गांधीजी का ब्रह्मचर्य प्रयोग था केवल एक आडंबर

शंकर शरण

मनु बेन की डायरी दिखाती है कि भोली मनु के सिवा सभी लड़कियाँ और स्त्रियाँ महात्मा गाँधी के साथ सोने, नहाने, आदि परिचर्या को उन की निजी सेवा के रूप में लेती थीं। उन के बीच आपसी ईर्ष्या-द्वेष, कलह, दुराव, धमकियाँ, गाँधीजी से किसी विशेष लड़की को दूर करने, उस के बदले स्वयं स्थान लेने के प्रयत्न, आदि इसी कारण थे। कहीं लेश-मात्र संकेत नहीं मिलता कि वे गाँधी के कथित ब्रह्मचर्य प्रयोग को अंतरंग सेवा के सिवा कुछ और समझती थीं। उस संबंध में गाँधी द्वारा कही जाती बड़ी-बड़ी बातों को वे भी संभवतः आडंबर या जरूरी ओट के रूप में ही लेती थीं।

कुल मिला कर यही सत्य भी लगता है। आखिर, हम जितना आज जानते हैं, वे स्त्रियाँ तो स्वयं गाँधी को, उन की कही बातों, व्यवहार, रुख, आदि को हम से कई गुना अधिक और प्रत्यक्ष जानती थीं! वह भी दो-चार दिन नहीं, बल्कि महीनों, बरसों तक। विभिन्न लड़कियों, स्त्रियों से मनमानी किस्म की अंतरंग सेवाएं लेने तथा ब्रह्मचर्य प्रयोग के संबंध में अलग-अलग लोगों से अलग-अलग बातें करते गाँधीजी को 1938 ई. से ही देखा जा सकता है। आज वे सभी बातें उन के ‘संकलित वांङमय’ में है (जो उस समय किसी के भी सामने इकट्ठे उपलब्ध नहीं थीं!) उन बातों में कोई तारतम्य या गंभीर अर्थ नहीं मिलता। उलटे, उन में अनेक क्षुद्र बातें मिलती हैं। जिस से यही लगता है कि वह कथित प्रयोग केवल शाब्दिक आडंबर था। मनु बेन ने अपनी सरलता में वह सब बातें लिख छोड़ी हैं, जिस से भी यही पुष्ट होता है।

तर्कशास्त्र भी इस की पुष्टि करता है। हम अनुभव से जानते हैं कि जहाँ पूजा होती है, या जहाँ शोक मन रहा होता, या जहाँ उल्लास होता है, और जहाँ रेवड़ियाँ बँट रही या लूट हो रही होती है – इन सब स्थानों में वातावरण स्वतः भिन्न-भिन्न बन जाता है। वहाँ लोग शान्त, चुप, शोकमग्न, उल्लसित, उद्धिग्न या झगड़ालू मुद्रा में दीखते हैं। अतः यदि गाँधी के आस-पास उन की ब्रह्मचर्य-प्रयोग सहधर्मियों या उन की सेविकाओं में उद्वेग, ईर्ष्या, डाह और षड्यंत्र जैसा दृश्य लगातार मिलता है, तो यह उस कार्य का कुछ संकेत तो देता ही है जो हो रहा था।

निस्संदेह, वह कोई महान, उच्च कार्य, ‘यज्ञ’ आदि नहीं था। ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ भी नहीं था, जो उसे पहले गाँधीजी ने कहा था। उन के निकट सेवक, सचिव, आदि इतने मूढ़ प्राणी तो नहीं ही थे! यदि उन में क्षोभ, विकार-ग्रस्त भाव या संबंध दिखते हैं, तो यह उस कार्य का परिणाम, उस की प्रतिच्छाया ही थी, जो गाँधी कर रहे थे। स्वयं गाँधी दूसरी प्रतिद्वंदी स्त्रियों के बारे में मनु बेन को जो कहते हैं, उस में किसी उच्च भाव की झलक नहीं है। बल्कि विकार ही है।यही कारण है, कि स्वयं गाँधी और उन के आलोचक बेटे देवदास ने भी मनु को डायरी दूसरों से छिपाए रखने की सलाह दी थी। ध्यान रहे, उन स्त्रियों में मनु सब से छोटी थी। नाबालिग। उस का विश्वास अभी टूटा नहीं था। लेकिन क्या दूसरी, पुरानी, अधिक अनुभवी स्त्रियों में गाँधी के कथित ब्रह्मचर्य प्रयोगों के प्रति वही विश्वास झलकता है? उत्तर नकारात्मक मिलता है। यदि वे प्रयोग एक-तरफा थे, तब भी इस से उस के औचित्य पर प्रश्न उठता ही है।

