आखिर क्यों नहीं चाहते हम

सत्य देखना, सुनना, पढ़ना व बोलना

– डॉ. दीपक आचार्य

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हममें से अधिकांश लोगों को रोशनी और सत्य पसंद नहीं है। हम अपने लाभ को हमेशा सामने रखते हैं और दूसरों के प्रति बेपरवाह होकर हर कर्म और उसके फल की परिभाषा और गणना अपने-अपने हिसाब से करने लगते हैं। हमें शाश्वत सत्य से कोई मतलब नहीं होता बल्कि सत्य की परिभाषा हम गढ़ते हैं जिसमें सत्य वो होने लगा है जो हमारे हक में हो।

सत्य की जितनी दुर्गति हमारे सामने हो रही है उतनी और किसी युग में कभी नहीं। सत्य और धर्म के सारे के सारे मायने बदल गए हैं। हमारे लिए इनकी कोई सीमा या मर्यादा रेखाएं नहीं रहीं, लक्ष्मण रेखाओं की बात तो बहुत दूर है। आज हम सभी लोग अपने निजी कानून खुद बनाते हैं और ये कानून देश, काल, परिस्थितियों और अपने स्वार्थों के अनुरूप ढलने और बदलने लगते हैं।

हमें न समाज का भय रहा है, न धर्म का, और न ही सर्वशक्तिमान ईश्वर का। बात हमारे अपने व्यक्तित्व की हो, घर-परिवार की या समुदाय की, अथवा अपने क्षेत्र, प्रदेश या देश की। हर तरफ हमने सत्य को हाशिए पर ला खड़ा कर दिया है और खुद ही खुद सभी जगहों पर छाये रहने या अपना कब्जा जमाये रखने की गरज से वो सब कुछ कर रहे हैं, करवा रहे हैं जो हमारी प्रतिष्ठा या भण्डार में अभिवृद्धि करने वाला साबित हो।

अपने क्षुद्र स्वार्थ और ऎषणाओं का भंवरजाल हम पर इतना हावी हो चला है कि अब हममें अपने बारे में सच को जानने, सुनने, समझने और पढ़ने-बोलने की सहनशीलता भी नहीं रही। सहिष्णुता और सहृदयता के भाव तो हममें से कभी के पलायन कर चुके हैं। हम चारों तरफ वही चाहते हैं जो पूरी तरह हमारे अनुकूल और हमारी प्रशस्ति के लिए ही रचित हो।

हमारा हर क्षण उसी तलाश में लगा रहता है कि कोई हमारे बारे में कहे, लिखे, बोले और सुने-सुनाए। भले ही ये कोरी गप्पों और मिथ्यावचनों के सिवा कुछ न हो। हमारे हितों को साधने के लिए झूठ पर झूठ बोलना, झूठे भाषण झाड़ना, हर चर्चाओं और बहसों में बकवास करना, निरर्थक तर्क-कुतर्क करते हुए बहस को आगे बढ़ाना, अपने ही बारे में मिथ्या बोलना, लिखना और पढ़ना तथा औरों को अपनी असलियत  की बजाय झूठे सुनहरे आवरणों और कल्पनाओं से भरे आभामण्डल की झलक दिखाने से लेकर वह सब कुछ करने और करवाने के हम आदी हो गए हैं जो हमारे पुरखों ने कभी न किया हो।

इस मामले में हम दुनिया के वे लोग हैं जो हमेशा नवाचार करने और करवाने के आदी हो गए हैं। जहाँ कहीं थोड़ा सा भी हमारे बारे में सच बोल दिया जाए, छप जाए या कोई हमें सुना ही डाले, हमारा पारा सातवें से लेकर सत्रहवें आसमान पर चढ़ जाता है और तब हम सत्य को जानने, समझने और सोचने तथा उसक अनुरूप व्यवहार में परिवर्तन लाने की बजाय प्रतिशोध की भट्टी में जलने लगते हैं और क्रोध के मारे तमाम आसुरी संपदाओं को हाथ में लेकर टूट पड़ते हैं।

यहीं से हमारा सुप्त रहा आसुरी स्वभाव प्रकट हो जाता है जो हमारे मरघट पर पहुंचने तक बना रहता है। एक जमाने में सत्संग और सत्संगी हर कहीं हुआ करते थ जो सत्य का भान कराते थे। आजकल  हमारे आस-पास ‘अली बाबा चालीस चोर’ जैसी मण्डली हो गई है जो न पढ़ी-लिखी है, न अकल वाली है, न इनका कोई सम्मान और आदर है कहीं। सब ओर से ठुकराए हुए, नाकारा और नालायक लोग हमारे ही आस-पास कुछ पाने की उम्मीद में जमा हो चले हैं और हम हैं किइन मूर्खों  के बीच अट्टहास करते हुए शेखी बघार रहे हैं। सत्य को जानने का प्रयत्न करने की आवश्यकता है। जो लोग असत्य के भरोसे सिकंदर बने हुए हैं उन्हें समझना चाहिए कि आखिर खाली हाथ ही लौटना है और तब अपने साथ बददुआएं और कमीनों के कुकर्मों की गठरियां ही जाने वाली हैं।

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