ये ध्यान नही दिया कि गौरी ने यदि पृथ्वीराज चौहान को परास्त कर समाप्त भी कर दिया तो भी गौरी भारत पर शासन करने की स्थिति में क्यों नही था? यदि उसकी महत्वाकांक्षा भारत पर शासन स्थापित करने की थी तो उसे यहां रहकर स्वयं शासन करना चाहिए था। परंतु उसने ऐसा नही किया। क्योंकि उसे ज्ञात था कि चाहे भारत के एक पृथ्वीराज चौहान को उसने समाप्त कर दिया है, परंतु उसके इस कृत्य का प्रतिशोध लेने वाले अनेकों पृथ्वीराज चौहान भारत में अब भी जीवित हंै, जो उसे चैन से शासन नही करने देंगे। अत: उसने अजमेर को जीतकर भी अजमेर का शासक पृथ्वीराज चौहान के लड़के को ही बनाया। कुछ इतिहास लेखकों ने पृथ्वीराज चौहान के लड़के गोविंदराज को अजमेर का शासक नियुक्त करने पर शाहबुद्दीन गौरी की प्रशंसा की है और उसे एक दयालु तथा दूरदृष्टïा शासक सिद्घ करने का प्रयास किया है। जबकि गौरी के इस कार्य के पीछे उसका ‘भय’ काम कर रहा था। वह चालाकी से कार्य कर रहा था और गोविंदराज जैसे बच्चे को अजमेर सौंपकर वह इस बात से निश्चिंत था कि यह बच्चा शासन संभाल नही पाएगा। अधिकांश इतिहास लेखकों ने पृथ्वीराज चौहान के पुत्र की उस समय की आयु को बताने में संकोच किया है। यह केवल गौरी को उदार दिखाने की चेष्टïा में किया गया है। जबकि स्वयं पृथ्वीराज चौहान की आयु (मृत्यु समय) लगभग 26 वर्ष थी। अब 26-27 वर्ष के लड़के का लड़का कितने वर्षों का हो सकता है, और वह कितना बहादुर हो सकता है, या योग्य हो सकता है? इस पर किसी इतिहास लेखक ने विचार नही किया।
ऐसी परिस्थितियों में भी यदि गौरी की ‘उदारता’ की प्रशंसा हो रही है तो ऐसे प्रशंसक इतिहास लेखकों को इस पर भी विचार करना चाहिए कि उसने ये उदारता पृथ्वीराज चौहान के किसी योग्य परिजन या साहसी सेनापति को पृथ्वीराज चौहान का साम्राज्य सौंपकर या उसे गोविंदराज का संरक्षक बनाकर क्यों नही दिखाई?
उपरोक्त वर्णित विभिन्न इतिहास लेखकों के जो उद्घरण हमने देकर उनके शब्दांश या वाक्यांश रेखांकित किये हैं, उन्हें भी ध्यान से देखने की आवश्यकता है। ये शब्दांश या वाक्यांश अनावश्यक ही ऐसी मान्यता को हम पर आरोपित करते से प्रतीत हो रहे हैं कि भारत में पृथ्वीराज चौहान के जाते ही सर्वनाश हो गया था। जबकि अब भी ऐसा नही था। गौरी और उसके गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक के साम्राज्य को देखने से स्पष्टï हो जाता है कि भारतवर्ष का बहुत ही कम भूभाग उनके नियंत्रण में था।
डा. शाहिद अहमद ने ही अपनी उपरोक्त पुस्तक में तराइन के युद्घ के उपरांत की घटनाओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि इस पराजय के उपरांत भी गौरी के विरूद्घ राजपूतों के विद्रोह जारी रहे। राजपूत राजा अपनी खोयी हुई स्वतंत्रता को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हो गये। जिसके परिणामस्वरूप गौरी के विरूद्घ अजमेर में विद्रोह का नेतृत्व पृथ्वीराज चौहान का भाई हरिराज कर रहा था। हरिराज वास्तव में यह नही चाहता था कि पृथ्वीराज चौहान जैसे वीर हिंदू सम्राट का उत्तराधिकारी तुर्कों का ‘सामंत’ बनकर या आधीन बनकर कार्य करे। इसलिए हरिराज ने गोविंदराज पर आक्रमण किया और उसे अपने पूर्वज पृथ्वीराज चौहान की प्रतिष्ठा के विरूद्घ कार्य करने के लिए दंडित करते हुए मार भगाया।
