भारत को चीन पर पूरी तरह भरोसा….. करना ठीक नहीं
राकेश सैन
चीन को शांति की बीन बजाने को मजबूर करने में अगर किसी देश ने सबसे सक्रिय भूमिका निभाई है तो निःसंदेह वह भारत ही है। सामरिक, कूटनीतिक, राजनीतिक, वैश्विक घेराबंदी के साथ-साथ भारत ने उसकी आर्थिक मोर्चे पर नकेल कसनी शुरू की है।
देश के उत्तरी हिस्से से अच्छा समाचार मिला है कि पूर्वी लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गलवन घाटी में चीनी सेना दो किलोमीटर पीछे हट गई है। पैट्रोलिंग प्वाइंट 14 से चीनी सैनिकों के पीछे हटने से साफ है कि चीन पर दबाव बनाने की भारत की चौतरफा रणनीति कारगर होती दिख रही है। सामरिक, कूटनीतिक ही नहीं, आर्थिक घेरेबंदी और भारतीय जनता के साथ-साथ वैश्विक आक्रोश ने ड्रैगन को तनाव घटाने के लिए सम्मानजनक और लचीले रास्ते पर आने को विवश कर दिया है। यह प्रसन्नता का पल तो है परन्तु चीन जैसे धोखेबाज पर विश्वास कर निश्चिंत होने की जरूरत नहीं है क्योंकि श्रीरामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने चेताया है कि ‘नवनि नीच कै अति दुखदाई। जिमि अंकुश धनु उरग बिलाई।’
अर्थात दुष्टों का विनम्र होना, झुकना यूं ही दुखदाई होता है जैसे कि अंकुश, धनुष, सांप और बिल्ली का झुकना। 6 जुलाई को समाचार आया कि वास्तविक नियंत्रण रेखा पर गलवन घाटी में चीनी सेना दो किलोमीटर पीछे हट गई है। चीन के पीछे हटने में सबसे बड़ा योगदान चीन को आमने-सामने के सैन्य संघर्ष के लिए तैयार होने का भारत का दो टूक संदेश माना जा सकता है। सीमा पर चीन ने जिस तरह कई जगहों पर भारी संख्या में अपने सैनिकों और हथियारों को तैनात किया भारत ने भी इसी अनुपात में तैनाती कर दी। चीन को समझा दिया गया कि उसकी विस्तारवादी नीति का अब और विस्तार होने वाला नहीं है। लाल सेना ने कोई भी हिमाकत की तो भारत इसका मुंहतोड़ जवाब देगा। केवल इतना ही नहीं भारत ने नौसेना को भी सतर्क कर दिया और सेना के अधिकारियों ने यहां तक कह दिया कि हम दो मोर्चों पर भी युद्ध के लिए तैयार हैं। दो मोर्चों का अर्थ दुनिया में बचे चीन के चुनिंदा मित्रों में से पाकिस्तान भी अगर युद्ध में उसका साथ देता है तो भी भारत इसके लिए तैयार है। भारत को अभी विजयादशमी मनाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए क्योंकि गलवन घाटी के अतिक्रमण स्थल से चीनी सैनिकों के पीछे हटने भर से ही एलएसी पर तनाव का दौर पूरी तरह खत्म नहीं होगा, क्योंकि अभी कई और जगहों से चीनी सैनिकों को पीछे हटना है। लेकिन पैट्रोलिंग प्वाइंट 14 से हटने की शुरूआत करना इस लिए अहम है, क्योंकि इसी जगह 15-16 जून की रात दोनों देशों के बीच खूनी संघर्ष हुआ जिसमें 20 भारतीय सैनिक शहीद हुए। इसमें कई चीनी सैनिक भी मारे गए, मगर चीन ने अभी तक इसका खुलासा नहीं किया है।
चीन के पीछे हटने को पैंतरे के रूप में देखने वालों की भी कमी नहीं है। चीनी सैनिकों के पीछे हटने का एक कारण मानसून को भी माना जा सकता है जो इस समय भारतीय उपमहाद्वीप में सक्रिय हो चुका है। पहाड़ी इलाका होने के कारण यहां अत्यधिक बरसात होती है। यहां की प्राकृतिक स्थिति और आने वाले दिनों में मौसम के बेहद कठिन होना भी चीन की वापसी का कारण हो सकता है। इस दुर्गम इलाके में बरसात के मौसम में दोनों देशों के सैनिकों के लिए डटे रहना आसान नहीं है। यहां शीत का प्रकोप रहता है और अगस्त-सितंबर में ही जाड़ा प्रकोप दिखाने लगता है, यहां सामान्य दिनों में ही तापमान काफी नीचे रहता है और नवंबर में जब बर्फ ज्यादा गिरेगी और तापमान माइनस 10 डिग्री तक जाएगा तो हालात कहीं ज्यादा कठिन होंगे। ऐसे में बातचीत के सहारे गतिरोध दूर करना चीन के लिए भी सम्मानजनक रास्ता है और संभव है कि समय बिताने के लिए चीन ने यह पैंतरा अपनाया हो।
