प्राचीन युग में भारतीय-ध्वज का स्वरूप
गुंजन अग्रवाल
सनातन धर्म में ध्वज का स्थान बहुत ऊंचा है। भारतवर्ष में ध्वज का उपयोग सनातन काल से ही हो रहा है। वेदों की प्रसिद्ध उक्ति है –
अस्माकमिन्द्र: समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु।
अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँ उ देवा अवता हवेषु।। ऋग्वेद, 10-103-11, अथर्ववेद, 19-13-11
अर्थात्, हमारे ध्वज फहराते रहें, हमारे बाण विजय प्राप्त करें, हमारे वीर वरिष्ठ हों, देववीर युद्ध में हमारी विजय करवा दें। इस मंत्र में युद्ध के समय ध्वज लहराता रहना चाहिये, ऐसा वर्णन है। आर्यवीर ध्वज का ऐसा सम्मान किया करते थे। और भी दो-तीन मन्त्र देखिये –
उद्धर्षन्तां मघवन्वाजिनान्युद्वीराणां जयतामेतु घोष:।
पृथग्घोषा उलुलय: केतुमन्त उदीरताम्।। अथर्ववेद, 3.19.6
अर्थात्, हमारी सब सेनाएं उत्साहित हों, हमारे विजयी वीरों की घोषणाएं (आकाश में) गरजती रहें, अपने-अपने ध्वज लेकर आनेवाले विविध पथों की घोषणाओं का शब्द यहां निनादित होता रहे। यहां केतुमन्त: घोषा: यानी ध्वजों के साथ की हुई घोषणाएं, यह शब्द-रचना हमारी दृष्टि से महत्व की है। इससे यह स्पष्ट होता है कि घोषणा करते हुए आने वाली टुकडिय़ां ध्वज लेकर आया करती थीं। फिर कहा गया है – अमी ये युधमायन्ति केतून्कृत्वानीकश:। वही, 6.103.3 अर्थात्, ये वीर अपनी सेना की टुकडिय़ों के साथ अपने ध्वज लेकर युद्ध में उपस्थित होते हैं।
इस वर्णन से ज्ञात होता है कि प्रत्येक टुकड़ी के साथ एक ध्वज रहा करता था तथा उसके संरक्षण का भार उसी टुकड़ी पर होता था। संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवनीकार नारायण हरि पालकर ने भी लिखा है – पूर्वकाल में सेना की प्रत्येक टुकड़ी के साथ ध्वज रहता था और कभी-कभी उत्साह बढ़ाने के लिय प्रत्येक सैनिक ध्वज को धारण किया हुआ दिखता था। ऐसी जो ध्वजधारी टुकडिय़ां रहती थीं, उन्हें ध्वजिनी जैसे अर्थपूर्ण नाम से सम्बोधित किया जाता था। एक ध्वजिनी में 162 रथ, 162 हाथी, 486 घोड़े और 810 पैदल, अर्थात् कुल 1,620 संख्या रहती थी। इतने लोग ध्वज को रणक्षेत्र में ले जाते समय दोनों हाथ लडऩे के लिए मुक्त रखते थे। ध्वज लहराता रहे, इसकी कोई योजना बनाकर ही ले जाते होंगे। अथर्ववेद के एक मंत्र में बताया गया है कि सेना में ध्वज तथा दुदुंभि (नगाड़ा) दोनों साथ रहा करते थे, प्रामूं जयाभी3मे जयन्तु केतुमद्दुन्दुभिर्वावदीतु। समश्वपर्णा: पतन्तु नो नरोस्स्माकमिन्द्र रथिनो जयन्तु।। भगवा ध्वज, पृ.—30 अर्थात्, हमारी सेना की विजय हो, हमारे ये वीर विजय प्राप्त करें, जिसके पास ध्वज लहरा रहा है, ऐसी यह दुंदुभि बजती रहे, हमारे वीर घोड़ों के समान (वेग से) शत्रुओं पर टूट पड़ें तथा हमारे रथी विजयी हो जाएं।
