कृषि संबंधित तीन बिल मौजूदा किसान आंदोलन और मजदूर वर्ग

g84hcjqg_farmers-generic_625x300_05_February_19 (1)

– अभिनव

जून 2020 में मोदी सरकार ने कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन अध्‍यादेश पेश किये और सितम्‍बर 2020 में लोकसभा और राज्‍यसभा में काफ़ी हो-हल्‍ले के बीच उन्‍हें पारित कर दिया गया। अचानक सभी पूँजीवादी पार्टियाँ किसानों के पक्ष में खड़ी हो गयीं। यहाँ तक कि कुछ अनपढ़ “मार्क्‍सवादी” भी धनी किसानों व कुलकों के आन्‍दोलन के मंच पर ‘बेगानी शादी में अब्‍दुल्‍ला दीवाना’ के तर्ज़ पर अपना केंचुल नृत्‍य पेश करने लगे! शिरोमणि अकाली दल की सांसद व केन्‍द्र सरकार में मंत्री हरसिमरत कौर ने इस्‍तीफ़ा दे दिया और उनकी पार्टी ने भाजपा के साथ गठबन्‍धन पर “पुनर्विचार” की धमकी दे दी। संसदीय वामपन्थी भी कुलकों और धनी किसानों के सुर में सुर मिलाते हुए लाभकारी मूल्‍य को बचाने की इस कव्‍वाली में ताली पीटने लगे। कुछ तथाकथित “मार्क्‍सवादी”, पर असल में क़ौमवादी भी इस कव्‍वाली में ताल देने के लिए अपना “संघवाद” का ढोलक लेकर पहुँच गये। मतलब, अच्‍छी-ख़ासी भसड़ मच गयी।

इस सारी भसड़ में वे मुद्दे ग़ायब थे या पीछे हो गये थे, जिन पर खड़े होकर मज़दूर वर्ग और ग़रीब किसानों को इन अध्‍यादेशों/क़ानूनों का विरोध करना चाहिए। अधिकांश राजनीतिक शक्तियाँ इन अध्‍यादेशों के ज़रिये लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था के ख़त्‍म होने पर छाती पीट रही थीं, कुछ तथाकथित “मार्क्‍सवादी” भारत के संघीय ढाँचे पर मोदी सरकार के हमले और इन अध्‍यादेशों के ज़रिये “क़ौमी दमन” (??!!) पर स्‍यापा कर रहे थे, तो कुछ कृषि उत्‍पाद विपणन व्‍यवस्‍था यानी सरकारी मण्डियों के ख़त्‍म होने पर रो रहे थे। लेकिन असली सवाल ग़ायब थे। मौजूदा लेख में हम विस्‍तार से चर्चा करेंगे कि इन कृषि-सम्‍बन्‍धी अध्‍यादेशों से किन्‍हें लाभ होगा, किन्‍हें नुक़सान होगा, मौजूदा किसान आन्‍दोलन का वर्ग चरित्र क्‍या है, और क्‍या मज़दूर वर्ग इन अध्‍यादेशों के मज़दूर व ग़रीब-विरोधी प्रावधानों का विरोध गाँव के पूँजीपति वर्ग, यानी धनी किसानों व कुलकों के मंच से कर सकता है?

सबसे पहले इन तीन अध्‍यादेशों के मुख्‍य प्रावधानों पर ग़ौर कर लेते हैं।

कृषि-सम्‍बन्‍धी तीन अध्‍यादेश: इन अध्‍यादेशों में क्‍या है?

इन तीनों अध्‍यादेशों के प्रावधानों में सबसे प्रमुख यह है कि सरकार ने खेती के उत्‍पाद की ख़रीद के क्षेत्र में, यानी खेती के उत्‍पाद के व्‍यापार के क्षेत्र में उदारीकरण का रास्‍ता साफ़ कर दिया है। पहले अध्‍यादेश यानी ‘फार्म प्रोड्यूस ट्रेड एण्‍ड कॉमर्स (प्रमोशन एण्‍ड फैसिलिटेशन) ऑर्डिनेंस’ का मूल बिन्‍दु यही है। अब कोई भी निजी ख़रीदार किसानों से सीधे खेती के उत्‍पाद ख़रीद सकेगा, जो कि पहले ए.पी.एम.सी. (एग्रीकल्‍चरल प्रोड्यूस मार्केटिंग कमिटी) की मण्डियों में सरकारी तौर पर निर्धारित लाभकारी मूल्‍य पर ही कर सकता था। यानी, खेती के उत्‍पादों की क़ीमत पर सरकारी नियंत्रण और विनियमन को ढीला कर दिया गया है और उसे खुले बाज़ार की गति पर छोड़ने का इन्‍तज़ाम कर दिया गया है।

