सिर्फ बंदूक के दम पर नही चलेगा काबुल
अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय सेना हट रही है और भारत की भूमिका बढ़ रही है. आगे का काम अफगान सेना को करना है लेकिन जानकारों का मानना है कि काबुल और पूरे देश की सुरक्षा और विकास सिर्फ सेना के बल पर किया जाना संभव नहीं.
पश्चिमी एशिया के विशेषज्ञ कमर आगा का मानना है कि अगले साल अफगानिस्तान की सेना पर बहुत दबाव पड़ने है लेकिन पूरे राष्ट्र के पुनर्निर्माण का जिम्मा सिर्फ उस पर नहीं छोड़ा जा सकता है. अफगान राष्ट्रपति हामिद करजई की भारत यात्रा के सिलसिले में डॉयचे वेले ने आगा से बात की.
डीडब्ल्यूः पाकिस्तान में चुनाव हुए हैं. इसका असर भारत पाकिस्तान और अफगानिस्तान के त्रिकोणीय रिश्ते पर किस तरह पड़ सकता है?
कमर आगाः इस त्रिकोण में बहुत सी दुश्वारियां हैं. पाकिस्तान चाहता है कि वह तालिबान के साथ मिल कर अफगानिस्तान में बड़ा रोल अदा करे, लेकिन भारत तालिबान के साथ किसी तरह का रिश्ता नहीं रखना चाहता है क्योंकि उसका कहना है कि यह एक आतंकवादी संस्था है. दूसरी तरफ पाकिस्तान की नई सत्ता भारत से दोस्ती चाहती है क्योंकि उनके अंदरूनी हालात बहुत खराब हैं. वे कारोबार पर बहुत ध्यान दे रहे हैं. नवाज शरीफ खुद कारोबारी हैं और वह इसकी अहमियत जानते हैं. लेकिन वहां की सेना ने शरीफ को हिदायत दी है कि वह जरा ध्यान से चलें और धीरे चलें.
उधर, अफगानिस्तान की आम जनता अमन और शांति चाहती है. हिन्दुस्तान के साथ उसके हजारों साल पुराने रिश्ते हैं और इस बीच वह और भी गहरे हो गए हैं. खास तौर पर जब से अमेरिकी वहां आए, भारत ने वहां विकास का बड़ा रोल अदा किया. सड़कें बनाईं, बिजली प्रोजेक्ट लगाए, संसद बनाया. स्कूल, कॉलेज अस्पताल बनाए. इस तरह भारत की एक अच्छी छवि है. अफगान चाहते हैं कि भारत वहां काम करता रहे.
डीडब्ल्यूः भारत अफगानिस्तान को सैनिक सहयोग देता आया है. ट्रेनिंग देता है. यह कितना संवेदनशील मामला है, खास तौर पर अगर पाकिस्तान को भी ध्यान में रखा जाए.
कमर आगाः यह बहुत संवेदनशील मामला है और भारत भी इसे समझता है. फिर भी उसने ट्रेनिंग का वादा किया है. भारत में दिया भी है. सिर्फ सेना के क्षेत्र में ही नहीं, कृषि में भी. राजनयिकों को भी ट्रेनिंग दी है.
अब यहां भी कुछ लोग कहते हैं कि ट्रेनिंग देनी चाहिए, जबकि दूसरे धड़े के लोग कहते हैं कि ध्यान रखना चाहिए. लेकिन मेरा मानना है कि सिर्फ सेना से वहां स्थिरता नहीं आएगी, बल्कि राष्ट्रपति हामिद करजई को और भी बहुत से काम करने होंगे. वहां कबायली व्यवस्था है, लिहाजा लोकतंत्र लाना बहुत मुश्किल काम है. भ्रष्टाचार कम करना होगा, दूसरी तरफ यह भी देखना होगा कि किस तरीके से कबायली व्यवस्था को आगे बढ़ाया जाए, औद्योगिक व्यवस्था की जरूरत है ताकि वर्किंग क्लास बन सके. यह संभव भी है क्योंकि उनके पास लौह अयस्क है, दूसरे खनिज हैं, गैस है, तेल है. इनकी मदद ली जा सकती है. लेकिन उन्हें एक अच्छी योजना की जरूरत है. वहां भूमि सुधार की जरूरत है. वहां कुछ परिवारों के पास हजारों एकड़ जमीन है. इसे बदलने की जरूरत है.
एक बात और ध्यान रखनी होगी कि अफगानिस्तान बहुत बड़ी सेना नहीं रख सकता क्योंकि उसे बाहर के पैसे से काम चलाना पड़ रहा है. मुझे लगता है कि अगर अफगानिस्तान खुद को तटस्थ राष्ट्र घोषित कर दे और अगर सुरक्षा परिषद इसे मान ले और उसके पड़ोसी देश भी मान लें तो सेना का खर्च बहुत हद तक कम किया जा सकता है, जिसे हम “बेकार खर्च” कहते हैं.
