आज का चिंतन-23/12/2013
जो पाया है उसे उदारतापूर्वक बाँटें
वरना नहीं हो पाएगी गति-मुक्ति
– डॉ. दीपक आचार्य
9413306077
हमें जो कुछ प्राप्त हुआ है, हो रहा है, होने वाला है, वह सब कुछ इसी धरा से मिल रहा है। इसकी प्राप्ति का उद्देश्य यह नहीं कि हम सब कुछ अपने पास दबाकर बैठ जाएं। बल्कि जो जहां से मिला है, कहीं से पाया है उसके वितरण की परंपरा निरन्तर बरकरार रहनी जरूरी है। यह साफ तौर पर हमें स्वीकार लेना चाहिए कि जो हमारे लिए जरूरी है उतना ही हमें खर्च करने का अधिकार है। जब हम अपने पर खर्च करने के साथ ही भविष्य की आशंकाओं को लेकर इसका अनाप-शनाप संग्रहण आरंभ कर देते हैं तब से ही हमारा भविष्य असुरक्षित होने लगता है।
जो भविष्य पर भरोसा करता है, भविष्य उसी का भरोसा करता है। इस बात को जीवन में हमेशा ध्यान में रखी जानी चाहिए। मनुष्य मात्र की उत्पत्ति सिर्फ अपने और अपने ही लिए नहीं हुई है बल्कि वह सामाजिक प्राणी के रूप में पैदा हुआ होता है जिस पर उन सभी की जिम्मेदारियां होती हैं जो अपने आस-पास हैं तथा जिस परिवेश या क्षेत्र में हम रहते हैं। ऎसा नहीं होता तो हमें जानवर बनाकर भेजना तो विधाता के लिए ज्यादा आसान ही था। लेकिन कुदरत ने हमें इंसान के रूप में इसीलिए नवाजा है कि हम समुदाय के रूप में रहते हुए सामाजिक उत्तरदायित्वों को अच्छी तरह पूर्ण करें और लोक कल्याण तथा आंचलिक तरक्की करते हुए सृष्टि के निरन्तर विकासशील स्वभाव को और अधिक संबलन प्रदान करने में सहभागिता निभा सकें।
जो लोग मनुष्य होते हुए सिर्फ अपने आप तक केन्दि्रत हुआ करते हैं वे लोग हर संसाधन, वस्तु और सभी चीजों को अपने पास दबाए रखने, चल-अचल जमीन-जायदाद के बेहिसाब संग्रहण के लिए पूरी जिन्दगी खपा देते हैं और इतना कुछ जमा कर जाते हैं जैसे कि किसी नामी-गिरामी कबाड़ी का वेयर हाउस हो। जबकि हमारी जिम्मेदारी है कि हम जो कुछ प्राप्त हुआ है उसमें से अपने उपयोग के लिए जरूरी मात्रा में रखकर औरों को बाँटें और सामूहिक सोच के साथ काम करें।
बात चाहे ज्ञान-विज्ञान की हो या चलाचल सम्पत्ति अथवा अपने जीवन के अनुभवों की। हमारा यह सब कुछ समाज और क्षेत्र, राष्ट्र के लिए है। जो लोग अपने आपको ट्रस्टी मानकर चलते हैं, समुदाय के हितों के प्रति समर्पित रहते हैं और सामाजिक उत्तरदायित्वों को अच्छी तरह निभाते हैं वे लोग हमेशा मुक्त, प्रसन्न और बिंदास रहकर जीवनयापन करते हैं और अंत में मुक्ति का शाश्वत आनंद पा लेते हैं।
जबकि जो लोग अपने जीवन में सिर्फ पाने ही पाने और जायज-नाजायज रास्तों से जमा करने का स्वभाव पाल लेते हैं वे बहुत बड़े भण्डार और अपार धन-सम्पत्ति के मालिक कहे जरूर जाते हैं मगर वास्तविक स्वामित्व इनकी मौत होने तक भी प्रकट नहीं हो पाता है। ये लोग भविष्य की आशंकाओं से त्रस्त रहते हैं और हर चीज को अपने लिए इकट्ठा करते रहते हैं। इन्हें इस सामग्री या सम्पत्ति से कोई सुकून प्राप्त नहीं होता। इन्हें बस इतना विराट दंभ ही रहता है कि उनके पास खूब है। यही दंभ उनके जीवन के दूसरे आनंदों से दूर कर इनकी गति-मुक्ति में बाधक रहता है। अधिकांश ऎसे लोग न अपने शरीर पर कुछ खर्च कर पाते हैं, न समाज में कोई दिली मान-सम्मान प्राप्त कर पाते हैं।
अपने समग्र जीवन में यह लक्ष्य सामने रखें कि जब हमारे वापस लौटने का समय आए, तब तक हमारे पास जो भी है वह समाज के काम आ जाए। ऎसा नहीं हुआ तो गति-मुक्ति बाधित हो जाएगी और हमारी आत्मा को जाने कब तक, कहाँ-कहाँ भटकना पड़ेगा। जीवन का असली आनंद इसी में है कि अपने ज्ञान-विज्ञान, अनुभवों और संसाधनों को पात्र तथा जरूरतमन्दों तक प्रवाहित करने की परंपरा हमेशा बनाए रखें ताकि अंत समय में यह मलाल नहीं रहे कि कुछ ऎसा था जो किसी के, समाज या देश के काम आ सकता था, लेकिन हम बाँट नहीं पाए और यह बोझ हमारे लिए बहुत बड़ी बाधा बन कर सामने खड़ा हुआ अपने पूरे अतीत को चिढ़ाता और आत्मा के भविष्य को कालिख देता दिख रहा है।