धनी किसानों व कुलकों को डर है कि इसकी वजह से उन्‍हें सरकार द्वारा तय मूल्‍य सुनिश्चित नहीं हो पायेगा और कारपोरेट ख़रीदार कम क़ीमतों पर सीधे खेती के उत्‍पाद की ख़रीद करेंगे। हो सकता है कि ये शुरू में अधिक क़ीमतें दें, लेकिन बाद में, अपनी इजारेदारी क़ायम होने के बाद, ये किसानों को कम क़ीमतें देंगे। सरकार ने इन सरकारी मण्डियों और लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था को औपचारिक तौर पर ख़त्‍म नहीं किया है, लेकिन इसका नतीजा यही होगा कि ये मण्डियाँ कालान्‍तर में समाप्‍त हो जायेंगी या वे बचेंगी भी तो उनका कोई  ज्‍़यादा मतलब नहीं रह जायेगा। वजह यह है कि इन मण्डियों के बाहर व्‍यापार क्षेत्रों में होने वाले विपणन में किसानों व व्‍यापारियों पर कोई शुल्‍क या कर नहीं लगाया जायेगा। नतीजा यह होगा कि लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था भी प्रभावत: समाप्‍त हो जायेगी, भले ही उसे औपचारिक तौर पर समाप्‍त न किया जाये।

इसलिए मौजूदा किसान आन्‍दोलन के केन्‍द्र में लाभकारी मूल्‍य का सवाल है और यही उसके लिए सबसे अहम मुद्दा है या कह सकते हैं कि उसके लिए यही एकमात्र मुद्दा है। इस पहले ही अध्‍यादेश में सरकारी मण्‍डी के बाहर होने वाली ख़रीद को तमाम करों व शुल्‍कों से मुक्‍त करने और विवाद के निपटारे की व्‍यवस्‍था के प्रावधान भी हैं, जिनका किसान संगठन विरोध कर रहे हैं। लेकिन इनका भी रिश्‍ता मूलत: यह सुनिश्चित करने से ही है कि लाभकारी मूल्‍य मिले।

मौजूदा आन्‍दोलन जो मुख्‍यत: हरियाणा और पंजाब में जारी है और कुछ हद तक तमिलनाडु और आन्ध्रप्रदेश में जारी है, उसकी मूल और मुख्‍य आपत्ति इस पहले अध्‍यादेश के प्रावधानों पर ही है, जो कि कृषि उत्‍पाद के व्‍यापार पर से ए.पी.एम.सी. मण्‍डी के एकाधिकार को समाप्‍त करता है। यह लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था को भी एक प्रकार से निष्‍प्रभावी बना देगा। इन दो राज्‍यों के अलावा, अन्‍य राज्‍यों में इस आन्‍दोलन का कोई ख़ास असर नहीं है या बेहद कम असर है। महाराष्‍ट्र के किसानों के संगठन जैसे कि शेतकरी संगठन के अनिल घनवत और स्‍वाभिमानी पक्ष के राजू शेट्टी ने इन अध्‍यादेशों का स्‍वागत किया है। सरकारी ख़रीद का 70 प्रतिशत से भी ज़्यादा हरियाणा और पंजाब से होता है। 2019-20 में ही 80,294 करोड़ रुपये का धान और गेहूँ लाभकारी मूल्‍य पर ख़रीदा गया था।

दूसरी चिन्‍ता जो कि इस पहले अध्‍यादेश से पैदा हुई है वह आढ़तियों की है। पंजाब में ही 28,000 से ज़्यादा आढ़ती हैं। इन्‍हें लाभकारी मूल्‍य के ऊपर 2.5 प्रतिशत का कमीशन मिलता है। पंजाब और हरियाणा में इस कमीशन से इन आढ़तियों ने पिछले वर्ष 2000 करोड़ रुपये कमाये हैं। अक्‍सर धनी किसान व कुलक ही आढ़ती व मध्‍यस्‍थ व्‍यापारी की भूमिका में भी होते हैं, सूदखोर की भूमिका में भी होते हैं, और निम्‍न मँझोले और ग़रीब किसानों से लाभकारी मूल्‍य से काफ़ी कम दाम पर उत्‍पाद ख़रीदते हैं और उसे लाभकारी मूल्‍य पर बेचकर और साथ ही कमीशन के ज़रिये मुनाफ़ा कमाते हैं।

