हमारी ‘पराजय’ के कुछ अवर्णित सैनिक कारण
जिस प्रकार हमारे पतन के राजनैतिक कारणों में कुछ काल्पनिक कारण समाहित किये गये हैं और वास्तविक कारणों को वर्णित नही किया गया है, उसी प्रकार हमारे पतन के लिए कुछ काल्पनिक सैनिक कारण भी गिनाये जाते हैं। पर इन सैनिक कारणों को गिनाते समय भी हमारे अतीत का ध्यान नही रखा जाता है और ना ही तात्कालिक विश्व समाज की परिस्थितियों का ही ध्यान रखा जाता है।
‘कथित पराजय’ के सैनिक कारण
हमारी ‘कथित पराजय’ के सैनिक कारणों को गिनवाते समय निम्नलिखित कारण मुख्य बताये जाते हैं:-
-विदेशों की राजनीति के प्रति उदासीनता।
-हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमानों का उच्चतर नेतृत्व।
-हिंदुओं का अपनी हस्ति सेना पर निर्भर होना।
-सैनिक वृत्ति का सीमित दृष्टिकोण।
-क्षत्रियों के रण कौशल में हृास।
-हिंदुओं का आत्म रक्षार्थ युद्घ करना।
-हिंदुओं का एक नेता पर ही निर्भर रहना।
-हिंदुओं में स्थायी सेना का अभाव और सामंतीय सेना पर निर्भर होना।
-युद्घ विज्ञान के अध्ययन की उपेक्षा।
-दोषपूर्ण सैन्य संगठन।
-अच्छे अश्वों का अभाव होना।
-तुर्कों की रणनीति का उत्कृष्ट होना।
-कोरी आदर्शवादिता का होना।
-तुर्कों की रणप्रियता।
-हिंदुओं की सेना में सुरक्षा की द्वितीय पंक्ति का न होना।
-तुर्कों की रसद को नष्ट करने की नीति का अभाव।
-हिंदुओं को तुर्कों की आतंकित करने की नीति।
-विपक्षी की दुर्बलताओं को जानने की उपेक्षा हिंदू करते थे।
-तुर्कों का अदम्य उत्साही होना।
-राजपूतों में सामूहिक एकरूपता का अभाव होना।
-तुर्कों में उन्नति की संभावना का होना।
ये उपरोक्त वर्णित सैनिक कारण वो कारण हैं, जो हमारी इतिहास की पुस्तकों में न्यूनाधिक सभी इतिहासकारों ने माने हैं। हमें इन कारणों पर अधिक प्रकाश नही डालना है। इनका उल्लेख प्रसंगवश आवश्यक था, इसलिए लिख दिये गये हैं। इन कारणों में सत्यांश न्यून है और मुस्लिम आक्रांताओं का गुणगान अधिक है। जैसे कहा जाता है कि मुसलमानों का नेतृत्व हिंदुओं के नेतृत्व की अपेक्षा कहीं अधिक उच्च था। यहां पर विचारणीय है कि नेतृत्व वही उच्च होता है जो लोगों को अपने पीछे सहज रूप में खड़ा रहने के लिए प्रेरित करे ना कि आतंक या भय के कारण उन्हें अपने पीछे रहने के लिए विवश करे। जबकि मुस्लिम शासकों का इतिहास तो ऐसा ही रहा है।
वास्तविक सैनिक कारण
अब हम अपनी पराजय के वास्तविक सैनिक कारणों पर चिंतन करते हैं। इन कारणों में सर्वप्रमुख कारण था-अहिंसा को देश का राष्ट्रधर्म घोषित कर देना।
युद्घ में आक्रांता के विरूद्घ दया प्रदर्शन भारतीय युद्घनीति में त्याज्य माना गया है। अथर्ववेद (1-16-4) में ऐसे आततायी आक्रांता को ललकारते हुए एक आर्यवीर योद्घा कहता है-”ओ, आततायी तू मुझे निस्तेज, बुझा हुआ मत समझना, मत समझना कि तू आकर मुझे सता लेगा और मैं चुपचाप तेरी यातनाओं को सह लूंगा। देख, यदि तू मेरी गाय को मारेगा, घोड़े को मारेगा, मेरे सगे संबंधी पुरूषों को (मेरी प्रजा को) मारेगा तो स्मरण रखना कि मैं तुझे सीसे की गोली से वेध दूंगा।”
अथर्ववेद (4-36-4) में कहा गया है कि-”पिशाचों को मैं अपनी शक्ति के जोर से दबा दूंगा, उनकी धन-संपदा छीन लूंगा। सब दुष्टता करने वालों को मार दूंगा, मेरा यह संकल्प पूरा होकर रहेगा।”
