बाबू वीर कुंवर सिंह का राष्ट्रवादी नायकत्व

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13 नवम्बर, बाबू वीर कुँवर सिंह की जयंती पर विशेष
पावन त्याग और अतुलित बलिदान की यशोभूमि का नाम है  भारत वर्ष। शिशु अजय सिंह के बलिदान, साहिबजादा जोरावर सिंह व साहिबजादा फतेह सिंह का प्राणोत्सर्ग, शिशु ध्रुव के तप, शिशु प्रह्लाद की भक्ति, शिशु कृष्ण की बाललीला और वयोवृद्ध फौलादी बाबू वीर कुँवर सिंह की युद्धनीति तथा राष्ट्रवादी भावना का इतिहास में कोई सानी नहीं है।
महाकाल की धार्मिक नगरी उज्जैन में पहले परमार वंश का सुशासन था। महाराज विक्रमादित्य की 58 वीं पीढ़ी के वंशज महाराज गणेश शाही के सुपुत्र राजा संतन शाही अपने यशश्वी पूर्वजों का पिंडदान (श्राद्ध) करने 14वीं शताब्दी के मध्य में ‘गया’ (बिहार) आए थे और वर्तमान भोजपुर (राजा भोज के वंशज होने के कारण यह नाम रखा गया) में बस गए और फिर डुमरांव राज्य की स्थापना की। राजा संतन शाही की सातवीं पीढ़ी के वंशज बाबू सुजान सिंह ने जगदीशपुर राज्य की नींव रखी और इनकी तीसरी पीढ़ी में बाबू साहबजादा सिंह हुए।
ईस्ट इंडिया कम्पनी ब्रिटिश महारानी से आदेश लेकर सन् 1600 ई. में व्यापार करने भारत आई थी। फूट डालो और राज करो की नीति अपनाकर दुनिया में इतना विस्तार की कि इनके राज्य में सूर्य नहीं डूबता था। ऐसी ब्रिटिश हुकूमत के करपाश में फँसकर बाबू साहबजादा सिंह भी व्याकुल थे। ये बहुत ही वीर, स्वाभिमानी एवं उदार व्यक्तित्व के स्वामी थे। इनका विवाह राजकुमारी पंचरतन कुँवर के साथ हुआ था। 13 नवम्बर सन् 1777 ई. में इनके घर एक शिशु का जन्म हुआ जिसने बाबू वीर कुँवर सिंह के नाम से इतिहास की परम्परागत धारा को वृद्धावस्था में मोड़ दिया। ये चार भाई थे। बाबू अमर सिंह भाइयों में सबसे छोटे थे और साये की तरह इनके साथ कदम से कदम मिलाकर चलते थे।
बालक कुँवर सिंह अंग्रेजी हुकूमत के खूनी पंजें में जकड़े हुए देश को देख रहा था। ऐसे में यह राजकुमार न पाठशाला गया न इसे विद्यालयी शिक्षा रास आई। भविष्य के आगत संघर्ष को भाँपते हुए घुड़सवारी, तलवारबाजी, कुश्ती एवं निशानेबाजी में दक्षता हासिल करते हुए घर पर ही हिंदी, संस्कृत और फारसी का ज्ञान प्राप्त कर लिया। पिता की ही भाँति जाति, क्षेत्र और धर्म को मानवता के आड़े नहीं आने दिया जिसका परिणाम हुआ कि न केवल बिहार का भागलपुर और गया बल्कि उत्तर प्रदेश के पड़ोसी जनपदों में भी इनकी यशोकीर्ति बढ़ती गई।
