◆ प्रस्तुति : आचार्य ज्ञान प्रकाश वैदिक

यूरोप में “पूर्व-कैथोलिक” संज्ञा जानी-मानी है। यानी ऐसे लोग जो पहले क्रिश्चियन थे, पर अब उस में विश्वास नहीं रखते; वे अब स्वतंत्र बुद्धिवादी या नास्तिक हैं। तो क्या दुनिया के डेढ़ अरब मुस्लिमों में ऐसे लोग नहीं जो इस्लाम में विश्वास छोड़ चुके? जो इस्लाम से अधिक अपने विवेक को और इस्लामी निर्देशों से ऊपर मानवीय नैतिकता को मानते हों? उत्तर है कि मुस्लिमों में भी ऐसे लोग शुरू से हैं, खुद प्रोफेट मुहम्मद के समय से। इतने कि उन पर मुहम्मद ने कई बार कहा है। उनके लिए दो नाम भी हैं, ‘मुनाफिक’, और ‘मुलहिद’। मुनाफिक, जो ऊपर से इस्लाम पर विश्वास जताते हैं पर दरअसल उन्हें विश्वास नहीं है। मुलहिद, जो खुल कर इस्लाम पर विश्वास छोड़ चुके हैं।

यहाँ दो बातें नोट करने की हैं। पहली, मुहम्मद ने ऐसे लोगों को खत्म कर डालने का हुक्म दिया था। इसीलिए शरीयत में इस्लाम छोड़ने की सजा मौत है। दूसरी, जैसे ही मुहम्मद की मृत्यु हुई, अनेक अरब कबीलों ने इस्लाम छोड़ने की घोषणा कर दी। इस्लाम छोड़ने वालों में मुहम्मद की आखिरी बीवी कुतैला बिन्त कैस भी थी! प्रथम खलीफा अबू बकर को साल भर तक अरब में युद्ध लड़ना पड़ा, ताकि इस्लाम छोड़ने की गति रोकी जा सके।

इस प्रकार, शुरू से ही इस्लाम मुसलमानों के लिए कैदखाने जैसा मतवाद बना और वैसा ही रहा है, जिस में जाने का रास्ता है, निकलने का बंद है। वह भी मार डालने की धमकी से। कहना चाहिए कि इस के सिवा इस्लाम को बनाए रखने का कोई उपाय नहीं है! इस में ऐसा कुछ नहीं जो मानवीय विवेक को स्वीकार हो सके। तब भी इस्लाम चौदह सौ वर्षों से क्यों बना हुआ है – यह एक अलग विषय है। जिस पर अलग से विचार करना चाहिए।

फिलहाल प्रसंग यह कि मार डालने के ‘कानून’ के बावजूद हालिया दशकों में मुलहिदों की संख्या बढ़ रही है। कनाडा के मौलवी बिलाल फिलिप्स के अनुसार उनकी बाढ़, बल्कि ‘सुनामी’ आ सकती है। यह चिन्ता निराधार नहीं। एक आकलन के अनुसार अभी केवल पाकिस्तान में 28 हजार मुलहिद हैं। ईरान में और बाहर रहने वाले ईरानी मूल के मुस्लिमों में यह संख्या बहुत बड़ी है। अमेरिका में प्यू रिसर्च सेंटर ने एक सर्वे में पाया कि मुस्लिम परिवारों के लगभग एक चौथाई युवा अपने को इस्लाम से नहीं जोड़ते।

इस में आगे वृद्धि होना पक्की बात है। इसका सबसे बड़ा श्रेय इंटरनेट और उस पर उपलब्ध तमाम जानकारियों, पुस्तकों, विचार-विमर्श को है जिन्हें प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता। यद्यपि सऊदी अऱब, ईरान, पाकिस्तान, मलेशिया, आदि कई देशों में स्वतंत्र नजरिए से लिखने-बोलने वाले मुस्लिमों के लिए जेल और मौत की सजा है। पर इस से बात बनने वाली नहीं। इस्लाम के सिद्धांत और वास्तविक इतिहास अब विश्लेषण, परख से बचाकर नहीं रखे जा सकते। इस्लामी मत मानने वाले मुसलमानों की निंदा बिलकुल नहीं होनी चाहिए। लेकिन उस मत, विचार को यह सुविधा नहीं है।

पिछले दशकों में इब्न वराक, अनवर शेख, अली सिना, जैसे कुछ ही जाने-माने मुलहिद थे। अब उनकी संख्या लगातार बढ़ रही है। आज अमेरिका में अय्यान हिरसी अली, वफा सुलतान, मरवी सरमद, कनाडा में ताहिर असलम गोरा, अली अमजद रिजवी, इंग्लैंड में रिजवान इदेमीर, तथा पाकिस्तानी मूल के गालिब कमाल और हैरिस सुलतान को पढ़ने, सुनने वाले असंख्य हैं। ईरानी मूल के रिजवान इदेमीर के कार्यक्रम ‘एपोस्टेट प्रोफेट’ के नियमित दर्शकों की संख्या 2 लाख से अधिक है। उनके कुछ वीडियो लाखों लोगों ने देखे हैं।

अनेक मुलहिदों के नियमित कार्यक्रम यू-ट्यूब पर आते हैं। उन में ‘स्पार्टाकस एक्स-मुस्लिम’, गालिब कमाल और हैरिस सुलतान के हजारों नियमित दर्शक हैं। इन में अधिकांश मुसलमान ही होंगे। जो अब तक इस्लाम के प्रति आलोचनात्मक विचारों को सुनने से बचा कर रखे गए थे। उन के प्रश्न दबाए या झूठी बातों से ठंढे किये जाते थे। अब इंटरनेट के कारण वे बैठे-बैठे सारा सच-झूठ परख सकते हैं।

दूसरे, विविधता के आदर में वैचारिक विविधता का आदर भी है। इसलिए मुसलमानों में भी नास्तिकों, स्वतंत्र विचार के लोगों, और इस्लाम की आलोचना करने वालों का भी स्थान होना चाहिए। तभी मुसलमानों की उन्नति होगी। उन का समाज सहज, स्वस्थ, विकासशील बनेगा। जैसे मध्य युग में यूरोप में चर्च क्रश्चियनिटी की जकड़ से निकलने के बाद यूरोप की उन्नति हुई।

इसी प्रक्रिया का एक दस्तावेज पाकिस्तानी मूल के ऑस्टेलियाई लेखक हैरिस सुलतान की चर्चित पुस्तक ‘द कर्स ऑफ गॉड: ह्वाय आई लेफ्ट इस्लाम’ (Xlibris.com.au, ऑस्टेलिया, 2018) है। इस की भूमिका में अली अमजद रिजवी ने लिखा है कि जैसे छापाखाने के आविष्कार ने बाइबिल के आलोचनात्मक विमर्श का रास्ता खोला, उसी तरह इंटरनेट ने कुरान को सबके समझने के लिए खोल दिया है। सन् 1980 के दशक तक स्थिति यह थी कि सभी पाकिस्तानी मुस्लिम घरों में कुरान रखा रहता था, पर किसी को मालूम न था कि उस में क्या है। अधिकांश कुछ उड़ती-उड़ती बातें ही जानते थे। उतना ही जितना मौलवी बताते थे। फिर, अरबी कुरान का अनुवाद भी गोल-मोल रहता था, ताकि कुछ बातें दबी रहें। जिसे जानकर किसी भले आदमी को धक्का लग सकता था। खासकर गैर-अरब देशों में, जहाँ मुसलमानों में अपने देशों की पंरपरा के कई मानवीय मूल्य प्रतिष्ठित थे।

रिजवी ध्यान दिलाते हैं कि जब यूरोप के मध्य युग में क्रिश्चियनिटी को चुनौती दी गई, तो उसे ‘नवजागरण’ का युग कहा गया। उस का लाभ नए चिंतन, और आविष्कारों के रूप में यूरोप और सारी दुनिया को मिला। अब वही चीज मुस्लिम समाज में हो सकने को कोई और नाम देना अनुचित है। हैरिस सुलतान ने इस्लामी सिद्धांतों की आलोचना नास्तिकवादी नजरिए से की है। वे सभी रिलीजनों को मनुष्य के विकास में बाधा मानते हैं। उन में वैज्ञानिकों वाली प्रश्नाकुलता है, जिस से वे बचपन से ही इस्लामी विश्वासों पर भी प्रश्न पूछते थे। जैसे, हर चीज को अल्लाह ने बनाया, तो अल्लाह को किस ने बनाया? इस के उत्तरों से उन्हें संतुष्टि नहीं होती थी। ज्यादा पूछने पर माँ उन्हें चुप रहने कहतीं, नहीं तो ‘कोई तुम्हें मार डालेगा।’

बड़े होने पर हैरिस ने इस्लामी किताबों को खुद पढ़ा तो एक अनोखी चीज पाई। अच्छे-अच्छे पाकिस्तानी अपने काम और जीवन-मूल्यों में अनेक बिन्दुओं पर वस्तुतः इस्लाम-विरोधी हैं। लेकिन अपने को विश्वासी मुसलमान समझते हैं। उन में नेता, व्यापारी, खिलाड़ी, कलाकार, किसान, आदि हर तरह के लोग हैं। वे ऐसे कई विचारों के हामी हैं, जो शरीयत विरुद्ध है। पर उन्हें पता नहीं कि वे विचार शरीयत यानी इस्लाम के विरुद्ध हैं।

हैरिस की दलील है कि ऐसे बीच-बीच के मुसलमानों को या तो इस्लाम से मुक्त होना चाहिए, या फिर तालिबान, इस्लामी स्टेट की तरह पक्का मुसलमान बनना चाहिए। अभी वे दोहरा जीवन जी रहे हैं। विश्वास में वे मुसलमान है, परन्तु रुचि में मानवतावादी हैं (इसी को तबलीगी, देवबंदी, वहाबी, आदि जमातें ‘काफिर’ प्रभाव कहकर उन्हें पक्का मुसलमान बनाने में लगी रही हैं)। हैरिस के अनुसार यदि कोई अल्लाह है, तो वह इस से तो खुश नहीं होगा कि आप उस की कुछ बात मानें और बाकी बातें छोड़ दें। इसलिए मुसलमानों को अंततः विवेक और इस्लाम के बीच चुनाव करना होगा। ■ (जारी…)

– डॉ. शंकर शरण (१५ जून २०२०)

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