इससे अगले मंत्र में कहा गया है कि-”पिशाचों के साथ चोर, लुटेरों के साथ, डाकुओं के साथ मैं कभी समझौता नही कर सकता। जिस गांव में, जिस नगर में मैं जा ंपहुंचता हूं, पिशाच वहां से भाग खड़े होते हैं।”
इसी प्रकार ऋग्वेद (10-49-6) में कहा गया है-”सुनो, मैं वह हूं जिसने निर्धनों का रक्त पी-पीकर नई-नई हवेलियां खड़ी कर लेने वाले बड़े-बड़े रथ बग्घियों पर सैर सपाटा करने वाले दस्युओं को बात की बात में धूल में मिला दिया है। अत्याचार के बल पर फूलने फ लने वाले दुष्टों को मैंने टांग पकड़कर ऐसा उछाला है कि वे द्युलोक के भी परली पार जाकर गिरे हैं।”
यजुर्वेद में भी कहा गया है-”ऐ नर! तू मार सकने वाला है, मार मारने वाले को मार, उसे जो हम निरपराध लोगों को मारता है उसे मार जिसे हम मारने के लिए कटिबद्घ हैं, तू वीर है, देवजनों का नायक है, तू शुद्घतम है, पूर्णतम है, प्रियतम है, देवों का पूज्यतम है।”
हमारा यौद्घिक धर्म
ऐसे अनेकों बलदायक उदबोधनों से वेद ने हमारा ‘यौद्घिक-धर्म’ निर्धारित किया। हमने युग-युगों तक अपने इस यौद्घिक-धर्म का पालन किया। इसलिए भारतीय संस्कृति की रक्षा करने में सफल रहे। जिस काल का हम वर्णन कर रहे हैं, उस समय भी यह वीरता हमारा मार्गदर्शन कर रही थी, परंतु यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि उस समय यह यौद्घिक-धर्म अपनी समग्रता की आभा गंवा चुका था। इसकी तलवार में अहिंसा की जंग लग चुकी थी, और कई बार हमने शत्रु को हाथ में आने के उपरांत भी छोडऩे की भूल की। कई बार ऐसे अवसर आये कि जब हमने पड़ोसी को पिटने दिया, और उससे अपने संबंध मधुर ना होने के कारण यह नही सोचा कि यदि आज यह पड़ोसी पिट रहा है, तो कल हम भी पिटेंगे।
इस सोच का कारण था अपनी वैदिक संस्कृति का निरंतर हो रहा हृास। गुरूकुलों में या विद्यालयों में जो शिक्षा दी जा रही थी, उसमें पाखण्डवाद और वेद विरूद्घ बातों का समावेश होता जा रहा था, विभिन्न सम्प्रदाय ”अपनी-अपनी ढपली और अपना-अपना राग” सुना रहे थे। जिससे भारत के लोगों में कहीं न कहीं मतभेद उत्पन्न होते जा रहे थे, यद्यपि हमारे बहुत से वीरों ने और बहुत से विद्वानों ने वैदिक संस्कृति की रक्षार्थ बहुत ही श्लाघनीय कार्य किये और उनके इन श्लाघनीय कार्यों के कारण हम अपनी संस्कृति और स्वतंत्रता के लिए सदा ही लड़ते भी रहे, परंतु वेद विरूद्घ विद्या और विभिन्न संप्रदायों के अस्तित्व ने हमें कहीं न कहीं आहत भी किया।
महाभारत आदि पर्व में आया है कि यदि कोई ऐसा शत्रु युद्घ के मैदान से भाग रहा है, जिसके द्वारा भविष्य में तुम्हें चोट पहुंचाने की प्रबल संभावना है, तो उसे पीठ दिखाकर भागते हुए शत्रु पर प्रहार न करने के उदार नियम के आधार पर छोडऩा नही चाहिए, अपितु उसका वध कर देना ही श्रेयस्कर है।
यदि पृथ्वीराज चौहान महाभारत आदि पर्व के इस संदेश को समझ लेता कि शत्रु के तुच्छ होने पर, उसको तुच्छ समझने से वह ताड़ की भांति धीरे-धीरे जड़ें फेेलाता है। वन में लगी हुई आग के समान शीघ्र ही सब ओर फेेल जाता है, तो वह मौहम्मद गोरी को बार-बार छोडऩे की भूल नही करता।
‘वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’ इस आदर्श को समझकर युद्घ में शत्रु संहार के लिए स्वयं उद्यत रहने वाले गुरू द्रोणाचार्य की इस समय सचमुच कमी अनुभव हो रही थी। आदर्शों से बंधे रहने के कारण हमने कई बार आत्मरक्षार्थ युद्घ किया यह भी सच है। हमने भागते हुए शत्रु को कभी उसके घर में जाकर चुनौती नही दी क्योंकि इसे हमने अपनी अहिंसा नीति के विरूद्घ समझा। यह महात्मा बुद्घ की नीतियों के कारण हुआ।
कुछ विचारणीय बातें
हमने अपने शत्रु को भागने का ही अवसर नही दिया, अपितु उसे बार -बार आक्रमण करने का अवसर भी दिया। जिससे हमारे लिए आये दिन युद्घ करना कठिन होता गया। क्योंकि नित्य प्रति के युद्घों के लिए सैनिक शक्ति प्राप्त करना कठिन हो रहा था। एक बात और भी विचारणीय है कि नये नये सैनिकों को युद्घ का प्रशिक्षण देना भी कठिन होता है। इन नये सैनिकों की वीरता में कोई कमी नही होती थी, परंतु उन्हें शीघ्रता में उचित प्रशिक्षण नही मिल पाता था, जबकि शत्रु अपनी तैयारी के साथ आता था। हम कई बार तब युद्घ की तैयारी करते थे जब कि शत्रु हमारी सीमा में आ जाता था। इसलिए कई बार तो हमारे शासक अपनी छोटी सी सेना के साथ ही शत्रु से जा भिड़े और पराजित हो गये।
हमारी व्यूह रचना की वो आश्चर्यकारी युद्घनीति
भारत का अतीत ऐसा रहा है कि उसने युद्घों की ऐसी योजना बनाई कि जिसे संपूर्ण संसार ने अपनाया अथवा आश्चर्य की दृष्टि से देखा। इसलिए युद्घों में विभिन्न प्रकार की व्यूह रचना दुर्गों का निर्माण और चतुरंगिणी सेना के होने के प्रमाण केवल भारत में ही मिलते हैं। इस समय तक आते आते हम अपनी इन व्यूह रचनाओं से दूर हो गये थे। हमारे सैनिक उचित प्रशिक्षण प्राप्त नही कर पाते थे। आनन फानन में तैयार की गयी सेना केा प्रशिक्षित होने का अवसर नही मिलता था।
हमारे आदर्श और तुर्कों की निकृष्टता
हमारे कुछ आदर्श युद्घनीति से भी संबंधित रहे, जिनका पालन अब से पूर्व के युद्घों में अधिकांशत: होता आ रहा था। परंतु तुर्कों ने उन आदर्शों को तोड़ा और बहुत ही निकृष्टता का प्रदर्शन किया। जैसे महाभारत के युद्घ के समय भी नियम बनाया गया था कि अपने -अपने पक्षों के लिए रसद पहुंचाने वाले सैनिकों या नागरिकों को कोई सा भी पक्ष क्षति नही पहुंचाएगा । इसी प्रकार अपने-अपने पक्षों के आहत सैनिकों के शव उठाने वाले लोगों पर कोई हमला नही किया जाएगा। वास्तव में ये नियम युद्घ को धर्मयुद्घ बनाते हैं, अर्थात ऐसा युद्घ जिसमें नीति और नियमों का तथा मानवता का पूर्णत: ध्यान रखा जाना अनिवार्य होता है।
अब तुर्कों से जो युद्घ हो रहे थे उनमें धर्मयुद्घ की नीतियों की घोर अवहेलना हो रही थी। जनसाधारण का संहार, किलों को कई-कई माह तक घेरे रखकर भारतीय राजाओं और उनके सैनिकों को भूखे और प्यासे मारकर उन्हें आत्मसमर्पण के लिए विवश करना, अवसर लगते ही उनकी नारियों के साथ अमानवीय व्यवहार करना, रसद काटकर शत्रु को नि:शस्त्र कर देने की ऐसी चालें थीं जिन्हें कुछ लोगों ने तुर्कों की कूटनीति या उनके उच्च नेतृत्व का एक गुण माना है या फिर इसे उनकी वीरता के रूप में स्थापित किया है। जबकि ये बातें भारतीय युद्घनीति में