पिता महाराज की मृत्यु के उपरान्त सन् 1827 ई. में बाबू कुँवर सिंह का राज्याभिषेक किया गया। 50 वर्ष की अवस्था में उनका राज्याभिषेक तलवार की धार पर चलने जैसा था। फिरंगी हुकूमत की मनमानी और राज्य संचालन में दिनोदिन बढ़ता हस्तक्षेप कुँवर के हृदय में काँटे की तरह चुभता था। इसके बावजूद भी ये अंग्रेजों से मधुर सम्बंध का दिखावा करते थे और जनकल्याण से सम्बंधित जटिल से जटिल कार्य चुटकियों में करा लेते थे। राज्य की मूल आवश्यतकता के अनुरूप कई पाठशालाएँ एवं मकतब बनवाये। कुएँ, जलाशय एवं तालाब खुदवाए तथा आरा-जगदीशपुर एवं आरा-बलिया मार्ग का भी निर्माण करवाया। इनके राज्य में न सिर्फ हिंदू बल्कि मुसलमानों को भी योग्यतानुसार पद प्राप्त थे। इब्राहिम खाँ एवं लियाकत अली इनकी सेना में उच्च पदों पर कार्य करते थे तो मैकू सिंह सेनापति के पद पर आसीन थे। नारी जाति की इज्जत करना इनके संस्कार का हिस्सा था। एक नर्तकी से इन्हें प्रेम हो गया तो ब्रह्मेश्वर मंदिर में विवाह रचाकर उसको पत्नी का सम्मानित दर्जा दिए। पीर अली को अंग्रेजों द्वारा अन्याय पूर्वक फाँसी दी गई तो इन्होनें अंग्रेजों के विरोध के बावजूद पीर अली की मजार बनवाई। ये किसानों के साथ सच्ची सहानुभूति रखते थे। लगान न दे सकने की दशा में माफ कर देते और अंग्रेजी हुकूमत की नाराजगी झेलते। छत्रपति शिवाजी को प्रेरणास्रोत मानते हुए उनकी गोरिल्ला युद्धनीति के अनुसार यहाँ सैन्य प्रशिक्षण भी होता था।
भारत का गवर्नर जनरल बनकर लॉर्ड हार्डिंग सन् 1844 ई. में आया। यहाँ आने वाला हर फिरंगी अफसर पहले वाले की अपेक्षा अधिक कुटिल व अत्याचारी होता था। इसने भी अत्याचार को बढ़ावा ही दिया। न केवल राजाओं में बल्कि आम जनता में भी शासन के खिलाफ विद्रोह की भावना अँगड़ाई लेने लगी थी। बिहार का सोनपुर का मेला ऐसे लोगों के लिए सुरक्षित स्थान था। भागलपुर, गया के जमींदार खुशिहाल सिंह (बाबू खुशहाल सिंह के दो पुत्रों को फाँसी हुई थी और शेष दो पुत्र युद्धभूमि में शहीद हुए थे) और आरा के लोग भी गुप्त मन्त्रणा के लिए मेले में आते थे। यहीं से बाबू कुँवर सिंह जो उम्र के आठवें दशक में पदार्पण कर चुके थे, सर्वसम्मति से क्रांतिकारी दल के नेता मान लिए गए।
अपने सीमित संसाधनों एवं मुट्ठी भर सैन्यबल के बावजूद भी गुलामी की कारा को तोड़ने का विचार दृढ़ होता जा रहा था। बूढ़ी धमनियों में क्षत्रित्व का लहू उबाल मार रहा था लेकिन अपनी सीमाओं का भी ख्याल था। अन्तत: इस जाँबाज ने शिवाजी के युद्ध कौशल को आजमाने का निर्णय लिया और लोगों को संगठित करने में रात- दिन एक करने लगे।
सन् 1848 से 1856 तक लॉर्ड डलहौजी भारत का गवर्नर जनरल बनकर रहा। इसने आते ही कई अमानवीय फैसले थोपे। राज्यों को हड़पने के लिए इसने छल और बल लगाकर “हड़प नीति” लागू करने की कोशिश की। हड़प नीति के अनुसार “जिस राज्य में राजा का अपना पुत्र न हो वह राज्य राजा के बाद अंग्रेजों के आधीन हो जाएगा।” झाँसी सहित देश के कई राज्यों में अंग्रेजी हुकूमत के प्रति नफरत और विद्रोह की भावना पनपने लगी। सोया राष्ट्रवाद पुनः जागने के लिए मचलने लगा। दूसरी ओर भारत का गवर्नर जनरल बनाकर डलहौजी से भी खतरनाक लॉर्ड केनिंग की भारत में तैनाती हुई।