उधर झांसी भी तुर्कों के आधीन हो गया था। उसकी आधीनता को लेकर भी हिंदुत्व के बहुत से पुजारियों के हृदय में क्रोधाग्नि धधक रही थी। इसलिए एक चौहान सामंत ने हांसी पर धावा बोल दिया। इस नगर को तुर्कों की आधीनता से मुक्त कराने का इस चौहान सामंत ने प्रशंसनीय प्रयास किया और तुर्कों को इस बात की अनुभूति करायी कि भारत की आत्मा और अन्तश्चेतना तुम्हें सहजता से शासन नही करने देगी।
वास्तव में तराइन के युद्घ (1192ई.) और गुलाम वंश की स्थापना (1206 ई.) में जो 14 वर्ष का अंतर है इस पर भी ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के उपरांत ही भारत पर तुर्की साम्राज्य स्थापित करना संभव हो जाता या गौरी को भारत में कहीं अन्य से चुनौती न मिलने की संभावना रही होती तो भारत में गौरी की मृत्यु के पश्चात उसके एक गुलाम द्वारा गुलामवंश की स्थापना न होकर गौरी के जीवन काल में ही तुर्कवंश की या गोरवंश की स्थापना हुई होती। परंतु भारत के विभिन्न क्षेत्रों में ‘मां भारती’ की स्वतंत्रता के प्रबल पुजारियों की उपस्थिति के कारण ही गौरी भारत में अपने साम्राज्य की स्थापना की घोषणा नही कर पाया। यह कम आश्चर्य की बात नही है कि जिस घोषणा को करने की इच्छा उसे आजीवन बनी रही उसे वह अपने जीवन काल में नही कर पाया। इस बात की उसे कितनी पीड़ा रही होगी, तनिक विचार कर तो देखिए कि जिस काम को आप करना चाहें और आजीवन जिसके लिए संघर्षरत रहें उसे यदि आप न कर पायें तो संसार से जाना भी कितना कष्टïप्रद होता है?
महाराणा प्रताप ने राज्य सिंहासन संभालते समय चित्तौड़ के किले को पुन: प्राप्त करने का संकल्प लिया था, परंतु दुर्भाग्यवश ले नही पाये थे, तो संसार से जाते समय उन्हें भयानक पीड़ा ने आ घेरा था।
मौहम्मद गौरी की असफलता
मौहम्मद गौरी असफल रहा। क्योंकि उसके लिए यदि भारत में अपना साम्राज्य स्थापित करना एकमात्र उद्देश्य था-तो वह इसे पूर्ण नही कर पाया। दूसरे उसके किसी पारिवारिक व्यक्ति को भी उसका साम्राज्य उत्तराधिकार में नही मिला। ऐसा नही है कि गौरी ही असफल रहा। असफलता हमारी भी रही कि हम भी अपनी स्वतंत्रता की समग्रता में सुरक्षा करने में असफल हो गये। परंतु हम इतने सफल अवश्य थे कि हमने चुनौती के सामने घुटने टेकना उचित नही समझा। हमने चुनौती को स्वीकार किया और विदेशियों को भगाने के लिए कृतसंकल्प हो उठे।
कोई भी व्यक्ति तब तक ‘कुश्ती’ के परिणाम की घोषणा नही कर सकता जब तक कि दो पहलवानों में से एक दूसरे को अंतिम रूप से परास्त करने में सफलता प्राप्त ना कर ले। हम अपनी स्वतंत्रता की रक्षा के लिए 712 से युद्घ करते आ रहे थे और निरंतर 500 वर्षों तक के इस संघर्ष में इतने दुर्बल अवश्य हो गये थे कि विदेशी कुछ भूभाग पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो गये। परंतु हम 500 वर्ष लड़कर भी अगले 500 वर्षों (औरंगजेब के शासन के अंतिम वर्ष अर्थात 1707 ई) तक लडऩे के लिए ऊर्जान्वित अवश्य थे।
बुलंदशहर का वीर हिंदू शासक चंद्रसेन
