संविधान में सेकुलरवाद और अल्पसंख्यकवाद एक साथ नहीं चल सकते
प्रस्तावना : आजकल सी.ए.ए., एन.आर.सी., कोई भी विषय हो, विरोधीयों के नारे पहले लगने शुरू हो जाते है, ‘संविधान खतरेमे है, संविधान बचाओ’ ! डॉ. बाबासाहेब आंबेडकरजी की अध्यक्षता मे निर्मित जिस संविधान को पिछले सरकारों ने अपनी मनमर्जी से तोडा-मरोडा, असंवैधानिक रीती से संशोधित करने के पाप किए, वही आज संविधान बचाने की बात करे, यह बडा आश्चर्यजनक है । आज सरकार द्वारा कोई भी निर्णय लेनेपर तुरंत सर्वोच्च न्यायालय मे जनहित याचिकाओं की लाईन लग जाती है, तब क्या संविधान मे मनचाहा बदलाव करना, संभव है ? परंतु सामान्य जनता को भ्रमित करने के लिए यह नारे लगाए जाते है । संविधान सभा मे सेक्युलर शब्द जोडने पर विवाद होने के कारण संविधान मे अल्पसंख्य समुदाय के लिए विशेष प्रावधान किये गए । तदुपरांत जब इंदिरा गांधी ने सेक्युलर शब्द को संविधान मे जोड दिया, तो सरकार धर्म/पंथ के संदर्भ मे निरपेक्ष हो जाती है, और अल्पसंख्यकों के लिए किये यह प्रावधान अपनेआप ही निरस्त हो जाते है । लेकीन आज की स्थिती मे बडी विडंबना है की, हमारा संविधान एकही समय पर पंथनिरपेक्ष भी है और अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार भी देता है !
‘सेक्युलरवाद’ मूल संविधान का अंग नहीं!
26 नवंबर 1949 को पारीत किए गये संविधान की प्रस्तावना मे संविधान के मूल आदर्शों को भारत की जनता के शपथपूर्वक वचन के रूप मे प्रस्तुत किया गया । यह प्रस्तावना इस प्रकार है – ‘‘हम भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को…… आज 26 नवंबर 1949 को एतद संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते है ।’’ इस प्रस्तावना मे न तो सेक्युलर (पंथनिरपेक्ष) शब्द है, न ही समाजवादी शब्द है । जब संविधान सभा मे विभिन्न प्रस्तावों पे चर्चा हो रही थी, तब ‘सेक्युलर’ शब्द संविधान मे जोडने के संदर्भ मे विस्तृत चर्चा हुई है । प्रत्येक चर्चा के उपरांत इस शब्द को डॉ. आंबेडकर तथा जवाहरलाल नेहरु इन्होंने विरोध किया था । युरोपीय अवधारणा के अनुसार सेक्युलर शब्द का अर्थ था – ‘चर्च की आध्यात्मिकता और धर्म से संबद्ध न होनेवाला, तथा भौतिक जगत के विषयों से संबद्ध’ । इसके विपरीत भारत की मूल विचारधारा धर्म से जुडी होने के कारण सेक्युलर शब्द से भविष्य मे विवाद खडा होने आशंका से उन्होंने विचारपूर्वक इस शब्द को टाल दिया था ।
धर्म के आधार पर देश का विभाजन हुआ था और तुरंत भारत के नये संविधान का निर्माण हो रहा था । इस कारण संविधान सभा के कुछ सदस्य अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संदर्भ मे चिंता कर रहे थे व संविधान मे ‘सेक्युलर’ शब्द जोडने पर अडिग थे । इन सदस्यों के समाधान के लिए संविधान मे सेक्युलर शब्द न जोडकर मुस्लिम अल्पसंख्य समुदाय को सुरक्षित करने हेतु संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 मे धर्म को मानना, उसका आचरण तथा प्रचार करने की उन्हे स्वतंत्रता दे दी गई। इसके अतिरिक्त अनुच्छेद 29 मे उन्हे धार्मिक अल्पसंख्यक का दर्जा देकर उनके अधिकारों के रक्षण का विशेष अधिकार दिया । आगे के अनुच्छेद 30 मे इन्ही धार्मिक अल्पसंख्यकों के स्वतंत्र शिक्षासंस्थान निर्माण करने का भी अधिकार दिया गया । संविधान सभा के सदस्य प्रो. के.टी. शाह ने संविधान मे सेक्युलर शब्द जोडने का 3 बार प्रस्ताव लाया और हर बार डॉ. आंबेडकरजी ने वह टाल दिया । इसी संविधान सभा के उपाध्यक्ष श्री. मुखर्जी ने कहा, ‘‘भारत को सेक्युलर राज्य बनाने का आग्रह किया जा रहा है, तो फिर हम धर्म के आधार पर किसी समुदाय को धार्मिक अल्पसंख्यक की मान्यता व अधिकार नही दे सकते है ।’’
‘केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य – 1973’ इस मामले मे सर्वोच्च न्यायालय की 13 न्यायाधिशों की पीठ ने संविधान मे संशोधन के संदर्भ कहा की- संविधान के मूल ढांचे को क्षति पहुंचानेवाला संशोधन करने का अधिकार किसी भी सरकार को नही है ।
रमेश शिंदे
राष्ट्रीय प्रवक्ता : हिंदू जनजागृति समिति
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