मौसम जाड़े से निजात पाकर ग्रीष्म की ओर बढ़ रहा था। फिरंगियों की गंदी करतूतें कानाफूसी के जरिए सैनिकों के हृदय में आग धधका रही थी। कारतूस की खोल गाय और सुअर की चर्बी से बनी है, ऐसी चर्चा धुएँ की तरह फैल रही थी। बैरकपुर छावनी में 29 मार्च सन् 1857 को सैनिक मंगल पांडे ने खूनी विद्रोह कर दिया। आग में घी का काम किया समय से पूर्व 8 अप्रेल 1857 को मंगल पांडे को फाँसी का दिया जाना। यह खबर पूरे देश में फैलने लगी। परिणाम यह हुआ कि मात्र दो दिन बाद 10 अप्रेल 1857 को मेरठ छावनी में सोनिकों ने न केवल विद्रोह किया बल्कि राजधानी दिल्ली की ओर कूच भी कर दिए। अंग्रेजों के लिए यह सब अप्रत्याशित था। जब तक वे समझ पाते, विद्रोही सैनिक दिल्ली पहुँच चुके थे और 11 मई को बहादुर शाह जफ़र को भारत का बादशाह घोषित कर ताजपोशी कर दी गई।
हमारे देश के वीर सपूत जिस ओर भी जाते, लाल-लाल लट्टुओं की तरह अंग्रेज चक्कर खाने लगते। हमारे वीरों के शौर्य को देखकर फिरंगी रास्ता छोड़कर भाग जाते। इस तरह क्रांति की ज्वाला देश व्यापी होने लगी। क्रांतिकारी अंग्रेजों की जेलों को तोड़कर कैदियों को आजाद करा लेते, फिर ये कैदी भी काफिले में जुड़ जाते। कारवाँ बड़ा और व्यापक होता जाता। सैनिक विद्रोह अब राजाओं/ जमींदारों की बगावत बनता जा रहा था। कमोबेश जनता भी जुड़ती जा रही थी। जगदीशपुर में घटी एक दुखदाई घटना ने इनके सब्र के बाँध को यकायक तोड़ दिया। हुआ यह कि कुछ ग्रामीण औरतें नदी में स्नानादि करने गई हुईं थीं। कायर अंग्रेजों ने घात लगाकर महिलाओं की इज्जत के साथ खेलना चाहा कि संयोगवश कुँवर सिंह वहाँ पहुँच गए। गोरों को हाथ आए अवसर को खोने का गम था तो कुँवर सिंह की लपलपाती तलवार कापुरुषों के खून की प्यासी हो गई। इस घटना ने वीर कुँवर सिंह और अंग्रेजी हुकूमत के बीच खुली दुश्मनी का ऐलान कर दिया।
विद्रोह की लपटों से बिहार भी अछूता नहीं रहा। 12 जून 1857 को देवघर जिले के रोहिणी गाँव के सैनिक भी साहस का परिचय देते हुए विद्रोह कर दिए। बिहार का वीरोचित सुप्त ज्वालामुखी भड़क उठा। न सिर्फ युवा भुजाओं में भूचाल था बल्कि अस्सी साल का वयोवृद्ध नौजवान बाबू कुँवर सिंह की भुजाएँ फड़कने लगी थीं। सोन मेले में हुई मन्त्रणा अमली जामा पहनने को लालायित थीं। आरा-भागलपुर-गया अपनी उत्तेजना को बाबू साहब का आदेश मिलने तक काबू में रखा था। वर्षा की शुरुआत के साथ 25 जुलाई सन् 1857 को दानापुर की सैनिक टुकड़ी ने भी बाबू हरकिशन सिंह और रंजीत राम की अगुवाई में विद्रोह कर दिया। अंग्रेजी सेना के इन भारतीय सैनिकों में भी भारत माता का लहू उबाल मारने लगा। ये सैनिक अपने जननेता बाबू कुँवर सिंह की जयकार करते हुए विशाल सोन नदी को नाले की तरह रौंदते हुए आरा आ गए और अंग्रेजों पर टूट पड़े। बाबू कुँवर सिंह ने भी रणभेरी फूँक श्वेत घोड़े को एड़ लगा दी। कायर अंग्रेज भागने लगे और 27 जुलाई को बिना अधिक खून- खराबे के सारे कैदियों को आजाद करके आरा में यूनियन जैक को जमींदोज कर केसरिया ध्वज लहराने लगा।