इसके अलावा, राज्‍य सरकारों को भी ए.पी.एम.सी. मण्‍डी में होने वाली बिकवाली पर कर प्राप्‍त होता है, जैसे कि पंजाब में धान और गेहूँ पर 6 प्रतिशत, बासमती चावल पर 4 प्रतिशत और कपास और मक्‍का पर 2 प्रतिशत शुल्‍क लिया जाता है। पिछले वर्ष पंजाब सरकार को इससे 3500 से 3600 करोड़ रुपये का राजस्‍व प्राप्‍त हुआ था। पंजाब और हरियाणा के किसान संगठनों का कहना है कि यदि यह राजस्‍व प्राप्‍त नहीं होगा तो राज्‍य सरकार गाँव के अवसंरचनागत ढाँचे को बेहतर नहीं बना पायेगी और किसानों के लिए अपने उत्‍पाद की बिकवाली और परिवहन और भी मुश्किल हो जायेगा। लेकिन महाराष्‍ट्र के किसान संगठनों के नेताओं जैसे कि शेट्टी और घनवत का कहना है कि इस राजस्‍व से वैसे भी ग्रामीण अवसंरचनागत ढाँचे में कोई ख़ास निवेश नहीं होता था और इसके हट जाने पर भी निजी निवेशक कृषि उत्‍पाद के विपणन के तंत्र को चुस्‍त-दुरुस्‍त करने के लिए आवश्‍यक अवसंरचना में निवेश करेंगे क्‍योंकि यह उनके लिए भी ज़रूरी होगा।

दूसरी बात यह है कि सभी किसान संगठन ए.पी.एम.सी. मण्डियों के एकाधिकार ख़त्‍म होने पर अलग से आपत्ति नहीं कर रहे हैं बल्कि सिर्फ़ इसलिए आपत्ति कर रहे हैं क्‍योंकि यह लाभकारी मूल्‍य को सुनिश्चित करती थी। इसीलिए अखिल भारतीय किसान सभा के विजू कृष्‍णन ने स्‍पष्‍ट शब्‍दों में कहा कि सरकार यदि लाभकारी मूल्‍य को किसानों का क़ानूनी अधिकार बना दे ताकि कोई निजी ख़रीदार भी लाभकारी मूल्‍य देने के लिए बाध्‍य हो, तो उन्‍हें ए.पी.एम.सी. मण्‍डी के एकाधिकार के समाप्‍त होने से कोई दिक़्क़त नहीं है।

दूसरे अध्‍यादेश का नाम है ‘दि फार्मर्स (एम्‍पावरमेण्‍ट एण्‍ड प्रोटेक्‍शन) एग्रीमेण्‍ट ऑन प्राइस अश्‍योरेंस एण्‍ड फार्म सर्विसेज़ ऑर्डिनेंस’ जिसके अनुसार किसान अब अपने उत्‍पाद को ए.पी.एम.सी. मण्‍डी के लाइसेंसधारी व्‍यापारी के ज़रिये बेचने के लिए बाध्‍य नहीं हैं और साथ ही वे किसी भी कम्‍पनी, स्‍पॉन्‍सर, बिचौलिये के साथ किसी भी उत्‍पाद के उत्‍पादन के लिए सीधे क़रार कर सकते हैं। इसके लिए उन्‍हें ए.पी.एम.सी. के लाइसेंसधारी आढ़तियों या व्‍यापारियों के ज़रिये जाने की आवश्‍यकता नहीं है। इसके तहत उत्‍पादन शुरू होने से पहले ही उत्‍पाद की तय मात्रा, तय गुणवत्‍ता व क़िस्म तथा तय क़ीमतों के आधार पर किसान और किसी भी निजी स्‍पांसर, कम्‍पनी, आदि के बीच क़रार होगा। इस क़रारनामे की अधिकतम अवधि उन सभी उत्‍पादों के मामले में पाँच वर्ष होगी जिनके उत्‍पादन में पाँच वर्ष से अधिक समय नहीं लगता है। इसके ज़रिये अनिवार्य वस्‍तुओं के स्‍टॉक पर रखी गयी अधिकतम सीमा को भी हटा दिया गया है। यानी अब तमाम अनिवार्य वस्‍तुओं की जमाखोरी पर किसी प्रकार की रोक नहीं होगी, जोकि कालान्‍तर में इन वस्‍तुओं जैसे कि आलू, प्‍याज़ आदि की क़ीमतों को बढ़ा सकता है।