इसी ऊर्जा से ओत प्रोत था- बरन अर्थात बुलंदशहर का तत्कालीन शासक चंद्रसेन। यह वीर शासक एक राजपूती शासक था। इसके वंशज राजपूत आज तक भी बरन में मिलते हैं। इस राजपूत की बांहें फड़क रही थीं और वह भारत की स्वतंत्रता का हरण करते विदेशी गिद्घों को देखकर बहुत ही व्यथित और आंदोलित था। इसलिए उसने तुर्कों को भारत से बाहर निकालने के लिए तुर्क साम्राज्य के विरूद्घ विद्रोह कर दिया। उसने अपूर्व शौर्य एवं अदम्य साहस के साथ तुर्क सेना को भगाने के लिए लड़ाई लड़ी। परंतु कुतुबुद्दीन ऐबक ने अपने पूर्ववर्ती तुर्क शासक आक्रामकों की नीति का अनुकरण किया और विश्वासघात करते हुए चंद्रसेन के एक संबंधी अजयपाल को धन देकर अपनी ओर मिला लिया। कहना न होगा कि फिर एक पृथ्वीराज चौहान एक ‘जयचंदी परंपरा’ की भेंट चढ़ गया। शौर्य और देशभक्ति को पुन: छल छद्म और विश्वासघाती अजयपाल की सहायता से कुतुबुद्दीन ने चंद्रसेन के संपूर्ण परिवार का ही नाश कर दिया। परंतु इसके उपरांत भी आज का बुलंदशहर अपने इस पराक्रमी शासक पर गर्व करता है और इसका नाम आते ही अपने हौंसले बुलंद कर लेता है। क्योंकि ऐसे ही पराक्रमी शासकों और ‘मां भारती’ की स्वतंत्रता के उपासकों के कारण ही इस शहर का इतिहास में ‘बुलंद’ स्थान है। मानो वह अपने ‘बुलंद हौंसले’ वाले इस शासक का एक ‘बुलंद स्मारक’ है।
मेरठ की वीर विद्रोही भूमि
मेरठ की भूमि भी विद्रोह का पर्याय रही है। इसने कभी भी अन्याय को सहन नही किया है। अन्याय के विरूद्घ युद्घ की घोषणा यहां महाभारत काल से ही होती आयी है। गौरी ने जब पृथ्वीराज चौहान को परास्त किया तो यहां की वीर हिंदू जनता में आक्रोश व्याप्त हो गया था। लोगों ने बिना किसी शासक की प्रतीक्षा किये ही विद्रोह का झण्डा उठा लिया। कुतुबुद्दीन ऐबक को यहां की जनता ने बहुत देर तक ‘ऐमक’ बनाया और उसे बता दिया कि अपनी स्वतंत्रता के लिए क्षेत्र की जनता कितनी आंदोलित और व्यथित है। कुतुबुद्दीन ने बड़ी कठिनता से मेरठ के विद्रोह को दबाया। परंतु यह ध्यान देने की बात है कि ये आंदोलन दबाये ही गये शांत नही हो पाए। किसी भी क्षेत्र ने स्थायी रूप से तुर्की गुलामी को स्वीकार नही किया था।
दिल्ली भी धधकती रही
उधर दिल्ली भी अपने पुराने हिंदू वैभव को प्राप्त करने के लिए मचल रही थी। उसने अपने सम्राट को मरा हुआ नही माना था अपितु उसे एक शहीद माना था और शहीद की शहादत उसके जाने के पश्चात भी उसके अनुयायियों को आत्मिक और भावनात्मक रूप से प्रेरित करते रहने का कार्य किया करती है। इसलिए चौहान के अनुयायी और उसके देशभक्त साथी दिल्ली को विदेशी शासन से मुक्त करने का सपना देख रहे थे। इसलिए दिल्ली के तोमर शासक ने भी अपनी खोयी हुई स्वतंत्रता को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रयत्न करने प्रारंभ कर दिये। फलस्वरूप 1193 ई. में कुतुबुद्दीन से दिल्ली के तोमरों का पुन: युद्घ हुआ और निर्णायक रूप से कुतुबुद्दीन से दो-दो हाथ करने का मन बना लिया। युद्घ हुआ, परिणाम तो कुतुुबुद्दीन के पक्ष में ही गया परंतु तोमरों ने अपनी वीरता और साहस का परिचय अवश्य दिया कि वे भारत की खोयी हुई स्वतंत्रता को प्राप्त करने के प्रति कितने गंभीर हैं?
