हमारे बाद कौन ?      इस भ्रम को त्यागें

– डॉ. दीपक आचार्य

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हममें से ज्यादातर लोगों को हमेशा यही भ्रम बना रहता है कि हम ही हैं जिनमें कुव्वत है और काम करना जानते हैं, यह गुण किसी और में नहीं हैं इसीलिये हमारी अलग ही पहचान बनी हुई होती है जो हममें अहंकार और दूसरों में विवशता पैदा करती रहती है।समाज जीवन के विभिन्न क्षेत्रों और अपने गांव-कस्बे व शहर से लेकर दुनिया भर के मुल्कों में ऎसे लोगों की संख्या अनगिनत है जिनको सदैव यही भ्रम बना रहता है कि उनके बाद कौन? ऎसे लोगों की जिन्दगी का काफी कुछ हिस्सा इसी आशंका से होकर गुजरता रहता है और उन्हें अक्सर सताये रखता है।

हो सकता है कि कुछ लोग महानतम विलक्षण क्षमताओं से भरपूर होने की वजह से किसी कर्म या हुनर विशेष में अन्यतम और विशिष्ट हों लेकिन ऎसा सभी के साथ नहीं होता है।

भगवान ने सभी लोगों को बुद्धि और मानवी सामथ्र्य का वितरण समानुपात में किया है लेकिन दूसरे कारकों की वजह से कोई इसका कम तथा कुछ-कुछ इसका अत्यधिक इस्तेमाल कर लेते हैं।जो पूरा उपयोग कर पाने में समर्थ हो जाते हैं वे अपने आपको शिखर की तरह प्रतिष्ठित कर लेते हैं। इनमें भी जो लोग भारी होते हैं, मानवीय मूल्यों और संवेदनाओं के साथ जीते हैं उन पर अपने प्रतिभाशाली होने का कोई अहंकार हावी नहीं हो पाता लेकिन ज्यादातर लोग ऎसे नहीं हुआ करते।

इस स्थिति में थोड़ा-बहुत भी कुछ ज्ञान या समृद्धि आ जाए तो ऎसे लोग फूलने, कूप्पा होने और पसरने लगते हैं, साथ ही साथ जमाने भर में अपने आपको मोबाइल टॉवर की तरह बढ़े हुए कद का महसूस करने लग जाते हैं जहाँ सभी जगह वे खुद ही खुद को देखना चाहते हैं, शेष सारी दुनिया को वे बौनी और त्याज्य-अस्पृश्य मानने लगते हैं।ऎसे ही लोग दुनिया में सभी जगह छा जाने और लोकप्रियता पाने के लिए उतावले रहते हुए खुद ही खुद को आगे बढ़ाने, स्वर्ण शिखरों की तरह प्रतिष्ठित होने तथा सारे जहाँ का हर कोई लाभ पा जाने के लिए भागदौड़ करते रहते हैं।

इस अंधी दौड़ में रेस के घोड़ों की तरह भागते हुए इन्हें यह भी पता नहीं चलता कि कब उनके कुटुम्बी, मित्र और आत्मीयजन उनसे पीछे रह गए, कब उनकी अपनी मातृभूमि के सारे के सारे क्षेत्र पीछे छूट चले और इस दौड़ में उनके दिलों-दिमाग से जाने कब नैतिक और मानवीय मूल्य छिटक कर कहीं जा गिरे।

आदमियों की यह प्रजाति सिर्फ अपना ही अपना ध्यान रखा करती है और यह चाहती है कि वे जिन बातों में माहिर हैं उनमें उन्हीं का एकाधिकार रहे और दूसरा कोई न सीख पाए तथा न हुनर चुरा पाए।इसलिए ये लोग एकांतिक जीवन जीते हुए अपनी ही उधेड़बुन में पूरी जिन्दगी निकाल दिया करते हैं। हमारे आस-पास भी ऎसे खूब लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि ये किसी काम विशेष में दक्ष हैं और ऎसे लोग अब नहीं मिल रहे।इस प्रकार की बातों को सुन-सुनकर भी कई लोग अपने आपको स्वयंभू मान लेते हैं और उनका यह भ्रम परिपुष्ट होता चला जाता है कि वे हैं तभी सारे जहां के काम हो रहे हैं, वरना……।

इन लोगों की जिन्दगी में सबसे बड़ी यही चिंता सताती रहती है कि उनके बाद कौन?  जबकि दुनिया में न प्रतिभाओं की कोई कमी कभी रही है, न किसी हुनर की। हर युग में एक से बढ़कर एक हुनरमंद लोगों का अवतरण होता रहा है। और वह भी पहले से और अधिक बेहतर।आज जो लोग अपने आपको अन्यतम विलक्षण प्रतिभा सम्पन्न और स्वयंभू एकोहम मानकर चल रहे हैं उनसे पहले भी ऎसे लोग हुए हैं जो इसी प्रकार के भ्रमों के भार से दबकर ऊपर चले गए। फिर भी यह जमाना चल रहा है और पहले से अधिक रफ्तार के साथ। इस भ्रम को हमेशा-हमेशा के लिए हटाने की जरूरत है।

धरती पर पैदा हुए इंसान का पहला फर्ज यही है कि जो उसने सीखा है, उसे औरों को सिखाए और अपनी ही तरह हुनरमंदों का संसार बनाए ताकि सभी मिलकर सृष्टि के कल्याण में भागीदारी निभा सकें और ज्ञान तथा हुनर की यह विलक्षण श्रृंखला सदैव बनी रहे।

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