हमारे रण बाँकुरे आरा विजय की खुशियाँ मना ही रहे थे कि विषधर अंग्रेज फुँफकार उठे। 29 जुलाई को कैप्टन डनवर 500 यूरोपियन और हिंदुस्तानी फौज के साथ आरा आ धमका। अब कुँवर सिंह लगातार युद्धनीति को बदलने लगे और छापामार गोरिल्ला युद्धनीति से अंग्रेजी सेना को मजा चखाने लगे। इस युद्ध में कैप्टन डनवर मारा गया। विसेंट आयर की निगरानी में एक सेना की टुकड़ी इलाहाबाद जा रही थी। हार की खबर पाकर बक्सर से आरा-जगदीशपुर की ओर मुड़ गई। बाबू कुँवर सिंह द्वारा कराया गया वृक्षारोपण जंगल का रूप लेकर उनके लिए कवच बन गया था और अंग्रेजों के लिए भूल भुलैया। जंगल के गोपनीय रास्तों से अंग्रेज अनजान थे। बीबीगंज और बिहिया में घमासान युद्ध हुआ। फिरंगियों का सैन्यबल बहुत अधिक था अतः उस समय उनसे पार पाना समय गँवाने जैसा था इसलिए बाबू कुँवर सिंह अपने छोटे भाई के साथ जगदीशपुर से बाहर निकल आए। तत्पश्चात् अपने भाई बाबू अमर सिंह को जगदीशपुर की सुरक्षा का दायित्व सौंपकर उत्तर प्रदेश की ओर प्रस्थान किए। नोखा से होते हुए रामगढ़ आने पर इनके साथ में रामगढ़ की सेना भी जुड़ गई। इनका लक्ष्य अब न केवल जगदीशपुर बल्कि समस्त भारत से फिरंगियों को भगाना हो गया था। अब इरादा व्यापक राष्ट्रवादी हो गया था। इन्होंने समस्त भारतवर्ष के राजाओं का इस स्वातन्त्र्य समर में भाग लेने हेतु आह्वान भी किया। कानपुर, झाँसी, सतारा, कालपी, लखनऊ  सहित शंकरपुर गढ़ के बाबू बेनी माधव सिंह (इनके सगे रिश्तेदार जिन्होंने 18 महीने तक फिरंगियों को अपने गढ़ में फटकने नहीं दिया था) ने भी युद्ध का बिगुल फूँक दिया। शंकरपुर गढ़ का यह रण बाँकुरा वाजिद अली शाह की ओर से उल्लेखनीय युद्ध लड़ा।
बिहार से उत्तर प्रदेश में बनारस, मिर्जापुर, सोनभद्र, इलाहाबाद से रीवाँ होते हुए वीर कुँवर सिंह बाँदा पहुँचे। वहाँ से कालपी होते हुए लखनऊ आए। उसके बाद श्रीराम नगरी अयोध्या और फिर कानपुर पहुँचे। कानपुर में गोरों के साथ घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में महाराज पेशवा की ओर से बाबू कुँवर सिंह डिविजनल कमांडर के तौर पर युद्ध का सफलता पूर्वक संचालन किए। 29 नवम्बर 1857 के स्वर्णिम दिन में कानपुर में पेशवा के केसरिया ध्वज ने यूनियन जैक को रौदकर विजय हासिल की। ताट्या तोपे जैसा जाँबाज इस वृद्ध सरफरोश जी जाँबाजी को देखकर नतमस्तक हो गया। नाना साहब पेशवा सिंहासनारूढ़ हुए और बाबू कुँवर सिंह पुनः अपने अगले लक्ष्य अयोध्या की ओर बढ़े।