अब प्रश्न यह उठता है कि अति प्राचीन युग में भारतीय-ध्वज का स्वरूप कैसा था ? ऋग्वेद में कहा गया है – अदृश्रमस्य केतवो वि रश्मयो जनाँ अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा।। अथर्ववेद, 6.126.3 अर्थात्, उगनेवाली सूर्य की रश्मियां, तेजस्वी अग्नि की ज्वालाएं (फड़कने वाले) ध्वज के समान दिखाई दे रही हैं। इस मंत्र से यह निश्चित होता है कि वैदिक आर्यों के ध्वज का आकार अग्नि-ज्वाला के समान था।
वेदों में कई स्थानों पर अग्नि-ज्वाला के आकारवाले ध्वज का वर्ण भगवा स्पष्ट किया गया है – अरुणै: केतुभि: सह। केतुं अरुषं यजध्यै। चित्ररथं ज्केतुं रुशन्तम्। दिवि न केतु: अधि धायि हर्यत: विव्यचत् वज्र:हरित:।। स्तवा हरी सूर्यस्य केतू।। अदृशं अस्य केतवो वि रश्मयो जनां अनु। भ्राजन्तो अग्नयो यथा।। एता उ त्या उषस: केतुं अक्रत। पूर्वे अर्धे रजसो भानुं अंजते।। पूर्वे अर्धे रजसो अप्त्यस्य गवां जनित्री अकृत प्र केतुम्। एता देवसेना: सूर्यकेतव: सचेतस:।
उपरोक्त मन्त्रों में अरुण, अरुष, रुशत्, हरित, हरी, अग्नि, रजसो भानु, रजस् और सूर्य – ये नौ शब्द ध्वज का वर्ण निश्चित करते हैं। हरित और हरी – इन शब्दों से हल्दी के समान पीला रंग ज्ञात होता है। सूर्य शब्द सूर्य का रंग बता रहा है। यह रंग भी हल्दी के समान ही है। अरुण रंग यह उषाकाल के सदृश कुल लाल रंग के आकाश का रंग है। अरुष तथा रुशत् – ये शब्द भी भगवे रंग के ही निदर्शक हैं। रजस तथा रजसो भानु – ये शब्द सूर्य किरणों से चित्रित धूल का रंग बता रहे हैं। इन मन्त्रों में ध्वज को अग्नि ज्वाला, विद्युत, उगता हुआ सूर्य तथा चमकनेवाला खंग – ये उपमाएं दी हुई हैं। इसमें निर्णायक उपमाएं रजसो भानुं तथा अरुण: – ये हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन पदों में निदर्शित रंग भगवा ही है। इन नौ पदों से यद्यपि भगवे रंग की न्यूनाधिक छटाएं बताई गई हैं, तथापि पीला तथा लाल – इन दो वर्णों के मिश्रण से होनेवाला और धूलसमूह के सदृश दिखाई देनेवाला रंग भगवा ही है।
अस्तु, सारांश यह है कि यज्ञ की ज्वालाओं के आकारवाला पवित्र भगवा ध्वज अति प्राचीन काल से, अर्थात् लाखों वर्षों से भारतवर्ष में फहरा रहा है। रामायणकाल में भी भगवान् श्रीराम का ध्वज भगवा (अरुण केतु) ही था। वेदों के महापण्डित पं. श्रीपाद दामोदर सातवलेकर ने लिखा है – श्रीराम का ध्वज अरुण केतु था। जब श्रीराम रावण से युद्ध करने के लिए तैयार हुए, तब इन्द्र ने अपना रथ तथा सारथी मातलि को श्रीराम के पास भेजा था। इन्द्र देवताओं के राजा थे, उनका ध्वज वेदवर्णित अरुण केतु ही था। महाभारत-युद्ध में अर्जुन का कपिध्वज भगवा ध्वज ही था। आद्य शंकराचार्य ने भारतवर्ष की चारों दिशाओं पर पांच धामों पर भगवा ध्वज ही फहराया था। बद्रीनाथ-मन्दिर पर प्रारम्भ से भगवा ध्वज ही है। सभी वैष्णव-मन्दिरों पर भगवे ध्वज ही रहते हैं। सभी योगमठ, आचार्य-मठ तथा सन्यासियों के मठों पर के ध्वज भगवे ही होते हैं। सन् 1336 से लेकर 1565 तक विजयनगर-साम्राज्य का ध्वज भगवा ही था। इसके पश्चात् सन् 1660 से छत्रपति शिवाजी के साम्राज्य का ध्वज भगवा ही रहा। यह साम्राज्य विखण्डित होने के बाद भी कोल्हापुर और सतारा के वंशधरों के प्रासादों पर यही ध्वज लहराता आया है। सन् 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. केशवराव बलिराम हेडगेवार ने इसी भगवा ध्वज को अंगीकार किया था।
पुराणों में देवताओं के झण्डों का वर्णन मिलता है। भविष्य महापुराण में उल्लेख मिलता है कि अत्यन्त प्राचीन काल में देवताओं और असुरों में जो भीषण युद्ध हुआ था, उसमें देवताओं ने अपने-अपने रथों पर जिन-जिन चिह्नों की कल्पना की, वे ही उनके ध्वज के प्रतीक यानी चिह्न बने। जिस देवता का जो वाहन होता था, प्राय: वही चिह्न ध्वजा पर भी अंकित हुआ। भगवान विष्णु के ध्वज पर गरुड़ (गरुड़ध्वज), भगवान् शिव के ध्वज पर बैल (वृषभध्वज), ब्रह्माजी की ध्वजा पर कमल, सूर्य की ध्वजा पर व्योम, चन्द्रमा की ध्वजा पर नर, कामदेव की ध्वजा पर मकर, देवराज इन्द्र और देवी दुर्गा की ध्वजा पर हाथी, रेवत की ध्वजा पर घोड़ा, वरुण देव की ध्वजा पर कछुआ, वायुदेव की ध्वजा पर हरिण, गणेश जी की ध्वजा पर चूहा, ब्रह्मर्षियों की ध्वजा पर कुश, अग्निदेव की ध्वजा पर भेड़, यमराज की ध्वजा पर भैंसा और देव सेनापति कार्तिकेय की ध्वजा पर मुर्गे का चिह्न था।
भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्रम् में युद्ध में देवताओं द्वारा दानवों के पराजित होने पर इन्द्र के विजयोत्सव में मनाये गये ध्वज-महोत्सव का उल्लेख मिलता है। इन्द्र ने दानवों को अपने ध्वज-दण्ड से ठोंक-पीटकर जर्जर कर दिया था। इसी कारण इन्द्र ध्वज का नाम जर्जर पड़ा। महाभारत में महाभारत-युद्ध में भाग लेनेवाले विभिन्न राजाओं के ध्वजों का वर्णन मिलता है। रायबहादुर चिंतामणि विनायक वैद्य ने लिखा है – रथ पर मन्दिर के समान अण्डाकार शिखर रहता था। प्रत्येक वीर की ध्वजा या पताका का रंग तथा उस पर का चिह्न अलग रहता था। इस चिह्न से दूर से ही पहचाना जाता था कि यह वीर कौन है। रथ पर ध्वज इस पद्धति से लगाए जाते थे कि अन्दर का योद्धा बाणों से आहत होने पर आपात् स्थिति में ध्वज का सहारा ले सकता था।
कालिदास ने लिखा है – शत्रुओं ने अज पर इतने अस्त्र बरसाए कि उनका रथ ढक गया। अतएव अज का पता उनके ध्वजाग्र मात्र से ही लगता था। महाभारत में उल्लेख है कि अर्जुन का भयंकर ध्वज वानर के चिह्न से सुशोभित था। उस वानर की पूंछ सिंह के समान थी और उसका मुख बड़ा ही उग्र था। आगे उल्लेख है कि अर्जुन का ध्वज एक योजन लम्बा था। वह ऊपर अथवा अगल-बगल में पर्वतों तथा वृक्षों में कहीं अटकता नहीं था। भगवान श्रीकृष्ण के ध्वज पर गरुड़ और बलराम के ध्वज पर हल का चित्र था। कौरवों एवं पाण्डवों के गुरु द्रोणाचार्य के रथ की ध्वजा पर स्वर्ण-कमण्डल, वेदी, धनुष और काले मृगचर्म का चित्र था। भीष्म पितामह के रथ की ध्वजा पर पांच तारों से युक्त ताड़ का पेड़ था। अंगराज कर्ण के ध्वज पर हाथी बांधने की चांदी की श्रृंखला बनी थी। कृपाचार्य के ध्वज पर सोने की वेदी और बैल का चित्र था। अश्वत्थामा के ध्वज पर धनुष और सिंह की पूंछ का चित्र था। दुर्योधन की ध्वजा पर नाग का चित्र अंकित था। धर्मराज युधिष्ठर की ध्वजा पर चन्द्रमा सहित अनेक ग्रहों के चित्र सुशोभित थे। सिंधुराज जयद्रथ के ध्वज पर चांदी के बने हुए वाराह का चित्र अंकित था। अभिमन्यु के ध्वज पर कर्णिकार वृक्ष और सारंगपक्षी का चित्र था। भीमसेन के ध्वज पर दहाड़ते हुए सिंह का चित्र था। महाबली घटोत्कच के ध्वज पर रथ के पहिए पर बैठे गिद्ध का चित्र था। सहदेव की ध्वजा में घंटा, पताका और चांदी के बने हंस का चित्र था। द्रौपदी पुत्रों की ध्वजाओं में क्रमश: धर्मराज, वायुदेव, इन्द्र और अश्विनीकुमारों के चित्र अंकित थे।
रुक्मिणीनन्दन प्रद्युम्न और शाल्व के ध्वज पर मकर का चिह्न था। कलिंग देश के राजा श्रुतायुध के ध्वज पर अग्नि का चिह्न था। द्रुपद-पुत्र धृष्टद्युम्न के रथ की ध्वजा पर कचनार वृक्ष का चित्र अंकित था। भूरिश्रवा के ध्वज पर यूप का चिह्न था। पाण्ड्य देश के राजा पाण्ड्य के ध्वज पर सागर का चित्र था। नरेश भोज के रथ की ध्वजा पर हाथी का चित्र था। शल्य के ध्वज पर सीता (हल से भूमि पर खींची गयी रेखा) का चित्र था। शल का ध्वज चाँदी के गजराज के चित्र से सुशोभित था। इसी तरह महाभारत में विभिन्न योद्धाओं के ध्वजों के रंगों का भी उल्लेख मिलता है। अर्जुन का कपिध्वज तो भगवे रंग का था ही। कर्ण और जयद्रथ की ध्वजा सफेद रंग की थी। कृपाचार्य की ध्वजा नीले रंग की थी। घटोत्कच और केकय राजकुमारों की ध्वजाएं लाल रंग से रंगी हुई थीं।
भविष्य महापुराण में देवर्षि नारद ने ब्रह्माजी द्वारा वर्णित ध्वजदण्ड के आकार-प्रकार का वर्णन करते हुए कहा है कि ध्वजदण्ड सीधा, बिना टूटा हुआ, प्रासाद के व्यास के बराबर लम्बा, अथवा 4, 8, 10, 16 या 20 हाथ लम्बा होना चाहिये। 20 हाथ से अधिक लम्बा न हो। उसकी गोलाई चार अंगुल होनी चाहिये। अग्निमहापुराण इस बात का निर्देश करता है कि जिस ध्वज को प्रासाद पर लगाना हो, वह शिखर की ऊंचाई का आधा और द्वार की शाखा से दुगुना ऊंचा होना चाहिये।
ईश्वरचन्द्र शास्त्रीविरचित युक्तिकल्पतरु के अनुसार प्राचीन भारत में ध्वजदण्ड की लम्बाई कम-से-कम दस हाथ और अधिक-से-अधिक बीस हाथ होती थी। सेना में ध्वज की लम्बाई पद-मर्यादा की सूचक होती थी। एक सहस्र से कम सेनावाले सेनानायक का अपना कोई ध्वज नहीं होता था। एक सहस्र सैनिकों के नायक का ध्वज दस हाथ ऊंचा होता था, दो सहस्रवाले का ग्यारह हाथ और तीन सहस्रवाले का बारह। इस क्रम से अपुताधिक