अजमेर की अजेयता
इसके पश्चात अजमेर में पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज ने पुन: विद्रोह कर दिया। हरिराज ने अजमेर से अपनी सेना के साथ रणथंभौर की ओर प्रस्थान किया और वह रणथंभौर पर अपना नियंत्रण स्थापित करने में सफल हो गया। उसने पृथ्वीराज चौहान के उत्तराधिकारी गोविंद राज को अजमेर का शासक घोषित कर दिया। इस विद्रोह से निपटने में कुतुबुद्दीन को भारी कठिनाई का सामना करना पड़ा था। हरिराज जब तक जीवित रहा तब तक वह भारत की स्वतंत्रता के लिए ‘फिदायीन’ बना रहा। इस हिंदू वीर ने तीसरी बार 1195 ई. में तुर्कों के विरूद्घ युद्घ की घोषणा की। वह हर स्थिति में भारत की स्वतंत्रता को बचाना चाहता था। 1195ई. में उसने अंतिम बार विद्रोह किया और अपनी सेना को दिल्ली की ओर कूच करने के लिए आदेश दिया। ऐबक ने इस सेना को परास्त कर समाप्त कर दिया जिससे ‘हिंदूवीर’ हरिराज को बहुत ही पीड़ा हुई और उसने जयहर (जौहर) बोलते हुए आत्मोत्सर्ग कर लिया।
हरिराज के व्यक्तित्व की यदि समीक्षा की जाये तो उस साहसी हिंदूवीर ने अपनी कुलीन वीर हिंदू परंपरा को बचाये बनाये रखते हुए मां भारती के लिए जिस अदभुत पराक्रम का परिचय दिया वह इस बात का प्रमाण है कि पृथ्वीराज चौहान के पश्चात भी देश की स्वतंत्रता के लिए उसके परिजनों ने संघर्ष किया। दुर्भाग्य देश का ये था कि हरिराज को अब अन्य देशी शासकों का सहयोग उस स्तर पर नही मिल पाया जितना पृथ्वीराज चौहान को मिल जाया करता था।
राजपूताना की बहादुरी
राजपूताना अपनी आनबान और शान के लिए बलिवेदी सजाने वाली विश्व की पवित्रतम वीरभूमि है। विदेशी तुर्कों के आक्रमण इसी भूमि पर हो रहे थे और यह पावन वीरभूमि शेष देश की रक्षा करने को अपना पुनीत राष्टï्रीय दायित्व मानती थी, इसलिए इस वीर भूमि ने अपने इस दायित्व के निर्वाह में कभी प्रमाद नही बरता। भारत के इतिहास से यदि राजपूताना की वीर परंपरा को निकाल दिया जाए तो भारत अपनी क्षत्रिय परंपरा के अभाव में लुटा पिटा सा दिखायी देगा।
1197ई. में विदेशी शासक के विरूद्घ राजपूताना के सामंतों ने एक संघ का निर्माण किया और विद्रोह मचा दिया। अजमेर के निकट ऐबक की सेना से इस संघीय राष्टï्रीय सेना का सामना हुआ। संघ ने बड़ी बहादुरी से युद्घ किया। परंतु जीत प्राप्त न कर सका। ऐबक ने विद्रोह को कुचल दिया।
ये सारे विद्रोह भारत के इतिहास से विलुप्त कर दिये गये हैं। प्रचलित पाठ्यक्रमों में जीतने वाले को ही ‘मुकद्दर का सिकंदर’ बनाकर प्रस्तुत किया गया है और सारे देश को विदेशियों का कीर्तिगान गाने के लिए विवश कर दिया गया है, यह कितना उचित है?