अपने आप में ठेका खेती के आने से आम मेहनतकश आबादी को कोई विशेष नुक़सान नहीं होने वाला है। छोटा और मंझोला किसान पहले भी ठेका खेती की व्‍यवस्‍था का शिकार था। फ़र्क़ बस यह था कि अभी तक ठेका खेती की व्‍यवस्‍था में उसे धनी किसान व आढ़ती लूट रहे थे। अब इस लूट के मैदान को बड़ी इजारेदार पूँजी के लिए साफ़ कर दिया गया है। इसके नतीजे अलग-अलग देशों और अलग-अलग प्रान्‍तों में अलग-अलग सामने आये हैं। पश्चिम बंगाल में पेप्‍सी कम्‍पनी के साथ आलू के उत्‍पादन की ठेका खेती में किसानों को प्रति किलोग्राम 5 रुपये तक ज़्यादा मिल रहे हैं। वहीं आन्ध्र प्रदेश में चन्‍द्रबाबू नायडू के मुख्‍यमंत्रित्‍व में जो ठेका खेती का मॉडल लागू किया गया, उसमें धनी और मंझोले किसानों को हानि हुई। ग़रीब व निम्‍न-मंझोला किसान तो पहले भी धनी व उच्‍च मध्‍यम किसानों द्वारा ठेका खेती व अन्‍य तरीक़ों से लूटा ही जा रहा था। वह अब बड़ी पूँजी द्वारा लूटा जायेगा। इसलिए ठेका खेती पर केन्द्रित इस दूसरे अध्‍यादेश से जो मूल परिवर्तन होने वाला है, वह केवल इतना है कि व्‍यापक ग़रीब व निम्‍न-मंझोले किसान के लूट की धनी किसानों, उच्‍च मध्‍यम किसानों व आढ़तियों द्वारा इजारेदारी ख़त्‍म हो जायेगी और खेती के क्षेत्र में कारपोरेट पूँजी के बड़े पैमाने पर प्रवेश के साथ धनी किसान, कुलक व फार्मरों के लिए प्रतिस्‍पर्द्धा करना मुश्किल हो जायेगा।

तीसरा अध्‍यादेश सीधे तौर पर आवश्‍यक वस्‍तु क़ानून में परिवर्तन करते हुए जमाखोरी और काला बाज़ारी को बढ़ाने की छूट देता है क्‍योंकि ये कई आवश्‍यक वस्‍तुओं की स्‍टॉकिंग पर सीमा को युद्ध जैसी आपात स्थितियों के अतिरिक्‍त समाप्‍त कर देता है। यह तीसरा अध्‍यादेश सीधे तौर पर मेहनतकश जनता के हितों के विरुद्ध जाता है। यह वह अध्‍यादेश है जो कि सीधे-सीधे आम मेहनतकश जनता को प्रभावित करता है और उसके वर्ग हितों को नुक़सान पहुँचाता है और जिसका विरोध किये जाने की सख्‍़त ज़रूरत है। लेकिन आप पायेंगे कि धनी किसानों व कुलकों के राजनीतिक संगठनों के नेतृत्‍व में जो मौजूदा किसान आन्‍दोलन जारी है, वह इस तीसरे अध्‍यादेश पर ज्‍़यादा कुछ नहीं बोल रहा है।

इन अध्‍यादेशों का रिश्‍ता सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल करने की माँग से भी जुड़ा हुआ है। केन्‍द्र सरकार पहले से ही इस कोशिश में है कि वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली की ज़िम्‍मेदारी से पूरी तरह से पिण्‍ड छुड़ा ले और यह ज़िम्‍मेदारी राज्‍य सरकारों पर डालने की वकालत कर रही है। ज़ाहिर है, इस प्रस्‍ताव का अर्थ ही यह है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को पूर्ण रूप से समाप्‍त कर दिया जाय जो कि व्‍यापक मेहनतकश आबादी की खाद्य सुरक्षा को समाप्‍त कर देगी। इसलिए समूचे मज़दूर वर्ग, अर्द्धसर्वहारा वर्ग तथा ग़रीब व निम्‍न मध्‍यम किसान वर्ग की एक माँग यह भी बनती है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली को सुचारू रूप से बहाल किया जाये।

लुब्‍बेलुबाब यह कि मौजूदा किसान आन्‍दोलन जिन वजहों से कृषि अध्‍यादेशों का विरोध कर रहा है, वह मूलत: और मुख्‍यत: लाभकारी मूल्‍य के सवाल पर केन्द्रित है। इसकी मुख्‍य चिन्‍ता यह है कि इन अध्‍यादेशों के साथ लाभकारी मूल्‍य की व्‍यवस्‍था समाप्‍त हो जायेगी। इसलिए मुख्‍य रूप से गाँव के लेकिन साथ ही शहर के मज़दूर वर्ग और अर्द्धसर्वहारा वर्ग और गाँव के ग़रीब किसान व अर्द्धसर्वहारा वर्ग के लिए प्रमुख प्रश्‍न यह बनता है कि लाभकारी मूल्‍य पर उसका क्‍या नज़रिया होना चाहिए। तथ्‍यों से सत्‍य का निवारण होता है और इसलिए हम सबसे पहले कुछ तथ्‍यों पर नज़र डालेंगे जिससे कि लाभकारी मूल्‍य के लाभार्थी वर्ग की सही पहचान हो सके।

Comment: