पता है क्या हश्र हुआ था ‘जय भीम और जय मीम’ की कहानी गढ़ने वाले जोगेंद्र नाथ मंडल का
आजकल कुछ ऐसे लोगों की ओर से ‘जय भीम और जय मीम’ का नारा देश की फिजाओं में अक्सर गूंजता रहता है जो इस देश के सामाजिक समीकरणों को गड़बड़ाने की नीतियों में कहीं न कहीं संलिप्त रहते हैं । जो लोग इस नारे को लगा रहे हैं और इस नारे के माध्यम से देश की राजनीति में ‘क्रांति’ मचा देने का संकल्प व्यक्त कर रहे हैं या तो उन्हें यह पता नहीं है कि ‘जय भीम और जय भीम’ का नारा इस देश में कब और किसने लगाया था और उसके क्या परिणाम हुए थे या फिर यह लोग जानबूझकर सब कुछ समझते हुए भी उसी रास्ते पर चलना चाहते हैं जिस पर चल कर उनके पूर्ववर्ती ने देख लिया है ?
आइए , आज जानते हैं कि ‘जय भीम और जय मीम’ का नारा लगाने वाला और इस नारे के चक्कर में फ़ंसकर अपना और देश के दलित समाज का अहित करने वाला पहला व्यक्ति कौन था ?
बंगाल के एक व्यक्ति थे जिनका नाम था -जोगेंद्र नाथ मंडल । इस व्यक्ति का जन्म 29 जनवरी 1904 को हुआ था । उस समय बंगाल का विभाजन नहीं हुआ था और ब्रिटिश हुकूमत देश पर शासन कर रही थी । जो लोग आजकल देश में जय ‘भीम और जय मीम’ का नारा लगाते हैं, वह इस जोगेंद्र नाथ मंडल नाम के व्यक्ति का नाम लेने से इसलिए बचने का प्रयास करते हैं क्योंकि इसका नाम लेने से बहुत सारी सच्चाई सामने आ जाएगी । यद्यपि राजनीति का यह सिद्धांत है कि जिस व्यक्ति के किसी आदर्श वाक्य , सूत्र वाक्य या नारे से किसी राजनीतिक दल या वर्ग विशेष का लाभ होता है , उसे लेने में वह गर्व और गौरव का अनुभव करता है , परन्तु जोगेंद्र नाथ मंडल के साथ ऐसा नहीं हो सका।
वास्तव में सच यह है कि जोगेंद्र नाथ मंडल उन व्यक्तियों में से एक था जो हिन्दू होकर देश तोड़ने वाले जिन्नाह का साथ दे रहा था और अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए किसी भी स्तर तक जा सकता था । उसने अपनी आत्मा मानो बेच दी थी और आत्मसम्मान को गिरवी रखकर उसने निहित स्वार्थ में जिन्नाह के संकेत पर देश तोड़ने का काम किया था । इस प्रकार उसने पाकिस्तान बनाने में सक्रिय भूमिका निभाई थी।
सन 1940 में कलकत्ता म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में चुने जाने के पश्चात ही उसके सुर बदल गए थे । यही कारण था कि उसने अपने क्षेत्र के हिंदुओं की उतनी सहायता नहीं की जितनी उसने मुस्लिमों की सहायता की । इस प्रकार उस व्यक्ति ने पहली बार ‘जय भीम और जय मीम’ का सपना संजोकर अपने राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति करने की दिशा में आगे बढ़ना आरम्भ किया था ।
उसने बंगाल की ए.के. फज़लुल हक़ और ख्वाजा नज़ीमुद्दीन (1943-45) की सरकारों की सहायता करने और उन्हें राजनीतिक लाभ पहुंचाने की दिशा में भी हरसंभव प्रयास किया था। 1946-47 में जब सोहरावर्दी पश्चिमी बंगाल का मुख्यमंत्री था और उसने ‘सीधी कार्यवाही दिवस’ 16 अगस्त 1946 को मनवाया था , तब भी इस व्यक्ति ने सोहरावर्दी की सरकार को अपनी ओर से हरसंभव सहायता जारी रखी हुई थी। यही कारण था कि जोगेंद्र नाथ मंडल की मुस्लिमपरस्त नीतियों के कारण वह देश तोड़ने वाले जिन्नाह और उसके साथियों की दृष्टि में बहुत चढ़ गया था । चाहे दिखावटी ही सही पर वे लोग मंडल का बहुत अधिक सम्मान करते थे। यद्यपि मंडल महोदय नहीं समझ पाए कि उन्हें केवल राजनीतिक मोहरा बनाने के लिए ही यह लोग ऐसा कर रहे हैं । यह कुछ – कुछ वैसा ही था जैसा कि आजकल ओवैसी जैसे लोग हमारे कई तथाकथित दलित नेताओं को अपनी गोद में लेने का नाटक करते हैं , पर वास्तव में उनके हिन्दू होने के कारण भीतर ही भीतर उनसे घृणा का भाव भी रखते हैं । जिन्ना ने मंडल महोदय का मूर्ख बनाने के लिए और उसके कंधों पर अपनी राजनीतिक बंदूक रखकर दलित भाइयों पर सीधा निशाना साधने के उद्देश्य से अंतरिम सरकार के लिए जब पाँच मंत्रियों का नाम दिया था तो उनमें एक नाम जोगेंद्र नाथ मंडल भी रहा।
15 अगस्त 1947 को जब देश का बंटवारा हुआ तो उससे पहले ही जोगेंद्र नाथ मंडल अपने मुस्लिम प्रेम के कारण भारत छोड़कर पाकिस्तान चला गया । उस पर मुस्लिम लीग का जादू चढ़ चुका था , इसलिए इस व्यक्ति ने माँ भारती को धोखा देकर पाकिस्तान में जाकर रहना उचित समझा । इसका एक कारण यह भी था कि मुस्लिम लीग के जिन्नाह ने उसे पाकिस्तान में चलकर मंत्री बनाने का सपना दिखा दिया था । बस , उन्हीं हरे हरे पत्तों के लालच में या कहिए कि चांदी की चमक के कारण जोगेंद्र नाथ मंडल देश से गद्दारी कर पाकिस्तान के लिए चला गया । जिन्नाह ने उसे पाकिस्तान का पहला कानून मंत्री बनाया । जिन्ना ने ऐसा इसलिए भी किया था कि भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में डॉक्टर अंबेडकर को यह सम्मान प्राप्त हो चुका था , इसलिए पाकिस्तान में भी दलितों को झूठा सम्मान दिए जाने का नाटक करते हुए जिन्नाह ने उसे पाकिस्तान का पहला कानून मंत्री बना दिया।
परंतु शीघ्र ही मंडल महोदय को यह जानकारी हो गई कि उन्होंने भारत को छोड़कर और पाकिस्तान का साथ देकर बहुत बड़ी भूल की है । क्योंकि पाकिस्तान की मुस्लिम नौकरशाही को उनकी उपस्थिति से भी घृणा होती थी । मुस्लिम नौकरशाही नहीं चाहती थी कि उन्हें निर्देश देने वाला कोई उनके ऊपर हिन्दू बैठा हो या कोई ऐसा व्यक्ति बैठा हो जो उनके धर्म ग्रंथ कुरान की मान्यताओं में विश्वास न रखकर किसी और धर्म ग्रंथ में विश्वास रखता हो। यही कारण था कि पाकिस्तान की मुस्लिम नौकरशाही मंडल को कदम कदम पर अपमानित करने लगी। 