ऐसे दिग्भ्रमित करते हैं इतिहास में मिथक जोड़ जोड़ कर वामपंथी इतिहासकार
जब मुगलों ने पूरे भारत को एक किया तो इस देश का नाम कोई इस्लामिक नहीं बल्कि “हिन्दुस्तान” रखा , हाँलाकि इस्लामिक नाम भी रख सकते थे !
कौन विरोध करता ?
जिनको इलाहाबाद और फैजाबाद चुभता है वह समझ लें कि मुगलों के ही दौर में “रामपुर” बना रहा तो “सीतापुर” भी बना रहा!
अयोध्या तो बसा ही मुगलों के दौर में !
आज के वातावरण में मुगलों को सोचता हूँ और मुस्लिम शासकों को सोचता हूँ तो लगता है कि उन्होंने मुर्खता की!
होशियार तो ग्वालियर का सिंधिया घराना था!
होशियार तो मैसूर का वाडियार घराना था!
होशियार तो जयपुर का राजशाही घराना था!
होशियार तो जोधपुर का भी राजघराना था!
टीपू सुल्तान हो या बहादुरशाह ज़फर शायद यह सब बेवकूफ लोग थे, जो अपने मुल्क़ के लिए चिथड़े चिथड़े हो गए, किसी को देश की मिट्टी भी नसीब नहीं हुई और आज इन सबके वंशज भीख माँग रहे हैं!*
अँग्रेजों से मिल जाते तो वह भी अपने महल बचा लेते और अपनी रियासतें बचा लेते!*
वाडियार, जयपुर, जोधपुर, और सिंधिया राजघराने की तरह उनके भी वंशज आज ऐश करते!*
उनकी औलादें भी आज मंत्री और मुख्यमंत्री बनते!
यह आज का दौर है यहाँ “भारत माता की जय” और “वंदेमातरम” कहने से ही इंसान देशभक्त हो जाता है, चाहें उसका इतिहास देश से गद्दारी का ही क्युँ ना हो!
बहादुर शाह ज़फर ने जब 1857 के गदर में अँग्रैजों के खिलाफ़ पूरे देश का नेतृत्व किया और उनको पूरे देश के राजा रजवाड़ों तथा बादशाहों ने अपना नेता माना!
भीषण लड़ाई के बाद अंग्रेजों की छल कपट नीति से बहादुरशाह ज़फर पराजित हुए और गिरफ्तार कर लिए गये!
ब्रिटिश कैद में जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के कटे हुए सिर लेकर आए!
उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि “हिंदुस्तान के बेटे अपने देश के लिए सिर कुर्बान करके अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं”!
शायद बेवकूफ़ थे बहादुरशाह ज़फर, जिन्होंने अपने मुल्क़ के लिए खुद को और अपने जवान बेटों को कुरबान कर दिया, और आज उसका नतीजा कि उनकी औलादें भीख माँग कर गुज़ारा कर रहे हैं!
अपने मुल्क़ हिन्दुस्तान की ज़मीन में दफन होने की उनकी चाह भी पूरी ना हो सकी और रंगून के कैदखाने में ही अपनी आखिरी सांस ली, और फिर वर्मा की मिट्टी में दफन कर दिए गये!
अंग्रेजों ने उनकी कब्र की निशानी भी ना छोड़ी और मिट्टी बराबर करके फसल उगा दी, बाद में एक खुदाई में उनका वहीं से कंकाल मिला और फिर शिनाख्त के बाद उनकी क़ब्र बनाई गयी!
सोचिए कि आज “बहादुरशाह ज़फर” को कौन याद करता है ?
क्या मिला उनको देश के लिए अपने खानदान की कुर्बानी से ?
7 नवंबर 1862 को उनकी मौत हुई थी!
लेकिन क्या किसी ने कभी उनको श्रृद्धान्जली भी दी ?
क्या किसी ने उनको याद भी किया
क्या देश उनकी याद मनाता है?
नहीं…. किसी ने भी उनको श्रृद्धान्जली नहीं दी और उनको याद भी नहीं किया!
जानते हो क्यों याद नहीं करते?
क्योंकि वह मुस्लमान थे!
ऐसा इतिहास अगर देश के लिए बलिदान किसी संघी ने दिया होता तो अब तक सैकड़ों शहरों और रेलवे स्टेशनों का नाम उसके नाम पर हो गया होता!
लेकिन क्या उनके नाम पर कुछ हुआ ?
नहीं ना….
इसीलिए तो कह रहा हूँ कि उस समय अंग्रेजों से मिल जाना था !
अगर “बहादुरशाह ज़फर” ऐसा करते तो ना उन्हें क़ैद मिलती ना ही कैदखाने में मौत मिलती!
और ना ही यह ग़म लिखते जो उन्होंने रंगून के क़ैदखाने में लिखा था!
वह यह है!
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लगता नहीं है जी मेरा,
उजड़े दयार में!
किस की बनी है,
आलम-ए-नापायदार में!
बुलबुल को बागबां से,
न सय्याद से गिला!
किस्मत में क़ैद लिखी थी,
फसल-ए-बहार में!
कह दो इन हसरतों से,
कहीं और जा बसें!
इतनी जगह कहाँ है,
दिल-ए-दाग़दार में!
एक शाख़ गुल पे बैठ के,
बुलबुल है शादमान!
कांटे बिछा दिए हैं,
दिल-ए-लाल-ए-ज़ार में!
उम्र-ए-दराज़ माँग के,
लाये थे चार दिन!
दो आरज़ू में कट गये,
दो इन्तेज़ार में!
दिन ज़िन्दगी के ख़त्म हुए,
शाम हो गई!
फैला के पांव सोएंगे,
कुंज-ए-मज़ार में!
कितना है बदनसीब “ज़फर”,
दफ़्न के लिए!
दो गज़ ज़मीन भी न मिली,
कू-ए-यार में”