निकृष्टता का प्रतीक मानी जाती रही हैं। इन्हें हमारे यहां कूटनीति नही अपितु कपट-नीति कहा गया है और ऐसे कपटपूर्ण युद्घ को अवैध ठहराया है। पर हिंदुओं की वीरता ही थी कि मुस्लिम इतिहास कारों को भी यह मानना पड़ा है कि जहां तुर्कों ने राजपूतों की रसद काटने जैसी कपट नीति का आश्रय लिया वहीं भारतीयों ने कभी उनकी रसद काटकर उन्हें घेरकर मारने का प्रयास नही किया। इतिहास में इस वीरता का गुणगान होना ही चाहिए जिससे कि इतिहास में आदर्श परंपराएं स्थापित रह सकें। हमने तुर्कों की कपट नीति का इतिहास में गुणगान किया तो युद्घ की भारतीय आदर्श परंपरा के विरूद्घ वैश्विक स्तर पर भी परिवर्तन आया और कपट नीति को युद्घ में एक अनिवार्य रक्षोपाय के रूप में विश्व स्तर पर मान्यता दे दी गयी।
हमें निजामी के इस कथन पर भी ध्यान देना चाहिए जो कि हिंदुओं की वीरता को प्रकट करता है-”युद्घ राजपूतों का व्यवसाय था और भारत का ग्यारहवीं शताब्दी का इतिहास मरणात्मक युद्घों, संघर्षों तथा विरोधों की एक लंबी कहानी है।”
किलों को कब्जाने की तुर्की नीति
प्रचलित इतिहास की पुस्तकों में कभी इस बात पर भी विचार नही किया गया है कि भारत में किसी पराजित राजा के किले को कब्जाने या उसकी सेना और प्रजा का समूल नाश करने की परंपरा नही रही है। यहां युद्घ राजाओं की सेनाओं के मध्य होता था। जय पराजय का निर्णय होने पर पराजित शासक यदि विजयी राजा की अधीनता स्वीकार कर लेता था, तो उसे अपने राज्य पर शासन करने के लिए छोड़ दिया जाता था। उसकी प्रजा के साथ कोई दुव्र्यवहार नही होता था, और उसके दुर्ग आदि को भी अपने नियंत्रण में नही लिया जाता था। हिंदू शासकों के विजय अभियान इसी नीति पर आधारित होते थे। जबकि तुर्क आक्रांता ऐसी किसी नीति में विश्वास नही रखते थे। उनका लक्ष्य होता था पराजय के पश्चात हिंदू शासक का वध कर उसके किले पर नियंत्रण तथा उसकी सेना व प्रजा का या तो सर्वनाश किया जाए या उनका धर्मांतरण कर लिया जाए। तुर्कों की इस नीति से उन्हें यहां पैर जमाने का अवसर मिला। उन्हें बने बनाये राजभवन मिले, दुर्ग मिले और राजाओं के राजभवनों के राजकोष मिले। इसीलिए उनका पहला लक्ष्य होता था-किलों पर नियंत्रण करना, उसके पश्चात जनसंहार और फिर राजकोष की बंदरबांट।
इस प्रकार की तुर्क आक्रांताओं की नीति से भारतीयों की सैनिक शक्ति का क्षरण होने लगा। अवैध रूप से कब्जाये गये किलों के लिए ही हिंदुओं को कई बार बड़े भारी-भारी युद्घ करने पड़े। इन युद्घों में बड़ी अदभुत स्थिति होती थी और वो ये कि शत्रु जिसे किले से बाहर होना चाहिए था, वह तो भीतर सुरक्षित होता था और जिन्हें भीतर होना चाहिए था वह बाहर होते थे। कई बार तो हमारे किलों में मिले हथियारों से शत्रु भीतर बैठकर हमें ही मारता था। हमारे किले हमारे आत्म सम्मान का प्रतीक होते थे और हम उनमें किसी विदेशी आक्रांता को बैठे देखकर स्वयं को अपमान और आत्मग्लानि का पात्र समझते थे।