11 सितंबर 1948 में जिन्नाह की मृत्यु हो गई तो उसके पश्चात तो मानो उनके सिर से एक संरक्षक ही चला गया । जिससे मुस्लिम नौकरशाही और भी अधिक उच्छृंखल होकर उनका अपमान करने लगी । जिन्नाह के रहते हुए चाहे दिखाने के लिए ही सही , लेकिन पाकिस्तान एक धर्मनिरपेक्ष देश था , परंतु जिन्नाह की मृत्यु के 6 महीने पश्चात ही पाकिस्तान अपने सही स्वरूप में आ गया । जब मार्च 1949 में वहाँ की संसद में यह प्रस्ताव लाया गया कि देश अब शरीयत के प्रावधानों से चलेगा । ऐसे प्रस्ताव को आता देखकर मंडल महोदय की आत्मा चीख – चीख कर उसे कोसने लगी।अब वह पश्चाताप की अग्नि में जल रहा था । उसे यह पता चल गया था कि मुसलमान सबसे पहले मुसलमान है और किसी भी ‘काफिर’ को वह किसी भी कीमत पर अपने साथ सहन नहीं कर सकता। उसका भाईचारा केवल इस्लाम को मानने वालों तक सीमित है । दूसरों के साथ वह भाईचारा नहीं निभाता।
इसी समय पूर्वी पाकिस्तान अर्थात बांग्लादेश में हिन्दू विरोधी दंगे भड़क गए । जिसमें हिंदुओं को चुन -चुन कर मारा गया । उन पर होने वाले अत्याचारों को देखकर भी जोगेंद्र नाथ मंडल को अत्यंत आत्मग्लानि होने लगी। जो लोग हिंदू विरोधी इन दंगों में सम्मिलित थे , उनके विरुद्ध कार्रवाई करने की मांग के उपरांत भी पाकिस्तान प्रशासन की ओर से कोई कार्यवाही नहीं की गई । जिससे अब जोगेंद्र नाथ मंडल को यह स्पष्ट होने लगा कि पाकिस्तान में उनके रहने का अभिप्राय है – अपने आप को भूखे भेड़ियों के सामने डाल देना। अपमानित , उपेक्षित और मातृभूमि के प्रति किए गए द्रोह के कारण जोगेंद्र नाथ मंडल ने अब निर्णय लिया कि वह फिर अपनी उसी पवित्र माँ भारती की गोद में लौट चले , जिसके विरुद्ध उसने अक्षम्य अपराध किया था । फलस्वरूप 1950 में वह भारत लौट आया। यहां आकर जोगेंद्र नाथ मंडल ने उन लोगों के पुनर्वास के लिए कार्य करना आरम्भ किया जो मुस्लिम उत्पीड़न के शिकार होकर पूर्वी पाकिस्तान से भागकर या लौटकर फिर से पश्चिम बंगाल आ गए थे।
3 जून 1947 जब कांग्रेस ,मुस्लिम लीग और अंग्रेजों ने मिलकर देश के बंटवारे की योजना पर सहमति बना ली थी तो उस समय यही जोगेंद्र नाथ मंडल थे जिन्होंने बिना आगा – पीछा सोचे पाकिस्तान के समर्थन में जाना उचित समझा था । कांग्रेस मुस्लिम लीग और अंग्रेजों के इस देशद्रोह के परिणामस्वरूप असम के सयलहेट जिले में मतदान होना था । इस जिले की विशेषता यह थी कि यहाँ पर हिंदू और मुसलमान दोनों बराबर संख्या में थे । उन दोनों के मतों से यह स्पष्ट किया जाना था कि उन्हें पाकिस्तान के साथ रहना है या भारत के साथ ? इस जिले को पूर्वी पाकिस्तान के साथ मिलाने की योजना पर काम करते हुए जिन्नाह ने जोगेंद्र नाथ मंडल को वहाँ भेजा । मंडल ने वहाँ जाकर जिन्नाह के संकेतों पर नाचते हुए कार्य किया । परिणामस्वरूप उसके राष्ट्रघाती प्रयासों के चलते दलित भाई मुस्लिमों के साथ जाकर ‘जय भीम और जय मीम’ का नारा लगाने लगे और यह जनपद भारत के साथ जाते – जाते पाकिस्तान में चला गया । आजकल यह बांग्लादेश में है । जिसके बारे में यह भी एक सत्य है कि वहाँ पर अब वही दलित लगभग समाप्त कर दिए गए हैं, जिन्होंने 1947 में मंडल महोदय के कहने पर अपने आप को भारत के साथ न रखकर पाकिस्तान के साथ रखने का निर्णय लिया था । कहने का अभिप्राय है कि उन्हें ‘जय भीम और जय मीम’ के नारे का स्वाद पता चल गया है।
जोगेंद्र नाथ मंडल को हिन्दुओं का एक चेहरा दिखाने के दृष्टिकोण से पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने उन्हें कानून मंत्री तो बनाया ही बाद में वहाँ के श्रम मंत्री के रूप में भी उनकी नियुक्ति की गई। इसके अतिरिक्त जिन्नाह ने अपने जीवन काल में उन्हें कॉमनवेल्थ और कश्मीर मामलों के मंत्रालय की जिम्मेदारी भी प्रदान की । इसके उपरांत भी वह पाकिस्तान में हिंदुओं पर हो रहे अत्याचारों को रुकवाने में वे असफल रहे थे। आज के उन नेताओं को या राजनीतिक दलों को ओवैसी जैसे लोगों के जय ‘भीम और जय मीम’ के नारे से दूरी बनाकर रखनी चाहिए जो जोगेंद्र नाथ मंडल के द्वारा की गई गलती की पुनरावृति कर रहे हैं । उन्हें ज्ञात होना चाहिए कि ओवैसी की दृष्टि में वह केवल ‘काफिर’ हैं। ओवैसी जैसे लोग हिंदू समाज को काटकर और बाँटकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं । आज के दलित नेतृत्व को ओवैसी की आशाओं पर पानी फेरते हुए उन्हें यह बता देना चाहिए कि अब कोई जोगेंद्र नाथ मंडल उनके बीच जन्म देने वाला नहीं है ।इसी के साथ – साथ हिंदू समाज के तथाकथित धर्माधीशों व मठाधीशों को भी इस बात पर चिंतन करना चाहिए कि अपने दलित भाइयों के साथ किसी भी प्रकार का कहीं पर भी कोई अत्याचार नहीं होना चाहिए । ईश्वर के द्वारा जब सबको मनुष्य रूप में ही धरती पर भेजा गया है तो किसी जाति विशेष में जन्म लेना अभिशाप न माना जाए । इसकी व्यवस्था करना भी आज के धर्म आचार्यों की विशेष जिम्मेदारी है।
आज के दलित नेतृत्व को यह भी समझ लेना चाहिए कि जैसे जोगेंद्र नाथ मंडल के बार-बार के आग्रह और चिट्टियां लिखे जाने के उपरांत भी पाकिस्तान के तत्कालीन शासकों ने हिंदुओं पर अत्याचार नहीं रोके थे और इतना ही नहीं सबसे पहले उन्होंने दलितों को ही धर्मांतरित कर मुसलमान बनाया था । यदि ओवैसी जैसे लोग फिर किसी अपने मंसूबे में सफल हुए तो उनके अत्याचार सबसे पहले हमारे दलित भाइयों को ही चलेंगे। जो लोग नहीं चाहते कि अब फिर 1947 की पुनरावृति होकर देश का बंटवारा हो और फिर हिंदू महिलाओं पर वैसे ही अत्याचार हों जैसे 1947 के भारत बंटवारे के पश्चात पाकिस्तान में या भारत के उन क्षेत्रों में हुए थे जहाँ पर मुस्लिम बहुसंख्यक थे, उन्हें इस बात के पुख्ता प्रबंध करने चाहिए कि किसी भी स्थिति में हिंदू समाज का विघटन नहीं होने देंगे और प्रत्येक वर्ग या संप्रदाय को अपने आत्मविकास के सभी अवसर उपलब्ध कराने की दिशा में ठोस कार्य करेंगे।
