ईश्वरीय ज्ञान वेद श्रेष्ठ आचरण को ही मनुष्य का धर्म बताते हैं
ओ३म्
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धर्म और आचरण पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि धर्म शुभ व श्रेष्ठ आचरण को कहा जाता है। जो जो श्रेष्ठ आचरण होते हैं उनका करना धर्म तथा जो जो निन्दित तथा मनुष्य की आत्मा को गिराने वाले कम व आचरण होते हैं, वह अधर्म व निन्दित होते हैं। वेदों में मनुष्य को श्रेष्ठ आचरणों की शिक्षा दी गई है जिससे मनुष्य की सर्वांगीण उन्नति होती है। अतः सदाचार ही धर्म तथा असद्व्यवहार व आचरण ही अधर्म होते हैं। वैदिक धर्म विद्या व श्रेष्ठ आचरण से युक्त एकमात्र धर्म है। अन्य मत पन्थों में जो अच्छे आचरण व बातें हैं वह सर्वप्राचीन वेदों से ही उनमें पहुंची हैं तथा अविद्यायुक्त कथन मत-मतान्तरों में अपने अपने हैं। यदि किसी भी मनुष्य को अपनी सर्वांगीण उन्नति कर मोक्ष सुख को प्राप्त करना है तो वह मत-मतान्तरों की शिक्षा से प्राप्त होना सम्भव नहीं है। इसके लिये तो मनुष्य को अपने प्रत्येक कर्म को सत्य व विद्या पर आधारित करना होगा तथा त्यागपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए परोपकार व समाज हित के कार्यों को करना होगा। सभी मनुष्य समान हैं और परमात्मा के उत्पन्न किये हुए हैं। सब मनुष्यों व प्राणियों में हमारे ही समान एक जैसा आत्मा है।
अतः किसी विद्यायुक्त व धार्मिक मनुष्य को किसी भी मनुष्य व प्राणी को कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये। जो ऐसा करते हैं वह धार्मिक कहलाकर भी वास्तव में धार्मिक नहीं होते। सबको इस संबंध में अपने पूर्वाग्रहों को छोड़कर सत्यार्थप्रकाश में दिये ऋषि दयानन्द के विचारों के परिप्रेक्ष्य में विचार करना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश का दशम समुल्लास आचार, अनाचार, भक्ष्य तथा अभक्ष्य विषय पर है। इसे सब मनुष्यों को पढ़ना चाहिये और इसकी भावना को जान व समझ कर सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना चाहिये। इसी समुल्लास में ऋषि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर आचरण विषयक जो विचार प्रस्तुत किये हैं, उनको हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं।
ऋषि दयानन्द कहते हैं कि मनुष्यों को सदा इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि जिस का सेवन रागद्वेषरहित विद्वान लोग नित्य करते हैं, जिस को मनुष्य का हृदय अर्थात् आत्मा सत्य कर्तव्य जानें, वही धर्म माननीय और करणीय होता है। ऋषि ने यहां सत्पुरुष विद्वानों के अनुसार आचरण करने सहित अपनी आत्मा जिसे कर्तव्य मानें, उसी का करना धर्म बताते हैं। इसमें किसी को शायद कोई आपत्ति नहीं हो सकती। ऋषि यह भी कहते हैं कि इस संसार में अत्यन्त कामात्मता और निष्कामता श्रेष्ठ नहीं है। वह कहते हैं कि वेदार्थ ज्ञान और वेदोक्त कर्म करने से ही मनुष्यों की सब कामनायें सिद्ध होती हैं। ऋषि दयानन्द कहते हैं कि यदि कोई मनुष्य यह कहे कि वह निष्काम अर्थात् कामना रहित है व हो सकता है, तो वह ऐसा कभी नहीं हो सकता। पूर्ण निष्काम अर्थात् सभी कामनाओं से मुक्त इसलिये नहीं हो सकता क्योंकि सब काम अर्थात् यज्ञ, सत्यभाषणादि व्रत, यम नियमरूपी धर्म आदि संकल्प ही से बनते हैं। यह संकल्प भी एक प्रकार से कामना पूर्ति के लिए ही किये जाते हैं। ऋषि दयानन्द एक महत्वपूर्ण बात यह भी बताते हैं मनुष्य अपने हाथ, पैर, नेत्र व मन को जिन-जिन कामों में चलाता है अर्थात् उनसे काम लेता है, वह भी कामना से ही चलते हैं। यदि मनुष्य में कामना न हो तो आंख का खोलना व बन्द करना भी सम्भव नहीं है। अतः कामना होने से ही मनुष्य का जीवन चलता है। पूर्ण निष्काम व कामनारहित कोई भी मनुष्य कदापि नहीं हो सकता।
