मिड डे मील- ना दया, ना हया
बिहार के छपरा जिले के एक स्कूल में मिड डे मील को लेकर 23 नन्हें मुन्ने नौनिहालों की जीवन लीला समाप्त हो गयी। भ्रष्टाचार का काला कलयुग है ये। इसमें सच में झूठ नही अपितु ‘झूठ में सच’ तलाशना पड़ता है, फिर भी यदि कुछ मिल जाए तो अपना सौभाग्य माना जाता है। भ्रष्टाचार लगभग लोकानुमति प्राप्त कर चुका है और लोग आपसी बातचीत में कहने लगे हैं कि पैसे देकर भी कोई काम कर दे तो उसका भी धन्यवाद करना चाहिए। क्योंकि अब पैसे लेकर भी काम नही हो रहा है, जो अधिक देता है वह ‘मुकद्दर का सिकंदर’ कहलाता है। ऐसे ही भ्रष्टाचार की भेंट पटना के एक अभागे स्कूल के कुछ अभागे बच्चे चढ़ गये हैं। जो भोजन बच्चों को दिया जा रहा है, वह इतना विषाक्त कैसे हो गया कि वह जिन्हें जीवन देने चला था उन्हीं की मौत का सबब बन गया? कारण सबको पता है पर उस कारण को कोई नही कहेगा। हां, जैसा कि केन्द्रीय मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने किया है कि ‘मिड डे मील’ योजना की गुणवत्ता की निगरानी के लिए एक समिति का गठन किया गया है, तो ऐसी ही बातों में तात्कालिक आधार पर हमें उलझा दिया जाएगा और समय के अनुसार हम और हमारा ये देश उन मासूमों की मौत को भुलाकर उनके परिवार वालों को भुला देगा। संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है यह।
वैसे हमारा मानना है कि ‘मिड डे मील’ योजना ही अपने आप में दोषपूर्ण है। यह उन बच्चों की मुफलिसी का मजाक है और उन्हें अपना मानसिक गुलाम बनाकर रखने की योजना है जिन्हें भोजन तक के लाले हैं। ये ‘सबको एक जैसी शिक्षा’ के आदर्श का भी खुला उल्लंघन है। यह कम दुख की बात नही है कि देश में ‘राजाओं’ के बच्चों के लिए आज भी स्कूल अलग हैं और गरीब के बच्चों के लिए अलग हैं। राजाओं के बच्चों को राजा तथा गरीबों के बच्चों को गरीब बनाने की पूरी व्यवस्था कर दी गयी है। इसलिए अब एक गांव का ‘लालबहादुर’ नन्हा मुन्ना देश का प्रधानमंत्री बनने की नही सोच सकता। पूरे देश में आज भी लाखों ‘लालबहादुर’ हैं जिन्हें अपने विद्यालय जाने के लिए कड़ी मेहनत करनी पड़ती है, या कोई नदी, नाला तैर कर पार करना पड़ता है। एक ‘लालबहादुर’ की व्यथा ने इस देश को यह समझाने का प्रयास किया था कि मेरे जैसा अन्य कोई ‘लालबहादुर’ अब ठिठुरती सर्दी में या उफनती नदी में तैरकर अपनी जान को जोखिम में ना डाले, ऐसा प्रबंध किया जाएगा। पर उस दिशा में कोई काम नही किया गया।
अब काम किया जाता है वोटों को पक्का करने के लिए। वोटों के लिए तात्कालिक आधार पर लाभ अर्जित करने के लिए, सारी राजनीतिक पार्टियां अपने अपने चुनावी वायदे और चुनावी घोषणा पत्र तैयार करती हैं, और फिर खजाने को उन्हीं वायदों पर लुटाती हैं। देश में राजनीतिज्ञ तो हैं पर राजनेताओं का तो अकाल ही पड़ गया है। सब अपने अपने पैरों के नीचे की धरती को ही देख रहे हैं, दूर भविष्य का किसी को नही दीख रहा है।
किसी भी राजनीतिक दल ने आज तक इस देश के नागरिकों के लिए ऐसी कोई योजना अपने घोषणा पत्र के माध्यम से जारी नही की है जिसके द्वारा बताया जाए, कि वह देश के हर व्यक्ति को स्वास्थ्य सेवा उपलब्ध कराएगा। देश में 2007 में एक अरब 12 करोड़ लोगों के स्वास्थ्य के लिए 23 लाख चिकित्सक थे। जिनकी संख्या अब कम से कम पचास लाख होनी चाहिए। परंतु उन पचास लाख को तैयार करने में देश की सरकार का दस हजार करोड़ रूपया व्यय होता है। अत: उसी का बहाना बनाकर पीछे हट जाती है, और देश में राष्ट्रमंडल खेल होते हैं तो 70 हजार करोड़ का घोटाला हो जाता है। देश के नौनिहालों को डॉक्टर न बनाकर उन्हें तो ‘मिड डे मील’ का झुनझुना थमा दिया और स्वयं लग गये घोटाले करने पर। यह अन्याय नही तो क्या है?