1950 में जोगेंद्र नाथ मंडल जब भारत लौट आए तो यहां के तत्कालीन नेतृत्व ने भी उन्हें घास नहीं डाली । बात भी सही थी , क्योंकि जो व्यक्ति अपनी मातृभूमि के साथ विश्वासघात कर शत्रुओं के साथ जाकर बैठा था , उसका अब अपने घर में वैसा सम्मान होना या किया जाना किसी भी दृष्टि से उचित नहीं था । इसके अतिरिक्त जोगेंद्र नाथ मंडल की अपनी अंतरात्मा भी उसे कचोटती और कोसती रही कि उसने हिंदू समाज और अपनी मातृभूमि के साथ विश्वासघात करके अच्छा नहीं किया । वह पश्चाताप की अग्नि में जलता रहा । यही कारण रहा कि भारत में आकर वह उपेक्षा , तिरस्कार और बहिष्कार का जीवन जीते हुए प्रायश्चितबोध के बोझ से दबा रहा ।
पश्चिम बंगाल के बनगांव में वह 18 वर्ष तक लगभग अज्ञातवास जैसी अवस्था में जीवित रहा। अन्त में 5 अक्टूबर 1968 को इसी स्थान पर जोगेंद्र नाथ मंडल ने अपने जीवन की अंतिम सांस ली ।
आज ‘जय भीम और जय मीम’ की राजनीति करने वाले लोग जोगेंद्र नाथ मंडल के इतिहास को दलित समाज के सामने लाने में संकोच करते हैं । उसका कारण केवल यही है कि यदि जोगेंद्र नाथ मंडल की सच्चाई को हमारे दलित भाइयों के सामने लाया गया तो उनमें से अधिकांश की आंखें खुल जाएंगी और वह समझ जाएंगे कि ओवैसी जैसे लोग आज इस नारे को गढ़कर उन्हें भेड़ियों की ओर ले जा रहे हैं । बहुत दु:ख की बात है कि दलित नेतृत्व भी जोगेंद्र नाथ मंडल के इतिहास को लोगों को नहीं बताना चाहता, इसलिए दलित भाइयों को स्वयं ही जोगेंद्र नाथ मंडल का इतिहास खोजना , पढ़ना और समझना चाहिए। उन्हें जोगेंद्र नाथ मंडल के इतिहास से शिक्षा लेनी होगी । उसके जीवन और जीवन में की गई गलतियों का उसे किस प्रकार कुपरिणाम भुगतना पड़ा ? – इसे समझना होगा । जितनी शीघ्रता से दलित भाई इस सत्य को समझ जाएंगे ,उतना ही उनके लिए कल्याणकारी होगा । उन्हें समझ लेना चाहिए कि वह किसी दल ,दल के नेता या किसी तथाकथित दलित नेतृत्व के ‘वोट बैंक’ न होकर भारत देश के स्वतंत्र नागरिक हैं । हमारे देश का संविधान उन्हें अपने अधिकारों के लिए लड़ने का रास्ता बताता है , इसलिए अपने संवैधानिक अधिकारों की रक्षा के लिए उन्हें संवैधानिक उपायों को अपनाना चाहिए । जिसमें हिंदू समाज के अन्य वर्गों को भी उनका सहयोग करना चाहिए।
कहते हैं कि इतिहास अपने आपको दोहराता है। हमारा मानना है कि इतिहास कभी अपने आपको नहीं दोहराता और यदि दोहराता है तो वही जातियां या वही राष्ट्र अपने आपको दोहराते हैं जो बीते हुए कल से किसी प्रकार की शिक्षा नहीं ले पाते हैं । भारत और भारत के दलित समाज ने भी यदि बीते हुए कल से शिक्षा नहीं ली तो निश्चय ही 1947 की भयंकर परिणति या पुनरावृति देखी जा सकती है। जो लोग नहीं चाहते कि इतिहास दोहराया जाए , वे समय रहते सावधान हो जाएं उन्हें ऐसा प्रबन्ध करना चाहिए कि जो गलतियां बीते हुए कल में हो चुकी हैं या जिन गलतियों ने जोगेंद्र नाथ मंडल जैसे विश्वासघातियों का निर्माण होने दिया , वह गलतियां अब नहीं दोहरायी जाएंगी।
डॉ राकेश कुमार आर्य
संपादक ,: उगता भारत
मुख्य संपादक, उगता भारत