वेदों में निर्दिष्ट उपर्युक्त धर्म व आचरण करने से मनुष्य को क्या लाभ होता है, इसके पक्ष में मनुस्मृति के श्लोक के आधार पर वह कहते हैं कि जो मनुष्य वेदोक्त धर्म और जो वेद से अविरुद्ध मनुस्मृति आदि स्मृतियों में निर्दिष्ट धर्म का अनुष्ठान करता है वह इस लोक में कीर्ति और मरने के बाद सर्वोत्तम सुख (अमृतमय मोक्ष) को प्राप्त होता है। लोक में कीर्ति व मोक्ष सुख से बढ़कर धन सम्पदा व सुख और कोई नहीं है। ऐसा वैदिक साहित्य को पढ़ने व सांसारिक सुखों से इनकी तुलना करने पर विदित होता है। ऋषि कहते हैं कि श्रुति वेद को कहते हैं तथा स्मृति धर्मशास्त्र को कहते हैं। इनका अध्ययन कर मनुष्य को अपने सभी कर्तव्यों व अकर्तव्यों का निश्चय करना चाहिये। समाज में कई लोग विपरीत बुद्धि के होते हैं। वह सत्य सिद्धान्तों को भी नहीं मानते और हठ व दुराग्रह से अपनी मिथ्या बातों को मनवाने का प्रयत्न करते हैं। ऐसे मनुष्य पहले भी होते थे और आज भी बहुतायत में हैं। ऋषि दयानन्द महाराज मनु के श्लोक ‘योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः। स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिनदकः।।’ के आधार पर कहते हैं कि जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आप्तग्रन्थों का अपमान करे उस को श्रेष्ठ लोग जातिबाह्य कर दें। जातिबाह्य का अर्थ मनुष्य जाति से बाहर कर देना प्रतीत होता है। ऐसे लोगों को समाज को प्रदुषित व विकृत करने की अनुमति नहीं होनी चाहिये और न ही उन्हें समानता के अधिकार ही होने चाहियें अन्यथा वह समाज में वैचारिक प्रदुषण फैलाकर कर जनसामान्य के हितों व सुखों में बाधक बन सकते हैं। महाराज मनु ने श्लोक में यह भी कहा है कि जो मनुष्य वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक होता है। नास्तिक का अर्थ हमें सत्य को न मानने वाला विदित होता है। ईश्वर व जीवात्मा का अस्तित्व सत्य है। नास्तिक न तो वेद प्रतिपादित अनादि, नित्य तथा सच्चिदानन्दस्वरूप ईश्वर के सत्यस्वरूप को मानते हैं और न ही अनादि व नित्य, अल्पज्ञ, एकदेशी व जन्म-मरण धर्मा शाश्वत जीवात्मा के अस्तित्व को ही मानते हैं।
मनुस्मृति की यह बात भी सत्य, सर्वमान्य व अकाट्य प्रतीत होती है कि वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचारण और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रिय आचरण, ये चार धर्म के लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है। इसी के साथ यह बात भी सत्य है कि जो मनुष्य द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषयसेवा में फंसा हुआ नहीं होता उसी को धर्म का ज्ञान होता है। जो धर्म को जानने की इच्छा करें उनके लिये वेद ही परम प्रमाण है। इस दृष्टि से समाज में ऐसे अनेक मनुष्य व समूह आ जाते हैं जिनके विषय में यह कह सकते हैं कि वह धर्म व सम्पत्ति तथा सुखों के मोह में फंसे हुए हैं तथा उन्हें इस कारण से धर्म का ज्ञान नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उनके सभी आचरण भी धर्मसम्मत नहीं हो सकते। यदि ऐसे लोग धर्म को जानने की इच्छा करें तो उन्हें वेदों का अध्ययन कर वेदों की मान्यताओं को जानना चाहिये। यही धर्म व परमधर्म होता है। वेद, वेदसम्मत व वेदानुकूल ग्रन्थों के अध्ययन से ही परमधर्म को जाना जा सकता है। इन ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश का महत्वपूर्ण स्थान है।
ऋषि दयानन्द ने मनुस्मृति के आधार पर मनुष्य के धर्म व आचरण का जो व्याख्यान सत्यार्थप्रकाश में प्रस्तुत किया है वह युक्ति व तर्क से सिद्ध होने के कारण सत्य एवं निर्विवाद है। सभी निष्पक्ष व अपनी उन्नति की इच्छा करने वाले मनुष्यों को सत्यार्थप्रकाश एवं वेदों का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। इससे वह धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग पर चलकर इन्हें प्राप्त हो सकते हैं। यही श्रेष्ठ जीवन एवं प्राप्तव्य पदार्थ हैं जिनकी प्राप्ति वेद धर्म के पालन से होती है। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य