इतिहास पर गांधीवाद की छाया, अध्याय – 16 – ( 2) गांधीवाद और डॉक्टर अंबेडकर

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राष्ट्रीय मुसलमान होना भ्रामक है

कांग्रेस ने हिन्दू महासभा जैसे राष्ट्रवादी संगठनों के राष्ट्रवादी विचारों का उपहास उड़ाते हुए उस समय कुछ मुस्लिमों के राष्ट्रवादी मुसलमान होने का भी एक पाखण्ड रचा था। जो लोग कांग्रेसी मंच पर आकर हिन्दू महासभा या भारतवर्ष की संस्कृति और इतिहास नायकों को गाली देते थे उन्हें कांग्रेस के लोग महिमामण्डित करते हुए राष्ट्रवादी मुसलमान होने की संज्ञा दिया करते थे । ऐसे राष्ट्रवादी मुसलमानों के लिए इतना होना ही पर्याप्त था कि वे मुस्लिम लीगी न होकर कांग्रेस के होने का नाटक करते थे । यद्यपि अपने अन्तर्मन से वह मुस्लिम लीग का भी कहीं ना कहीं समर्थन करते पाए जाते थे । कांग्रेस की विचारधारा दोगली रही । अतः कांग्रेस के मंच भी इस दोगलेपन से अछूते नहीं थे । यही कारण था कि कांग्रेस के मंचों पर छद्मवेशी लोग अपने आपको राष्ट्रवादी कहते रहे और कांग्रेस उन्हें राष्ट्रवादी होने का प्रमाण पत्र देती रही। यद्यपि इसी समय इन छद्मवेशियों को पहचानने में यदि कोई व्यक्ति सबसे अधिक सफल हो रहा था तो वह बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर थे।
इस सन्दर्भ में उन्होंने लिखा -”लीग को बनाने वाले साम्प्रदायिक मुसलमानों और राष्ट्रवादी मुसलमानों के अन्तर को समझना कठिन है। यह अत्यन्त सन्दिग्ध है कि राष्ट्रवादी मुसलमान किसी वास्तविक जातीय भावना, लक्ष्य तथा नीति से कांग्रेस के साथ रहते हैं, जिसके फलस्वरूप वे मुस्लिम लीग् से पृथक पहचाने जाते हैं। यह कहा जाता है कि वास्तव में अधिकांश कांग्रेसजनों की धारणा है कि इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है, और कांग्रेस के अन्दर राष्ट्रवादी मुसलमानों की स्थिति साम्प्रदायिक मुसलमानों की सेना की एक चौकी की तरह है। यह धारणा असत्य प्रतीत नहीं होती। जब कोई व्यक्ति इस बात को याद करता है कि राष्ट्रवादी मुसलमानों के नेता स्वर्गीय डॉ. अंसारी ने साम्प्रदायिक निर्णय का विरोध करने से इंकार किया था, यद्यपि कांग्रेस और राष्ट्रवादी मुसलमानों द्वारा पारित प्रस्ताव का घोर विरोध होने पर भी मुसलमानों को पृथक निर्वाचन उपलब्ध हुआ।” (पृ. 414 – 415 )

भारत में इस्लाम का बीजारोपण मुस्लिम आक्रान्ताओं की देन

भारत में मुस्लिम आक्रमणकारियों के अत्याचारों पर वर्तमान इतिहास या तो मौन साध जाता है या उनका वर्णन कुछ इस प्रकार करता है कि उस समय इस प्रकार की बर्बरता शासकों में सर्वत्र पाई जाती थी अर्थात मुस्लिमों का उस समय बर्बर होना कोई बड़ी बात नहीं थी । संपूर्ण संसार में ऐसा होना उस समय का एक प्रचलन था । इस प्रकार के इतिहास लेखन से हिंदू समाज के लोग भ्रमित हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि शायद उस काल के विषय में यही सत्य है। वर्तमान इतिहास में कुछ ऐसे भी भ्रम पैदा किए गए हैं जिनसे लगता है कि मुस्लिम आक्रमणकारी भारत में इस्लाम के जनक नहीं थे । उन्होंने अपनी तलवार के बल पर इस्लाम को भारत में नहीं फैलाया । इसके विपरीत सत्य यह है कि धीरे-धीरे जब इस्लाम भारत के वैदिकधर्मियों के सम्पर्क में आया तो उन्हें लगा कि इस्लाम के भीतर बहुत सारे ऐसे गुण हैं जो उनके स्वयं के धर्म में भी नहीं मिलते । फलस्वरूप उन्होंने स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार किया।
इस भ्रांति का निवारण करते हुए भीमराव अम्बेडकर जी लिखते हैं :– ”मुस्लिम आक्रान्ता निस्संदेह हिन्दुओं के विरुद्ध घृणा के गीत गाते हुए आए थे। परन्तु वे घृणा का वह गीत गाकर और मार्ग में कुछ मन्दिरों को आग लगा कर ही वापस नहीं लौटे। ऐसा होता तो यह वरदान माना जाता। वे ऐसे नकारात्मक परिणाम मात्र से सन्तुष्ट नहीं थे। उन्होंने इस्लाम का पौधा भारत में लगाते हुए एक सकारात्मक कार्य भी किया। इस पौधे का विकास भी उल्लेखनीय है। यह ग्रीष्म में रोपा गया कोई पौधा नहीं है। यह तो ओक (बांज) वृक्ष की तरह विशाल और सुदृढ़ है। उत्तरी भारत में इसका सर्वाधिक सघन विकास हुआ है। एक के बाद हुए दूसरे हमले ने इसे अन्यत्र कहीं भी अपेक्षाकृत अपनी ‘गाद’ से अधिक भरा है और उन्होंने निष्ठावान मालियों के तुल्य इसमें पानी देने का कार्य किया है। उत्तरी भारत में इसका विकास इतना सघन है कि हिन्दू और बौद्ध अवशेष झाड़ियों के समान होकर रह गए हैं; यहाँ तक कि सिखों की कुल्हाड़ी भी इस ओक (बांज) वृक्ष को काट कर नहीं गिरा सकी।” (पृ. 49)
बात स्पष्ट है कि भारत में इस्लाम का प्रचार – प्रसार और विस्तार इस्लाम की उस तलवार ने किया जो इस्लाम के तथाकथित बादशाहों के हाथों में रही या उनके उन सैनिकों के हाथों में रही जो उनके इशारे पर हिन्दुओं को लूटना और उनकी औरतों के साथ बलात्कार करना या उन्हें बलात अपने घर में रखना अपना नैसर्गिक अधिकार मानते थे।

डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक उगता भारत

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