गाँधी लंबे समय से अपनी निजी जीवन-शैली के लिए एक ऐसी छूट ले रहे थे, जो उन्हें वैसे कदापि नहीं मिल सकती थी। यह उन का निजी जीवन था, यह वे स्वयं विविध प्रसंगों में कह चुके हैं। उन्होंने मनु बेन के दिमाग में यह बिठाया था कि वे मनु को विशेष प्रकार से साथ रखकर एक महान यज्ञ कर रहे हैं। उस में सहयोग करके मनु भी ‘उच्च कार्य’ कर रही है, आदि। पर इस पर मनु को कोई शिक्षा देते, अपने प्रयोग का कोई गहन अर्थ बताते, गाँधी कहीं नजर नहीं आते। केवल एक सपाट घोषणा कि यह महान प्रयोग या यज्ञ है। यह उन का अपना भ्रम, या किशोर मश्रुबाला के शब्द में ‘माया’ मोह भी हो सकता था। इस के विपरीत कोई सामग्री गाँधी वाङमय में नहीं मिलती।गाँधी स्वयं को ‘मनु की माँ’ कहते थे। इस की विचित्रता के सिवा उस से कोई अर्थ नहीं निकलता। यदि वे मनु की ‘माँ’ थे, तो मनु से पहले वही सेवाएं देने वाली दूसरी लड़कियों, जैसे अमतुस सलाम, वीणा, कंचन, प्रभावती, आदि के क्या थे?

वस्तुतः गाँधी और मनु के बीच, तथा गाँधी के जुड़ी ऐसी स्त्रियों के बीच आपस में, तथा उन सब स्त्रियों, लड़कियों से गाँधी की अलग-अलग जो बातें, विवाद, शिकायत और झगड़े होते रहते थे, वह दिखाते हैं कि ‘ब्रह्मचर्य’ एक शब्द मात्र था। उस कार्य के अंतर्गत स्त्रियों में ईष्या-द्वेष, प्रतिद्वंदिता, अविश्वास का बोल-बाला था। इस से गाँधी पूर्णतः अवगत थे, बल्कि स्वयं उन भावनाओं में शामिल थे। उस में रस लेते और हवा तक देते थे। प्रतिद्वंदी स्त्रियों को शांत करने में किसी उच्च विचार, चरित्र-उत्थान, आदि के बदले गाँधी को भी आवेश-पूर्वक किसी को नीचा दिखाने, वह भी पीठ-पीछे, तू-तू मैं-मैं करते, और अपनी चलाने की कोशिश करते स्पष्ट देखा जा सकता है। उसे ब्रह्मचर्य तो क्या, कोई सामान्य उदार भाव तक नहीं कहा जा सकता!!

उन स्त्रियों और गाँधी की ततसंबंधी बातों में ब्रह्मचर्य के बदले एक निजी, गोपन, रोजमर्रे गतिविधि की झलक अधिक मिलती है। कुछ-कुछ ‘साहब और उन के स्टाफ’ के आपसी संबंध, प्रमोशन पाने की प्रतियोगिता, और उस से जुड़ी ईर्ष्या। मनु बेन की डायरी से उन सभी आपत्तियों की पुष्टि होती है, जो तब गाँधी के अनेक सहयोगियों, परिवार-जनों, आदि ने की थी। उस की पुष्टि उस हश्र से भी हुई, जो गाँधी के देहांत के बाद मनु बेन, सुशीला नायर, जैसी लड़कियों का हुआ।इस की एक झलक 19 अगस्त 1955 को मोरारजी देसाई द्वारा जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र से मिलती है। तब बंबई में मनु एक अस्पताल में किसी अज्ञात रोग के इलाज के लिए भर्ती थीं। उन से मिलने के बाद मोरारजी ने लिखा, ‘‘मनु की समस्या शरीर से अधिक मन की है। लगता है, वह जीवन से हार गई हैं और सभी प्रकार की दवाओं से उन्हें एलर्जी हो गई है।’’

मनु उस के बाद पंद्रह वर्ष और जीवित रहीं। गुमनाम जीवन। किसी ने उन से उन प्रयोगों के बारे में जानने-समझने की कोशिश नहीं की! जिस के लिए गाँधी ने देश-विभाजन के बेहद संकटपूर्ण समय में अपने कितने ही निकट सहयोगियों, परिवारजनों से झगड़ा मोल लिया। क्या यह रहस्य है कि किसी को उस प्रयोग में कोई दिलचस्पी क्यों नहीं हुई? या कि सभी जानकार उन का रहस्य पहले से जानते थे? हमारे पास इस का कोई उत्तर नहीं। पर यह तथ्य है कि मनु को प्यारेलाल से विवाह न करने देकर गाँधी ने केवल अपनी मर्जी चलाई थी। इस का कितना संबंध किस बात से था, यह विधाता ही जानते हैं। (समाप्त)

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