बाल-हठ, राज-हठ, त्रिया-हठ के बाद अब किसान-हठ

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_-राजेश बैरागी-_

इस बार गणतंत्र दिवस पर दिल्ली में दो परेड होने की आंशका है। एक राजपथ पर सरकारी परेड और दूसरी किसान परेड। यह दिल्ली के बाहरी संकुल मार्ग पर हो सकती है। दरअसल सौ दिनों में अढ़ाई कोस बढ़ने की कहावत अपनी बेनूरी पर बैठी रो रही है। अब अट्ठावन दिनों में दस कदम पीछे रहने के दिन हैं। किसानों ने सरकार से अपनी जिद मनवाने की ठान ली है। यह लड़ाई 2024 तक चलाने की घोषणा कर दी गई है। वर्तमान केंद्र सरकार का कार्यकाल तभी तक है। तो क्या 2024 के बाद जो सरकार बनेगी उसे विवादित तीनों कृषि कानून नामंजूर होंगे? भविष्य के प्रश्नों के उत्तर भी भविष्य में मिलेंगे परंतु किसानों के इस आंदोलन के पीछे के उद्देश्य स्पष्ट हैं। बैठक, पंचायत या वार्ता समस्या के समाधान तक पहुंचने की आकांक्षी होती हैं। अपनी अपनी जिद लेकर वार्ताओं का क्या मतलब। क्या ये वार्ताएं एक दूसरे को देख लेने भर के उद्देश्य से हो रही हैं।आज की ग्यारहवें दौर की वार्ता का परिणाम भी पूर्व घोषित सा ही है। सरकार का छुपा हुआ एजेंडा चाहे जो हो परंतु उसने अपनी प्रतिष्ठा के प्रतीक कृषि कानूनों को डेढ़ साल तक निलंबित रखने की पहल कर दी है। फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सरकार हलफ उठाने को तैयार है। परंतु किसान जिनपर आढ़तियों और भाजपा शेष राजनीतिक दलों के बूते या उनके निहितार्थ आंदोलन चलाने का आरोप निराधार नहीं है, अपनी ही रट पकड़कर ऐंठ से गये हैं।ऐसे तो समाधान निकल पाना संभव नहीं है। जैसे कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी और छद्म धर्मनिरपेक्ष वर्तमान सरकार के निर्वाचन को देश की जनता की मूर्खता का परिणाम बताते हैं तो क्या दिल्ली सीमा पर इकट्ठा होते जा रहे किसान भी किसी के बरगलाये हुए हैं। भीड़ का हर फैसला नाजायज नहीं हो सकता है और हर फैसला जायज भी नहीं हो सकता है।

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