राज्यसभा चुनावः बहुमत पाने की बीजेपी की कोशिश, क्या कहते हैं आँकड़े?
राज्यसभा की 18 सीटों के लिए आज होने जा रहे चुनाव से केंद्र में सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी के संख्या बल में ज़रूर इजाफा होगा लेकिन संसद के इस उच्च सदन में उसे बहुमत हासिल करने के लिए अभी और इंतज़ार करना पड़ सकता है, अगर कुछ बहुत अप्रत्याशित नहीं हुआ तो..
245 सदस्यों वाले इस सदन में बहुमत का आंकड़ा 123 होता है, जबकि भाजपा के इस समय 75 सदस्य हैं और कल होने वाले चुनाव में उसे कम-से-कम 8 सीटें मिलने की उम्मीद है, इस प्रकार उसके कुल 83 सदस्य हो जाएंगे।
गौरतलब है कि इस वर्ष राज्यसभा की 73 सीटों के लिए चुनाव प्रस्तावित थे, इनमें से 18 राज्यों से राज्यसभा की 55 सीटों के लिए बीती 26 मार्च को चुनाव होने थे, लेकिन मतदान से ठीक दो दिन पहले चुनाव आयोग ने कोरोना वायरस संक्रमण का हवाला देते हुए इसे टाल दिया था।
हालांकि राज्यसभा की 55 में से 37 सीटों का चुनाव निर्विरोध हो चुका था और राष्ट्रपति के मनोनयन कोटे की खाली हुई एक सीट भी सेवानिवृत्त प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई के मनोनयन से भरी जा चुकी थी। इस बीच, कर्नाटक की रिक्त हुई चार सीटों के लिए भी निर्विरोध सांसद चुन लिए गए थे।
जिन 18 सीटों के लिए चुनाव कोरोना संक्रमण और लॉकडाउन की वजह से बीते मार्च महीने में टाल दिए गए थे, उन सभी सीटों के लिए आज मतदान हो रहा है। जिन सीटों के लिए यह चुनाव होने जा रहे हैं, उनमें गुजरात और आंध्र प्रदेश की 4-4, मध्य प्रदेश और राजस्थान की 3-3, झारखंड की 2 तथा मणिपुर और मेघालय की 1-1 सीटें हैं।
अगर इन चुनावों में क्रॉस वोटिंग नहीं हुई तो राज्यों में पार्टियों की ताकत के हिसाब से 18 सीटों में से भारतीय जनता पार्टी को 8, कांग्रेस को 4, वाईएसआर कांग्रेस को 4, झारखंड मुक्ति मोर्चा को 1 सीट मिलना तय है।
मणिपुर की एक सीट भी भाजपा को मिलना तय थी लेकिन दो दिन पहले भाजपा के नेतृत्व वाली राज्य सरकार से 6 विधायकों के समर्थन वापस लेने से समीकरण बदल गए हैं और वहां न सिर्फ सरकार को लेकर बल्कि राज्यसभा की एक सीट के चुनाव को लेकर भी अनिश्चितता की स्थिति बन गई है।
इन चुनावों के बाद 11 सीटों के लिए इसी साल नवंबर में चुनाव होना है। इन 11 में अकेले उत्तर प्रदेश की 9 सीटें होंगी तथा उत्तराखंड और अरुणाचल प्रदेश की 1-1 सीट पर चुनाव होगा।
राज्य के आंकड़ों के हिसाब से इन 11 में से 10 सीटें भाजपा को मिलेंगी, जबकि 1 सीट समाजवादी पार्टी को।भाजपा को जो 10 सीटें मिलेंगी उनमें से 5 सीटें तो उसकी अपनी पुरानी होंगी और 5 सीटों का उसके संख्याबल में इजाफा होगा।
इस तरह इस साल के अंत तक इस उच्च सदन में भाजपा की कुल 88 सीटें होने की संभावना है।
हालांकि इस स्थिति में आना भाजपा के आसान नहीं रहा है, इससे पहले गुजरात और मध्य प्रदेश में बडे पैमाने पर विपक्षी विधायकों का इस्तीफ़ा हुआ, जिसके लिए उस विधायकों की खरीद-फरोख्त का आरोप भी लगा, विपक्षी विधायकों के इस्तीफे से उसे दोनों ही राज्यों में एक-एक सीट का फायदा हुआ दिखता है।
राजस्थान में भी कांग्रेस के विधायकों में तोड़फोड़ की कोशिशें हुईं थीं लेकिन वे अंजाम तक नहीं पहुँच सकीं।अन्यथा वहां भी बीजेपी को न सिर्फ राज्यसभा की एक अतिरिक्त सीट मिलती बल्कि वहां मध्य प्रदेश की तरह कांग्रेस सरकार के गिरने की नौबत भी आ जाती।