गलवान घाटी के पूरे प्रकरण पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि यह चीन के लिए अत्यधिक घाटे का सौदा रहा है। डोकलाम के बाद गलवान से यूं पीछे हटने से पूरी दुनिया में यह संदेश गया है कि ड्रैगन के फैलते पंखों को भी कतरा जा सकता है। इसके विपरीत भारत की छवि एक ऐसे राष्ट्र के रूप में उभरी है जो चीन को उसी की भाषा में जवाब देने में सक्षम है और माओ की तानाशाही को पांव पीछे हटाने के लिए मजबूर भी कर सकता है। यह वही चीन है जो कुछ दिन तक अमेरिका के डराए से भी नहीं डर रहा था, आज भारत के समक्ष घुटनों के बल आता दिख रहा है। इस प्रकरण ने चीन के दुश्मनों को मुखरता प्रदान कर दी है, जो देश चीन के खिलाफ अंदर ही अंदर कुलझ रहे थे अब मुंह पर बोलने लगे हैं।
अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में सर्वसम्मति से पास ‘हांगकांग स्वायत्त अधिनियम’ के जरिए उन बैंकों पर भारी जुर्माना व प्रतिबंध लगाने की बात कही गई है, जो हांगकांग में लोकतंत्र समर्थकों के दमन में शामिल अफसरों के साथ कोई ‘व्यवसाय’ करेंगे। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल इससे पहले ही बीजिंग को चेता चुकी थीं। फ्रांस और जापान ने भी गलवान की घटना के बाद भारत के प्रति समर्थन जाहिर किया है। कनाडा के जस्टिन ट्रूडो बीजिंग के समर्थक माने जाते हैं, पर देश में उनके खिलाफ वातावरण बनने लगा है। ब्रिटेन ने हांगकांग के नागरिकों को नागरिकता देने का प्रस्ताव किया है। यहां तक कि वैश्विक राजनीति से दूर रहने वाला ऑस्ट्रेलिया भी चीन को लेकर चिंता जता चुका है। माना कि चीन एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभरा है परंतु आज भी उसकी जनसंख्या का बहुत बड़ा हिस्सा गरीबी और गुरबत में गुजर-बसर कर रहा है। चीन अपने पिछलग्गु मीडिया के जरिए केवल वही कुछ एक राज्यों को दुनिया के सामने दिखाता है जिसके चेहरे चमका कर रखे गए हैं। वहां के किसानों, मजदूरों, आम नागरिकों की हालत अत्यंत दयनीय है। चीन के सामान का सस्ता होने का एक कारण यह भी है कि वह अपने श्रमिकों को पूरा वेतन नहीं देता, जेल में बंद कैदियों से न्यूनतम मजदूरी दर पर ज्यादा से ज्यादा काम लेता है। जेल में कब और किसको ठूंस दिया जाए किसी को नहीं पता। इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता कि चीन उभर भी रहा है। पिछली सदी के आरंभ तक चीन और भारत की वैश्विक व्यापार में आधी के लगभग हिस्सेदारी थी और दोनों देशों की स्वतंत्रता के बाद अगर चीन भारत के साथ मिल कर चलता तो दोनों देश यह गौरव दोबारा हासिल कर सकते थे। दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हुआ और परिस्थितियां इशारा कर रही हैं कि इसका अधिक नुकसान चीन को ही उठाना पड़ेगा।
चीन को शांति की बीन बजाने को मजबूर करने में अगर किसी देश ने सबसे सक्रिय भूमिका निभाई है तो निःसंदेह वह भारत ही है। सामरिक, कूटनीतिक, राजनीतिक, वैश्विक घेराबंदी के साथ-साथ भारत ने उसकी आर्थिक मोर्चे पर नकेल कसनी शुरू की है तो बीजिंग की बेचैनी बढ़ गई। भूतल परियोजनाओं से लेकर एमएसएमई सेक्टर में चीनी कंपनियों के रास्ते बंद करने की घोषणा की गई है। सबसे अहम फैसला चीन के 59 ऐप पर पाबंदी लगाने का लिया गया। कोविड महामारी से बढ़ी आर्थिक चुनौती में कमजोर पड़ने वाली भारतीय कंपनियों में चीनी हिस्सेदारी रोकने की दिशा में पहले ही कदम उठाया जा चुका था। कमाई बंद होने से तिलमिलाया चीन भरभरा कर झुक भी गया। लेकिन सावधान, शास्त्रों में कहा गया है कि लक्कड़बग्घा उपवास भी करे तो भी वह अगले दिन मांस ही खाएगा।