हमारी प्राचीन युद्घ परंपरा थी कि हमें युद्घ के पश्चात किलों से कुछ नही कहना है, जबकि अब तुर्क परंपरा थी कि किलों को कब्जाने में ही आनंद है। युद्घ परंपरा में आमूल-चूल परिवर्तन आ गया था। अब युद्घ ही किलों को लेकर होने आरंभ हो गये थे। इससे हमारी ऊर्जा का अपव्यय हुआ और कई बार हम केवल मरने के लिए युद्घ क्षेत्र में गये। हमारे किलों में ही शस्त्र निर्माण के उद्योग स्थापित होते थे, जिन पर शत्रु का नियंत्रण होते ही हमारे शस्त्र निर्माण के उद्योग उनके हाथों में चले जाते थे। तब हमें परंपरागत हथियारों से ही युद्घ करना पड़ता था। इसका प्रभाव यह होता था कि कई बार तो हमें केवल अपने सम्मान के लिए मर जाने हेतु ही युद्घ करना पड़ता था। इस तथ्य की ओर इतिहासकारों ने ध्यान ही नही दिया है, जबकि ऐसे तथ्यों का अवलोकन कर हमारी कथित पराजय के कारणों का पुनर्निर्धारण किया जाना चाहिए।
हमारी देशभक्ति और उनकी लूटभक्ति
यह इतिहास संगत तथ्य है कि भारत पर तुर्क आक्रमणों का प्रमुख ध्येय लूट करना होता था। कई इतिहासकारों ने ये माना है कि मुस्लिम सेना में उच्चकोटि के सैनिक होते थे जो उन्हें अफगानिस्तान की पहाडिय़ों के उस पार के क्षेत्र से सहजता से उपलब्ध हो जाते थे। अब विचारणीय बात ये है कि अफगानिस्तान की पहाडिय़ों के उस पार जो लेाग उस समय रह रहे थे, उनका सांस्कृतिक और बौद्घिक स्तर क्या था? निश्चित रूप से वह भारतीयों की अपेक्षा आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और बौद्घिक सभी स्तरों पर पिछड़े हुए थे। अत: किसी देश पर या समुदाय पर हमला करना और उनकी धन संपदा लूटकर उससे जीवन व्यवहार चलाना इनका मुख्य व्यवसाय था। इसी कारण वह भारत की ओर बढ़े। वे किसी आक्रांता के साथ मिलते और एक लूट का बड़ा गिरोह बनाकर चल पड़ते थे। जब खिल्जी जैसा कोई आक्रांता खाली हाथ अपने देश पहुंचता तो लूट के धन की प्रतीक्षा कर रहे लुटेरे लोगों के गिरोह के परिजन ऐसे ‘खिल्जियों’ पर टूट पड़ते थे। इससे स्पष्ट होता है कि हमारी देशभक्ति के सामने उनकी लूटभक्ति खड़ी थी। यह सर्वमान्य सत्य है कि देशभक्ति वीरता की और लूटभक्ति क्रूरता की परिचायक हुआ करती है। हमारी वीरता में कोई दोष नही था, परंतु उनकी क्रूरता समय-समय पर जिस निकृष्टता के साथ प्रकट हुई उसका वर्णन करते हुए, लेखनी भी कांप उठती है।
हमारा युद्घ विज्ञान नष्ट होता गया
क्रूरता के दमन चक्र में फंसे भारतीय जैसे-जैसे अपने किले गंवाते गये वैसे-वैसे ही अपने युद्घ विज्ञान और शस्त्र-विज्ञान से दूर होते गये। यद्यपि हमारे शासकों का रसिक स्वभाव भी उन्हें आलसी और प्रमादी बना रहा था, जिससे भारतीय शासक अपने शत्रुओं की गोपनीय सूचनाएं प्राप्त करने और समय पर रक्षोपाय करने से वंचित हो गये। जबकि एलफिंस्टन ने मुस्लिमों के लिए ऐसा कहा है-”कावा काटकर पाश्र्व पर टूट पडऩा अथवा पीछे से धावा बोलना, भागने का बहना करके शत्रु को उसकी प्रबल मोर्चेबंदी से बाहर निकाल लाना, साधारण नागरिकों को धन का लोभ अथवा मृत्यु का भय दिखाकर उपयोगी भौगोलिक तथा गुप्त सूचना प्राप्त करना आदि तुर्कों की नीति के अंग थे।”
वास्तव में ये सब युद्घनीति के ही नियम हैं और यदि हम इनमें प्रमाद का प्रदर्शन कर रहे थे तो ये सब भी हमें शत्रु के सामने दुर्बल ही बना रहे थे। इससे हमारे रणकौशल में हृास होता था और हम शत्रुओं की दुर्बलताओं को समझने में असफल रह जाते थे।
मुख्य संपादक, उगता भारत