अर्थात् दस सहस्र की सेना के संचालक का ध्वज बीस हाथ ऊँचा रहता था। यह ऊँचाई की अन्तिम सीमा थी। इसी ग्रन्थ में आगे कहा गया है कि ध्वजदण्ड बहुधा लकड़ी का हुआ करता था। इसके लिए बांस, बकुल, शाल, पलाश, चंपक, नीप (अशोक वृक्ष का एक प्रकार या कदम्ब), नीम और विराज नामक वृक्षों की लकड़ी काम में लाई जाती थी। इनमें बांस ही सर्वश्रेष्ठ और सम्पत्तिकारक समझा जाता था। इसका एक अभिप्राय यह भी हो सकता है कि बांस में झुकने का गुण होने के कारण वह सहज में टूट नहीं सकता और इस प्रकार ध्वजभंग का भय कम रहता है।
वराहमिहिरकृत बृहत्संहिता में ध्वजदण्ड के लिए लकड़ी के चुनाव से लेकर पूजनोपरांत महाध्वज के विसर्जन तक का बड़ा विशद वर्णन मिलता है। उससे ध्वजों के अलंकरणादिकों के विषय पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। उसी से यह भी पता चलता है कि ध्वजोत्थापन बड़े भव्य समारोह से हुआ करता था। अनेक वाद्यों के गम्भीर घोष, ब्राह्मणों के वेद-पाठ तथा मंगलाशीर्वाद, जनता द्वारा जय-जयकारादि मंगल शब्दों के उच्चारण एवं प्रणाम इत्यादि के साथ धीरे-धीरे महाध्वज की स्थापना होती थी। भविष्यमहापुराण में ध्वजारोपण की विधि का वर्णन करते हुए कहा गया है कि ध्वज का पहले निर्माण कर उसका अधिवासन करें। लक्षण के अनुसार वेदी का निर्माण करें, कलश की स्थापना कर सर्वऔषधि-जल से ध्वज को स्नान करायें। वेदी के मध्य में उसे खड़ा कर सभी उपचारों से उसकी पूजा करें और उसे पुष्पमाला पहनायें, दिक्पालों को बलि देकर एक रात तक अधिवासन करें। दूसरे दिन भोजन कर शुभ मुहूर्त में स्वस्तिवाचन आदि मंगल-कृत्य संपन्न कर ध्वज को यथास्थान आरूढ़ करें। ध्वजारोहण के समय अनेक प्रकार के वाद्यों को बजायें, ब्राह्मणगण वेद-ध्वनि करें। ध्वजारोहण के समय इन मन्त्रों को पढऩा चाहिए।
स्वच्छ दण्ड में ध्वज को प्रतिष्ठित करें तथा ध्वज का दर्शन करें। इस प्रकार भक्तिपूर्वक जो ध्वजारोपण करता है, वह श्रेष्ठ भोगों को भोगकर सूर्यलोक को प्राप्त करता है। बृहत्संहिता में ध्वज को उतारने की विधि का भी उल्लेख मिलता है। ध्यान इस बात पर दिया जाता था कि ध्वज धीरे-धीरे उतारा जाए, पक्षी के सदृश एकाएक नीचे न गिरने पाए। राजा को ध्वज की रक्षा सभी प्रकार से करनी पड़ती थी। ध्वजभंग होना राजा के लिए अत्यन्त अशुभ माना जाता था। भविष्यमहापुराण के अनुसार पताका के पतन से राष्ट्र-हानि, गिरने एवं फटने से महिषों के विनाश एवं दण्ड के गिरने या टूटने पर अश्व-हानि होती है और उसके कुल में लोग तस्कर (चोर) होते हैं, अत: उसका प्रायश्चित होना आवश्यक है। महर्षि वेदव्यास ने महाभारत में कहा है कि युद्ध में कटकर गिरती हुई ध्वजाओं के साथ ही कौरवों के यश, अभिमान, मान-सम्मान, प्रतिष्ठा एवं राज्य के साथ ही जीवन का भी पतन हो गया।
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