घाघरा नदी के एक तट पर अली करीम 300 सैनिकों के साथ आ मिला तो दूसरे तट पर उनके भतीजे 1800 सैनिकों के साथ आ मिले। लखनऊ में बेगम हजरत महल ने इनका जोरदार स्वागत करते हुए “राजा” कहकर सम्बोधित किया। बेगम साहिबा ने बाबू साहब से यह भी वादा लिया कि आजमगढ़ की आन अब इनके हवाले है। वादा पूरा करते हेतु यह वीर आजमगढ़ का अतरौलिया युद्ध बहुत मजबूती के साथ लड़ा। फिरंगियों के छक्के छूटने लगे। 22 मार्च 1858 के दिन कर्नल मिलमैन को पीठ दिखाकर यहाँ से भागना पड़ा और इस तरह यूनियन जैक यहाँ भी धूल धूसरित हुआ। बाबू वीर कुँवर सिंह और भारत माता की जयकारों से गगन गूँज उठा।
आजमगढ़ की पराजय ने गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग को झकझोर कर रख दिया। जिसके राज में सूर्य नहीं डूबता था उस सूर्य को आजगढ़ में एक वृद्ध योद्धा द्वारा ग्रहण लग चुका था। लॉर्ड केनिंग पूरी ताकत झोककर भी आजमगढ़ का बदला लेना चाहता था। उसने कड़ी सैनिक कार्यवाही के आदेश दिए। इलाहाबाद से लॉर्ड कार्क और लखनऊ से ऐडवर्ड लुगार्ड ने अपनी- अपनी सेनाओं के साथ आजमगढ़ का रुख किया। वक्त की नजाकत को समझते हुए कुँवर सिंह ने अपनी सेना को दो भागों में बाँट दिया। एक टुकड़ी को आजमगढ़ की सुरक्षा में लगाकर, दूसरी टुकड़ी को अपने साथ लेकर गाजीपुर की ओर निकल आए। आजमगढ़ की सैन्य टुकड़ी को यह सख्त आदेश था कि जब तक कुँवर बाबू और उनके सिपाही पर्याप्त दूर न निकल जाएँ तब तक अंग्रेजों को पुल के पहले छोर पर ही रोककर रखना है चाहे लहू का कतरा कतरा ही क्यों न बहाना पड़े। ऐसा ही हुआ। समुचित जानकारी के बाद अचानक कुँवर-फौज पुल छोड़कर लापता हो गई और फिरंगी-फौज भौचक। फिरंगी यह भी नहीं समझ पाये कि भूखा शेर पुनः शिकार के लिए घात लगाकर आगे बैठा है। लुगार्ड को इसकी भनक लग गई और उसने ब्रिगेडियर डगलस को कुँवर सिंह के पीछे विशाल सैन्यबल के साथ लगा दिया। 17 अप्रेल को डगलस ने जोरदार आक्रमण किया लेकिन लगातार बदलती युद्धशैली से वह इस बार भी न केवल चूक गया बल्कि उसे काफी नुकसान भी झेलना पड़ा। बाबू साहब 20 अप्रेल को गाजीपुर के मन्नाहार गाँव में भव्य स्वागत समारोह में शामिल हुए।
इस गाँव के सहर्ष सहयोग से पर्याप्त नावों की व्यवस्था हुई और  खबर फैलाई गई कि 21 अप्रेल को बलिया से राजा साहब हाथी की सवारी करते हुए सेना सहित गंगा पार करेंगे। खबर मिलते ही बड़ी सेना के साथ डगलस बलिया में डेरा डालकर आने की प्रतीक्षा कर रहा था। इधर कुशाग्र बुद्धि के स्वामी बाबू कुँवर सिंह 22 अप्रेल को वहाँ से 7 मील दूर स्थित शिवपुर घाट पर आ पहुँचे। पहले अपने बहादुर जाँबाजों को नावों से गंगा पार करने का हुक्म दिए।