बहरहाल, इस सारी रणनीति पर अमल के बावजूद राज्यसभा में बहुमत के आंकडे से न सिर्फ भाजपा अकेली पार्टी के तौर पर दूर रहेगी, बल्कि 23 सीटों के साथ उसके सहयोगी दलों के संख्या बल के सहारे भी उसके राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए का बहुमत भी नहीं बन पाएगा।
अलबत्ता इसके बावजूद उसे कोई विधेयक पारित कराने में कोई कठिनाई पेश नहीं आएगी, क्योंकि बीजू जनता दल और तेलंगाना राष्ट्र समिति जैसी क्षेत्रीय पार्टियां हमेशा ही उसकी मदद करती रही हैं, इस समय भी दोनों पार्टियों की सदस्य संख्या क्रमश: 9 और 7 है।
आने वाले दिनों में भाजपा को कोरोना महामारी को लेकर घोषित किए गए 20 लाख करोड़ के पैकेज और श्रम कानूनों में संशोधन से संबंधित कुछ विधेयक पारित कराने होंगे, जिसमें उसे कोई समस्या नहीं आएगी।
लंबे समय से चर्चा है कि मोदी सरकार समान नागरिक संहिता लागू करने की दिशा में कदम उठाने वाली है। यह मुद्दा 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के घोषणापत्र में भी शामिल रहा है, चूंकि मोदी सरकार पिछले दिनों संविधान के अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी करने और तीन तलाक को दंडनीय अपराध बनाने जैसे चुनौतीपूर्ण विधेयक राज्यसभा में अपना सामान्य बहुमत न होने के बावजूद पारित करा चुकी है।
ऐसे में अगर वह समान नागरिकता कानून लागू करने के संबंध में भी कोई विधेयक आने वाले दिनों लाती है तो माना जा सकता है कि उसे बहुत ज्यादा दिक्कत नहीं आएगी, क्योंकि बीजू जनता दल, तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाईएसआर कांग्रेस जैसी क्षेत्रीय पार्टियां एनडीए का हिस्सा न होते हुए भी संसद के दोनों सदनों में आम तौर पर सरकार के सहयोगी दल की भूमिका में ही रही हैं।
जहां तक राज्यसभा में बहुमत का सवाल है, पिछले तीन दशक से इस सदन में यह स्थिति रही है कि सरकार भले ही किसी की भी हो, लेकिन इस सदन में उसका बहुमत नहीं रहा है।
वर्ष 1990 के पहले तक इस सदन में कांग्रेस का बहुमत होता था, क्योंकि अधिकांश राज्यों में उसकी सरकारें थीं लेकिन 1990 से स्थिति बिल्कुल बदल गई।
उत्तर प्रदेश, बिहार और गुजरात जैसे बडे राज्य उसके हाथ से निकल गए, जहां वह अभी तक वापसी नहीं कर पाई है, महाराष्ट्र में भी उसके जनाधार में लगातार गिरावट आने से विधानसभा में उसके संख्याबल में कमी आती गई है।
दक्षिण भारत में आंध्र प्रदेश और तेलंगाना उसके हाथ से पूरी तरह निकल चुके हैं, जबकि कर्नाटक विधानसभा में भी उसके संख्याबल में लगातार कमी आ रही है।
दूसरी ओर इन तीन दशकों के दौरान भाजपा भी ज्यादातर राज्यों में अपना जनाधार स्थिर नहीं रख पाई, जिसकी वजह से विधानसभाओं में उसका संख्याबल घटता-बढता रहा।
यही वजह रही कि 1989 से लेकर आज तक सभी सरकारों को राज्यसभा में महत्वपूर्ण विधेयकों पारित कराने में छोटे-छोटे दलों को साधना पड़ा है या विपक्षी दलों के साथ मिलकर आम सहमति बनानी पड़ी है लेकिन इस स्थिति से भारतीय जनता पार्टी की सरकार धीरे-धीरे उबर रही है।
उसकी इस स्थिति का सकारात्मक पहलू यह है कि अब छोटे-छोटे क्षेत्रीय दलों या निर्दलीय सांसदों की अपनी अनुचित मांगों को लेकर अपने समर्थन के बदले सरकार से मोलभाव करने की स्थिति खत्म हो रही है, लेकिन इसका नकारात्मक पहलू यह है कि अब संसदीय कामकाज में आम सहमति की राजनीति के अवसर कम हो रहे हैं, जो कि लोकतंत्र के लिए सेहतमंद स्थिति नहीं है।
( साभार – अनिल जैन
बीबीसी)