इंकलाब जिंदाबाद-7
शांता कुमार
गतांक से आगे…
ब्रिटिश साम्राज्य का दानव इन तीन सुकुमारों को निगलने के लिए अपना भयंकर मुंह खोलकर तैयार था। परंतु सरकार इस बात से चिंतित थी कि इन तीनों शहीदों की लाशें जनता के उबलते हुए क्रोध को किसी क्रांति में न बदल दें। अत: न्याय, नियम और सभ्यता की हत्या करके उस सभ्य सरकार 24 की बजाए 23 की सांयकाल को ही चुपचाप इन्हें फांसी देने का निश्चय कर लिया। इतिहास साक्षी है कि फांसी सदा प्रात:काल ही दी जाती रही है।
23 मार्च की उस ऐतिहासिक सांयकाल को इन तीनों को फांसी की कोठरियों से निकालकर नहाने के लिए पानी दिया गया। तभी इनका माथा ठनका और वे बात समझ गये। कोठरियों से बाहर निकलते ही ‘इंकलाब-जिंदाबाद’ के नारों से जेल की दीवारें थर्राने लगीं। कैदियों ने देखा कि नहा धोकर फांसी घर की ओर जाते हुए वे तीनों बंदी आपस में झगड़ रहे थे। झगड़ा इस बात का था कि फांसी की डोरी को सबसे पहले कौन चूमेगा। भगत सिंह ने सामने खड़े अधिकारियों को कहा, आज आप देखेंगे कि स्वतंत्रता के मतवाले किस प्रकार भय रहित होकर मौत को भी चूम सकते हैं। हम आपसे दो मिनट का समय चाहते हैं ताकि अपने गलों की पूरी शक्ति से अंतिम बार नारे लगा लें। आज्ञा प्राप्त हो गयी और उसके बाद वही फांसी की डोरी, उछलते हुए उल्लास से उसे पकड़कर स्वयं अपने गले में डालना, वही साहस और फिर जेल के आंगन में तीन लाशें…..
जेल के साथ ही एक सज्जन के संतानम का घर था। सांयकाल के समय जेल के भीतर से अनपेक्षित नारों की आवाज सुनकर कुछ संदेह हुआ। उन्होंने भगत सिंह के पिता सरदार किशन सिंह को फोन कर दिया। चारों ओर चर्चा होने लगी। पुलिस इन तीनों लाशों को लाहौर से दूर फिरोजपुर नगर के पास ले गयी और वहां सतलुज नदी के किनारे बड़ी अपमान जनक अवस्था में मिट्टी का तेल डालकर तीनों लाशों को जला दिया। भगत सिंह के संबंधी तथा उनकी बहन अमरकौर हजारों लोगों के साथ खोज करते हुए रात के समय फिरोजपुर वाली सड़क पर पहुंचे तो उन्होंने पुलिस की कुछ गाड़ियां उधर जाते देखीं। यह जन समुदाय चलते चलते सतलुज नदी के किनारे पहुंचा। वातावरण में छाई हुई मिट्टी के तेल की दुर्गंध ब्रिटिश साम्राज्य को धिक्कार रही थी। चिंताएं प्राय: जल चुकी थीं। श्रद्घा से पागल भीड़ हड्डियां और भस्म लेने के लिए टूट पड़ी। कुछ अधजले मांस के टुकड़े भी इधर उधर रेत में बिखरे मिले।
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने टिप्पणी करते हुए कहा था, हम सब मिलकर उन्हें बचा न सके। गो कि वे हमारे इतने प्यारे थे और महान त्याग तथा साहस भारत के नौजवानों के लिए एक प्रेरणा की चीज थी और है। हमारी इस असहायता पर देश में दुख प्रकट किया जाएगा, किंतु साथ ही हमारे देश को इस स्वर्गीय आत्मा पर गर्व है और जब इंग्लैंड हमसे समझौते की बात करे तो हम भगतसिंह की लाश को न भूल जाएं। और इन्हीं नेहरू जी ने अपनी आत्मकथा के पृष्ठ 251 पर यह स्वीकार किया कि इन शहीदों की सजा रद्द करवाने की मांग का समझौते से कोई संबंध नही था और वह मांग सारे भारत की जनता की प्रबल भावनाओं के कारण केवल व्यक्तिगत रूप में की गयी थी।
इसी प्रकार कांग्रेसी नेताओं की परस्पर विरोधी बातों पर टिप्पणी करते हुए लंदन से निकलने वाले भारत पत्र ने जून 1931 के अंक में लिखा, भगत सिंह व उनके साथियों की फांसी को अहिंसा और त्याग पर स्पीचें झाड़ने का मौका बनाया गया। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने इस मौके से लाभ उठाया और एक बार फिर भारतीय नौजवानों के नेता के रूप में रंगमंच पर आए। कराची कांग्रेस में जवाहरलाल की फांसी वाले प्रस्ताव के प्रस्तावक के रूप में आए। यह प्रस्ताव कांग्रेस की अवसरवादिता तथा ढोंग का उत्कृष्टï नमूना है।
इन तीनों की फांसी के बाद सारे देश में मातम की एक लहर दौड़ गयी। जनता ने जलसे जुलूस तथा देशव्यापी हड़तालें करके अपने क्षोभ को प्रकट किया। कराची अधिवेशन पर आते हुए गांधीजी तथा अन्य नेताओं के विरूद्घ काली झंडियों से प्रदर्शन किये गये। एक स्थान पर कुछ भीड़ ने गांधीजी की गाड़ी को रोक लिया।
लोगों ने उन्हें अपने हृदय के अत्यधिक क्षोभ और दुख को प्रकट करने के लिए काले फूल भेंट किये। उन्हीं दिनों हड़ताल करवाने के बारे में मुस्लिम लीगियों से कानपुर में छोटा सा झगड़ा पैदा हो गया, जिसने बाद में एक भयंकर हिंदू मुस्लिम दंगे का रूप धारण किया और इन अहिंसावादियों की मुस्लिम तुष्टïीकरण की नीति बलिवेदी पर उत्तर प्रदेश कांग्रेस के प्रधान श्रद्घेय गणेशशंकर विद्यार्थी का महान बलिदान हुआ। भगत सिंह, राजगुरू तथा सुखदेव भारत के स्वतंत्रता संग्राम से हटा दिये गये। वे दूर क्षितिज के उस पार उस लोक में प्रयासण कर गये, जहां से वे कभी लौटेंगे नहीं। परंतु उनका बलदिान भारतवासियों के हृदय पर नासूर बनकर सदा सालता रहेगा। मरने के बाद अंग्रेजों से समझौता करते हुए उनकी लाश की याद रखने की बात करने वाले भगत सिंह के जीवन की चिंता नही कर सके।
आने वाली पीढ़ियां सदा यह प्रश्न पूछती रहेंगी कि भारत माता के हाथों की गुलामी की श्रंखलाओं को तोड़ने के लिए अपनी उभरती खिलती और इठलाती भरी जवानियों को स्वाहा कर देने वाले देश के प्रणवीर इन देशभक्तों की प्राण रक्षा के लिए वे अहिंसावादी क्यों नही आगे बढ़े, जो स्वामी श्रद्घानंद जैसी पुनीत आत्मा के हत्यारे, एक गुण्डे अब्दुल रशीद की प्राणररक्षा के लिए भी आगे बढ़ गये थे। इस प्रश्न का उत्तर ढूढ़ने के लिए इतिहास के अशुद्घ तथा भ्रांत बन गये पक्के रास्तों को फिर से तोड़फोड कर ठीक करने की आवश्यकता पड़ेगी।