जब सारी सेना तट छोड़कर आगे जा चुकी थी तब अंतिम नाव पर राजा साहब सवार होकर ज्यों ही आगे बढ़े कि डगलस मय सेना तट पर आ धमका। कायर ब्रिगेडियर डगलस के बंदूक से निकली गोली बाबू कुँवर सिंह की दाहिनी कलाई को भेदते हुए निकल गई। उस अद्भुत शेर ने पीछे मुड़ना नहीं सीखा था। वह हाथ बेकार होकर बाधक बन रहा था। इस अद्वितीय रण बाँकुरे ने अपने हाथ में तलवार लेकर जोरदार वार किया और घायल हाथ को माँ गंगा को समर्पित कर आगे बढ़ गया। दुनिया के इतिहास में ऐसी घटना न घटी थी और न घटेगी। ब्रिगेडियर डगलस हक्का- बक्का देखता रह गया।
पुन: बिहार पहुँचकर 2300 किलोमीटर की दुरूह यात्रा करके, छः युद्ध लड़कर और एक भुजा खोकर भी यह बहादुर योद्धा लीग्रैंड के सेनापतित्व वाली अंग्रेजी सेना से जा भिड़ा। इस अंतिम निर्णायक लड़ाई में 23 अप्रेल सन् 1858 को जगदीशपुर में केसरिया ध्वज के चरणों में यूनियन जैक को लेटना पड़ा। अंग्रेज पराजित होकर भाग गए। घायल शेर बाबू कुँवर सिंह ने विजयश्री को गले लगाया।
फौलादी हौसले का साथ अब घायल शरीर नहीं दे पा रहा था। गोली का जहर आहत जिस्म में फैलकर काया को निष्प्राण करने लगा था। इस शेर को विश्वास था कि इसके अनुज बाबू अमर सिंह के रहते हुए यह क्रांति ठंडी नहीं पड़ने वाली। भाई अमर सिंह से सुरक्षा का आश्वासन पाकर 26 अप्रेल सन् 1858 को यह शेर अनूठा इतिहास रचकर सदा के लिए सो गया। इस अपराजेय योद्धा के महाप्रस्थान के उपरान्त ही फिरंगियों ने चैन की साँस ली।
सन् 1857/58 के काल खंड को जब इतिहास सैनिक विद्रोह बताता है तो यह कहने में कोई गुरेज नहीं होना चाहिए कि अंधे इतिहास ने इस महान योद्धा और भारत माता के सपूत को ठीक से देखा ही नहीं। सैनिक विद्रोह से शुरु हुई क्रांति राजाओं/जमींदारों से होती हुई जनक्रांति का रूप ले ली थी। यह जनक्रांति फिरंगियों के खिलाफ पूरे भारत में फैल गई थी। वीर सावरकर ने भी “1857 का स्वातन्त्र्य समर” में डंके की चोट पर इसकी पुष्टि की है। इसको जनक्रांति बनाने में बाबू कुँवर सिंह का योगदान सर्वप्रमुख था। इन्होंने अपने राज्य की सुरक्षा का मोह त्यागकर मध्यभारत के विभिन्न राज्यों में क्रांति का विगुल फूँका था। तभी तो इतिहासकार डॉ रामसरण ने इन्हें राष्ट्रीय एकता का प्रतीक माना है। सावरकर जी ने इन्हें 1857 के स्वातन्त्र्य समर का महानायक कहा है। इन्होंने अंग्रेजों से एक – दो नहीं बल्कि नौ महीनों में सात युद्ध लड़ा। इनकी जाँबाजी से हतप्रभ ब्रिटिश इतिहासकार होम्स ने लिखा, “उस बूढ़े राजपूत ने ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध अद्भुत वीरता और आन बान के साथ लड़ाई लड़ी। यह गनीमत थी कि युद्ध के समय कुँवर सिंह की उम्र 80 के करीब थी। अगर वे जवान होते तो शायद अंग्रेजों को सन् 1857 में ही भारत छोड़ना पड़ता।” आज का वर्तमान ऐसे वीर सपूत को अतीत में जाकर नमन करता है।
डॉ अवधेश कुमार अवध
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