देश के उत्तर में खड़े हिमालय के लिए अब यह बात बीते जमाने की हो गयी है कि ‘वह संतरी हमारा वह पासबां हमारा’। चीन ने अपने क्षेत्र में वहां तक सड़कें बनाकर इस संतरी और पासबां की ओर से हमें भारी खतरा पैदा कर दिया है। इसलिए देश को पूरे हिमालयी क्षेत्र में सड़कों का जाल सुरक्षा की दृष्टिï से बिछाना आवश्यक हो गया है। उसके लिए बड़ी संख्या में इंजीनियर्स चाहिएं। क्या किसी दल ने अभी अपने चुनावी घोषणा पत्र में यह कहा है कि यदि वह सत्ता में आये तो देश को पांच साल में इतने इंजीनियर इतने डाक्टर, इतने वैज्ञानिक इतने अधिकारी देंगे। नही, और कहेंगे भी नहीं। क्योंकि हम जनता के लोग इन नेताओं से ये पूछते भी तो नही हैं कि आप हमें ये चीजें क्यों नही दे रहे हो जिन्हें हम चाहते हैं और वही क्यों दिये जा रहे हो जो हमें नही दिया जाना चाहिए। भीख मांगकर कभी कोई धनवान नही होता। भीख मांगना एक अपराध है और एक दुर्व्यसन भी। अपराध के अर्थों में यह क्रिया व्यक्ति को समाज पर बोझ बनाती है और दुर्व्यसन के रूप में उसे एक निकम्मा इंसान बनाती है। यह सच है कि यह बोझ बना हुआ निकम्मा व्यक्ति कभी भी कोई बड़ा कार्य नही कर सकता। हां, किसी की प्रतिभा को सहारा देकर उसे निखारकर हीरा बना देना सचमुच एक अलग बात है। इसलिए ‘मिड डे मील’ का लाभार्जन करने वाले बच्चों की प्रतिभा को निखारने की आवश्यकता है और उसके लिए उन्हें धनी परिवारों के बच्चों के साथ पढ़ाया जाए। संगति से बच्चा सुधरता है और बड़ा आदमी बनता है। लेकिन यहां गरीबों को गरीबों के स्कूल में डालकर अपनी गुफलिसी की तांग सोच में कैद करके मारने का प्रबंध किया गया है और उनकी प्रतिभा किसी कीमत पर भी विकसित ना होने पाए ऐसा प्रबंध कर दिया गया है। यानि भोजना, (भोजन) घोषणा और योजना तीनों ही विषाक्त है। तब यदि ‘मिड डे मील’ से बच्चे मर रहे हैं तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? इन्हें तो मरना ही है, आज नही तो कल और कल नही परसों। क्योंकि जिनको केवल ‘मिड डे मील’ देकर अपना वोटर बनाकर तैयार किया जा रहा हो वो स्कूल से भी अकर्मण्य और आलसी बनकर ही निकलेंगे। दूसरे शब्दों में कहें तो समाज के लिए एक बोझ बनकर ही बाहर आएंगे। तब उचित यही होगा कि देश में हर बच्चे के लिए अनिवार्य शिक्षा नही बल्कि समान शिक्षा लागू हो। अनिवार्य शिक्षा तो एक छलावा है। जिसमें सबको साक्षर दिखाने का झूठा अभियान चल रहा है। योजनाएं फाइलों में पैदा हो रही हैं, वही नेताओं और अधिकारियों का कमीशन निकल रहा है और वही की वहीं वे बंद भी हो रही हैं। क्या फायदा है ऐसे सर्वशिक्षा अभियान का या अनिवार्य शिक्षा अभियान का। इस नाटक को सच में बदलेगा सबको समान शिक्षा का अभियान, एक जैसी शिक्षा व्यवस्था का संकल्प और बच्चों को एक जैसा परिवेश उपलब्ध कराने की दृढ़ इच्छा शक्ति। तभी इस लोकतंत्र में लोककल्याणकारी शासन का संवैधानिक ‘शिव संकल्प’ पूर्ण होगा और तभी कोई गांव का ‘नन्हा लाल’ फिर से देश का प्रधानमंत्री बन सकेगा। खिलौनों से बहकाने की नीतियों को देश जनता के प्रति जितनी जल्दी त्याग देगा उसका उतना ही अच्छा परिणाम हमारे सामने आएगा।
लेखक उगता भारत समाचार पत्र के चेयरमैन हैं।