डीडब्ल्यूः अफगानिस्तान के लिए 2014 एक मुश्किल साल होगा जब विदेशी सेना वहां से हटेगी. आपको क्या लगता है कि जिस तरह भारत अपनी नजदीकी अफगानिस्तान में दिखा रहा है और राष्ट्रपति करजई से भी नजदीकी दिखाता आया है, जिन्होंने भारत में पढ़ाई की है. इन सब के बीच क्या यह भी कहा जा सकता है कि भारत उस दरवाजे में अपना पांव रखना चाहता है, जो 2014 में खाली होने वाला है.
कमर आगाः वहां की स्थानीय सेना बहुत सक्षम हो चुकी है और पिछले कुछ दिनों से अकेले भी वह बहुत कुछ कर रही है. और दूसरी बात यह भी है कि सारे अमेरिकी सैनिक नहीं हटेंगे. वहां कुछ बने रहेंगे और उनका काम आगे भी यही होगा कि वे अफगान सेना को ट्रेनिंग देते रहें.
जैसा कि सब जानते हैं कि वहां की आम जनता बहुत थक चुकी है. वह अमन शांति चाहती है. लेकिन सबसे बड़ी मुश्किल है कि पड़ोसी देश पाकिस्तान तालिबान का गढ़ बन गया है. ये तालिबान बहुत बड़ी मुसीबत बन गए हैं और यह समझ नहीं आ रहा है कि उन्हें कैसे रोका जाए. समस्या अफगानिस्तान में उतनी बड़ी नहीं है, जितनी बड़ी बाहर से है. यह बहुत चिंता का विषय है. अफगानिस्तान की सरकार भी बहुत परेशान है. हामिद करजई ने तो यहां तक कहा कि पाकिस्तान की सेना को वॉच लिस्ट पर डाल देना चाहिए और उन्होंने कई बार सीधे पाकिस्तान की सेना और आईएसआई पर भी आरोप लगाए हैं. मैं समझता हूं कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय को पाकिस्तान पर भी दबाव डालना पड़ेगा कि वह अफगानिस्तान में किसी तरह का दखल न दे.
डीडब्ल्यूः अगर हम तालिबान की बात करें. नवाज शरीफ कह चुके हैं कि वह तालिबान के साथ किसी हद तक बातचीत शुरू करना चाहते हैं. इन सबके बीच भारत को किस तरह का रुख अपनाना चाहिए.
कमर आगाः भारत का पक्ष बिलकुल साफ है. उसका कहना है कि जिनका भी लोकतंत्र में विश्वास है, वे हिंसा से दूर हों और सरेंडर करें और चुनाव में लड़ कर आ जाएं. मेरा ख्याल है कि यही विचार अमेरिका और पश्चिमी यूरोप का भी है. वे भी इन्हीं शर्तों पर बात के लिए तैयार हैं. हम लोगों को संदेह है क्योंकि हम अफगानिस्तान को बेहद करीब से जानते हैं और यह भी जानते हैं कि पाकिस्तान की नीयत क्या है. इससे शक होता है.
डर लगता है कि क्या पाकिस्तान के अंदर जो तत्व हैं, वे मान जाएंगे. क्या इन्हें बदला जा सकता है. देखिए ये बहुत ही कट्टर धार्मिक आतंकवादी हैं. इन्हें बदलना मुश्किल है. ये बहुत समय से इस्लामी व्यवस्था लागू करना चाहते हैं, जो अफगानिस्तान की आम जनता नहीं चाहती. ये चुनाव के जरिए नहीं आ सकते हैं. अगर ये सत्ता में आए, तो अपनी योजना को ही लागू करने की कोशिश करेंगे, ऐसी हुकूमत लाने की कोशिश करेंगे, जो वहां के दूसरे लोग अल्पसंख्यक या बहुत हद तक बहुसंख्यकों को भी पसंद नहीं. ज्यादातर पश्तून उदारवादी रहे हैं. सूफी व्यवस्था में उनका विश्वास है. ये उनके भी खिलाफ हैं. अल्पसंख्यकों की बात तो छोड़ ही दीजिए. भारत की भी यही चिंता है कि वह चाहता है कि कोई ऐसी गलती न हो कि वहां दोबारा हालात बिगड़ें और कानून व्यवस्था की फिर से समस्या पैदा हो.
इंटरव्यूः प्रिया एसेलबॉर्न
संपादनः अनवर जे अशरफ
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