जीवन के दो मार्ग हैं …….
बिखरे मोती
जीवन के दो मार्ग हैं, एक प्रेय एक श्रेय
जीवन के दो मार्ग हैं,
एक प्रेय एक श्रेय।
श्रेय – मार्ग से ही मिले,
ब्रह्म – प्राप्ति का ध्येय॥1413॥
मानुषी – धन संचित किया ,
दिव्य से खाली हाथ।
मानुषी रह जायेगा,
दिव्य चलेगा साथ॥1414॥
अगम अगोचर ईश है ,
ज्ञानी ध्यान लगाय।
मूरख जीवनी – ऊर्जा ,
वृथा देय गवाय॥1415॥
सज्जन के मन में सदा ,
होता हरि का वास।
वाणी बोले तोल के,
करे नहीं बकवास ॥1416॥
कर्म को पूजा बना ,
जो चाहे कल्याण।
परमार्थ और पुरुषार्थ से,
व्यक्ति बने महान॥1417॥
अन्तःकरण पवित्र हो ,
दृष्टि बदलती जाय।
आभामण्डल दिव्य हो ,
रसों के रस को पाय॥1418॥
दृष्टि अर्थात् नजरिया, दृष्टिकोण
व्याखा:- प्राय: देखा देखा गया है कि इस संसार में माता-पिता अपने बच्चों का नाम वेद, गीता, अथवा अन्य महापुरुषों के नाम पर रखते हैं। यहां तक कि भगवान के नाम पर भी नाम रखते हैं।इसके पीछे मानसिकता यह होती है कि मेरा बच्चा नाम के तदानुकूल हो, जबकि ऐसा होता नही है, जैसे – बच्चे का नाम रखा – वेदप्रकाश, किन्तु जानता क,ख, ग, भी नहीं । नाम रखा – गीता, किंतु जानती एक श्लोक भी रही, नाम रखा श्रवण, किन्तु माता-पिता को बढ़ापे में खून के आँसू रुलाता है,वृद्धाश्रम में छोड़ कर आता है,नाम रखा ‘राम’ अथवा रामचंद्र, किन्तु मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाता है, नाम रखा ‘कृष्ण’ ताकि बड़ा होकर कृष्ण जैसा ‘योगी’ किंतु बन गया – एक नम्बर का भोगी, लम्पट, मद्यप इत्यादि, नाम रखा – ‘बलवान’ किंतु के दो चलता है दीवार पकड़कर ,यहां तक कि यदि चील का झपट्टा लग जाय तो पंजों में दबाकर उड़ा ले जाय, नाम रखा ‘चंद्रमुखी’ किंतु है ज्वालामुखी, नाम रखा ‘ईश्वर’ किंतु आचरण से है निशाचर।
अब इन भोले भाइयों को कौन समझाये कि नाम से कुछ नहीं रखा। मुख्य बात तो मनुष्य के सभ्याचरण और अन्तःकरण की पवित्रता से जुड़ी है। जिसदिन अन्त:करण पवित्र होने लगेगा तो व्यक्ति का दृष्टिकोण, व्यष्टि और समष्टि के प्रति बदल जायेगा ।प्रभु – कृपा का पात्र बन जायेगा।उस दिन तो ऐसे नाचेगा जैसे चैतन्य महाप्रभु नाचे थे, जैसे मीरा ने भगवान कृष्ण की भक्ति में हृदयस्पर्शी गीत गाये थे, जैसे महर्षि रमण की प्रभु की खोज खोज में समाधि लग गई थी, महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी भी समाधिस्थ हो गए थे ,जैसे आर्य समाज के संस्थापक युग प्रवर्तक महर्षि देव दयानन्द की समाधि लग गई और राष्ट्रोत्थाना लीन हो गए,जैसे स्वामी विवेकानंद की वाणी वाक बन गई। उनकी वाणी से जो अमृत वर्षा हुई उससे भारत के ही नही अपितु अफ्रीका के लोग भी आश्चर्यान्वित हो गए , जैसे अंगुलीमाल डाकू से ऋषि बन गया, जैसे अन्तःकरण की पवित्रता से गुरु नानक देव के चेहरे पर सौम्यता और दिव्यता छा गई। इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है। मैं कहां तक लिखूं ? सारांश यह है कि नाम मे कुछ नहीं रखा। यदि मनुष्य अपने अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त,अहंकार) को परिष्कृत करे तो सभ्याचरण होता है,दिव्य आभामण्डल होता है वह आध्यात्मिक तेज का पुँज होता है, उसकी वाणी में रस होता है। जिसका हृदय पर प्रभाव पड़ता है। ध्यान रहे, प्रभाव शब्द का नही अपितु सभ्याचरण का पड़ता है। यह तभी संभव है जब मनुष्य का अन्त:करण पवित्र हो। ऐसा व्यक्ति ही उस परम – पुरुष को भी पा लेता है,जिसे वेदों ने ‘रसो वै सः’ कहा है।अतः नामानुकरण की अपेक्षा अन्तःकरण की पवित्रता ही श्रेयस्कर है।मनुष्य जीवन का लक्ष्य भी अन्तःकरण की पवित्रता होनी चाहिए।
क्रमशः
प्रोफेसर विजेंद्र सिंह आर्य
संरक्षक : उगता भारत