नवरात्रों में देवी पूजा और पौराणिक परंपरा
आम तौर पर आयातित विचारधारा के लोग आपको सिखायेंगे कि धार्मिक पाबंदियां सभी की सभी स्त्रियों पर ही लागू होती हैं | लेकिन अगर आप आजीवन बड़े शहरों में नहीं रहे हैं, कस्बों-गावों में आना जाना है तो आपको पता होगा कि असलियत इसकी उल्टी है | ज्यादातर लोक परम्पराओं में पुरुषों पर निषेध लागू होता है |
कई त्योहारों में घर के आँगन में आने पे पाबन्दी होती है | वो इलाका अघोषित रूप से स्त्रियों का हो जाता है | शाम में अगर घर में दिया जलता हो तो वो आप नहीं जला सकते, आपके घर की काम वाली बाई जला दे तो चलेगा, आप पुरुष हैं, आप नहीं जलाएंगे | किसी काली मंदिर में पुरुष लाल चुन्नी या दुर्गा मंदिर में अकेले हों तो लाल कपड़ा नहीं चढ़ा सकते | ऐसे ही कई मंदिर भी हैं जहाँ पुरुषों का प्रवेश मना है |
जैसे स्त्रियों के लिए हनुमान के विग्रह को छूने से मनाही होती है वैसे ही पुरुषों के लिए दुर्गा की, काली की प्रतिमाओं पर दिख जाएगी | ये स्त्रियों पर पाबन्दी का वहम फैलाना इसलिए आसान होता है क्योंकि आप अपनी धार्मिक परम्पराओं के बारे में सीखते नहीं | पिछली पीढ़ी ने भी सेकुलरिज्म का ढ़ोंग शुरू होने के बाद से सिखाना बंद कर दिया ! करीब चालीस पचास साल में, तीन पीढ़ियों के फर्क में हम इतने मूर्ख हो गए कि हमें ठगा जा सके |
ये बिलकुल वैसा ही है जैसा अगर आपसे पूछा जाए कि पूजा में क्या क्या लगता है तो आप अपने अंदाजे से बताना शुरू कर दें | आप सोचेंगे पंडित जी को क्या क्या मंगाते देखा था तो याद आएगा अक्षत(कच्चे चावल), तुलसी पत्ते, दूब (लम्बी घास), बेलपत्र | तो आप यही सब मंगवा कर पूजा करने की बात आराम से सोच सकते हैं | लेकिन यहाँ एक छोटी सी दिक्कत है |
नार्चयेदक्षतेर्विष्णु, न तुलस्यागनाधिपम।
न दुर्व्ययजेद्देवी, बिल्वपत्रें न भास्करं।
यानि कि विष्णु की पूजा में अक्षत, गणपति को तुलसी, देवी को दूर्वा और सूर्य देव को बिल्वपत्र वर्जित है !
तो जिन किन्हीं भी महानुभावों की सलाह पर आप गणपति के विग्रह को डुबो कर उसपर तुलसी लगाने जा रहे हों, उनकी सलाह मत मानिए | जैसे टीवी के ऊपर कोई मैगनेट-चुम्बक या स्पीकर (जिसमें अन्दर बड़ा सा चुम्बक होता है) रखना मना होता है, बिलकुल वैसा ही समझ लीजिये | श्री गणेश के पास तुलसी नहीं रखते |
#प्रथम
भारत ने सन 1998 की शुरुआत में जब पोखरण में पांच परमाणु विस्फोट किये तो कई अख़बारों ने पोखरण का जिक्र “शक्ति पीठ” के रूप में किया। विश्व के लिए ये कई कारणों से घबराने वाली घटना थी। एक तो उनके अनुसार जिसके पास परमाणु शोध की क्षमता ही नहीं होनी चाहिए थी, उसके पास भला परमाणु बम क्यों थे? दूसरा कि शक्ति के इस रूप में उपासना की कोई पद्दति होगी, ऐसा वो सोच ही नहीं पाए थे। उनकी ओर जो व्यवस्था संस्कृति या मजहबी तौर पर चलती थी, उसमें “स्त्री” उपास्य नहीं थी। देवी तो क्या, उनके पास कोई देवदूत भी स्त्री नहीं थी!
शाक्त परम्पराओं के लिए देवी की शक्ति के रूप में उपासना एक आम पद्दति थी। शक्ति का अर्थ किसी का बल हो सकता है, किसी कार्य को करने की क्षमता भी हो सकती है। ये प्रकृति की सृजन और विनाश के रूप में स्वयं को जब दर्शाती है, तब ये शक्ति केवल शब्द नहीं देवी है। सामान्यतः दक्षिण भारत में ये श्री (लक्ष्मी) के रूप में और उत्तर भारत में चंडी (काली) के रूप में पूजित हैं। अपने अपने क्षेत्र की परम्पराओं के अनुसार इनकी उपासना के दो मुख्य ग्रन्थ भी प्रचलित हैं। ललिता सहस्त्रनाम जहाँ दक्षिण में अधिक पाया जाता है, उतर में दुर्गा सप्तशती (या चंडी पाठ) ज्यादा दिखता है।
शाक्त परम्पराएं वर्ष के 360 दिनों को नौ-नौ रात्रियों के चालीस हिस्सों में बाँट देती हैं। फिर करीब हर ऋतुसन्धी पर एक नवरात्र ज्यादा महत्व का हो जाता है। जैसे अश्विन या शारदीय नवरात्री की ही तरह कई लोग चैत्र में चैती दुर्गा पूजा (नवरात्रि) मनाते भी दिख जायेंगे। चैत्र ठीक फसल काटने के बाद का समय भी होता है इसलिए कृषि प्रधान भारत के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है। असाढ़ यानि बरसात के समय पड़ने वाली नवरात्रि का त्यौहार हिमाचल के नैना देवी और चिंतपूर्णी मंदिरों में काफी धूम-धाम से मनाया जाता है। माघ नवरात्री का पांचवा दिन हम सरस्वती पूजा के रूप में मनाते हैं।
सरस्वती के रूप में उपासना के लिए दक्षिण में कई जगहों पर अष्टमी-नवमी तिथियों को किताबों की भी पूजा होती है। शस्त्र पूजा में भी उनका आह्वान होता है। बच्चों को लिखना-पढ़ना शुरू करवाने के लिए विजयदशमी का दिन शुभ माना जाता है और हमारी पीढ़ी तक के कई लोगों का इसी तिथि को विद्यारम्भ करवाया गया होगा। देवी जितनी वैदिक परम्पराओं की हैं, उतनी ही तांत्रिक पद्दतियों की भी हैं। डामर तंत्र में इस विषय में कहा गया है कि जैसे यज्ञों में अश्वमेघ है और देवों में हरी, वैसे ही स्तोत्रों में सप्तशती है।
तीन रूपों में सरस्वती, काली और लक्ष्मी देवियों की ही तरह सप्तशती भी तीन भागों में विभक्त है। प्रथम चरित्र, मध्यम चरित्र और उत्तम चरित्र इसके तीन हिस्से हैं। मार्कंडेय पुराण के 81 वें से 93 वें अध्याय में दुर्गा सप्तशती होती है। इसके प्रथम चरित्र में मधु-कैटभ, मध्यम में महिषासुर और उत्तम में शुम्भ-निशुम्भ नाम के राक्षसों से संसार की मुक्ति का वर्णन है (ललिता सहस्त्रनाम में भंडासुर नाम के राक्षस से मुक्ति का वर्णन है)। तांत्रिक प्रक्रियाओं से जुड़े होने के कारण इसकी प्रक्रियाएं गुप्त भी रखी जाती थीं। श्री भास्कराचार्य ने तो सप्तशती पर अपनी टीका का नाम ही ‘गुप्तवती’ रखा था।
पुराणों को जहाँ वेदों का केवल एक उपअंग माना जाता है वहीँ सप्तशती को सीधा श्रुति का स्थान मिला हुआ है। जैसे वेदमंत्रों के ऋषि, छंद, देवता और विनियोग होते हैं वैसे ही प्रथम, मध्यम और उत्तम तीनों चरित्रों में ऋषि, छंद, देवता और विनियोग मिल जायेंगे। इस पूरे ग्रन्थ में 537 पूर्ण श्लोक, 38 अर्ध श्लोक, 66 खंड श्लोक, 57 उवाच और 2 पुनरुक्त यानी कुल 700 मन्त्र होते हैं। अफ़सोस की बात है कि इनके पीछे के दर्शन पर लिखे गए अधिकांश संस्कृत ग्रन्थ लुप्त हो रहे हैं। अंग्रेजी में अभी भी कुछ उपलब्ध हो जाता है, लेकिन भारतीय भाषाओँ में कुछ भी ढूंढ निकालना मुश्किल होगा।
ये एक मुख्य कारण है कि इसे पढ़कर, खुद ही समझना पड़ता है। तांत्रिक सिद्धांतों के शिव और शक्ति, सांख्य के पुरुष-प्रकृति या फिर अद्वैत के ब्रह्म और माया में बहुत ज्यादा अंतर नहीं है। जैसा कि पहले लिखा है, इसमें 700 ही मन्त्र हैं (सिर्फ पूरे श्लोक गिनें तो 513) यानी बहुत ज्यादा नहीं होता। पाठ कर के देखिये। आखिर आपके ग्रन्थ आपकी संस्कृति, आपकी ही तो जिम्मेदारी हैं!
#नवरात्रि
✍🏻आनन्द कुमार
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