पापों में वृद्धि का कारण ईश्वर द्वारा प्रदत्त स्वतंत्रता का जीवों के द्वारा दुरुपयोग किया जाना

ओ३म्

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संसार में मनुष्य पाप व पुण्य दोनों करते हैं। पुण्य कर्म सच्चे धार्मिक ज्ञानी व विवेकवान लोग अधिक करते हैं तथा पाप कर्म छद्म धार्मिक, अज्ञानी, व्यस्नी, स्वार्थी, मूर्ख व ईश्वर के सत्यस्वरूप से अनभिज्ञ लोग अधिक करते हैं। इसका एक कारण यह है कि अज्ञानी लोगों को कोई भी बहका फुसला सकता है। यदि समाज में सच्चे आचार्य व विद्वान उपदेशक होते तो पूरे विश्व का समाज सत्य मार्ग पर चलने वाला तथा असत्य, अन्याय व अत्याचारों से घृणा करने वाला होता। वह अन्धविश्वासों एवं हानिकारक सामाजिक प्रथाओं से मुक्त होता। वह अपनी व दूसरों की उन्नति में सन्तुलन रखते और एक दूसरे के सहायक होते। अन्याय व शोषण कोई किसी पर न करता। परमात्मा सर्वशक्तिमान एवं न्यायकारी है। वह पाप कर रहे मनुष्य को उसकी आत्मा में पाप न करने की प्रेरणा तो करता है परन्तु पापकर्ता आत्मा को पाप करने से बलपूर्वक रोकता नहीं है। इसी कारण बहुत से लोग पाप करते हैं और ऐसे लोगों को देखकर कुछ सज्जन मनुष्य नास्तिक बन जाते हैं। ऐसा करना किसी भी बुद्धिमान व्यक्ति के लिए उचित नहीं है। ईश्वर के कर्म-फल विधान को समझने पर ईश्वर का मनुष्यों को पापों से न रोकने का आरोप सत्य सिद्ध नहीं होता।

ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान एवं न्यायकारी सत्ता है। मनुष्यों व सभी प्राणियों में विद्यमान जीव वा जीवात्मा भी एक चेतन, एकदेशी, ससीम, अणु परिमाण, अल्पज्ञ, कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में परतन्त्र सत्ता है। परमात्मा ने सभी जीवों को कर्म करने की स्वतन्त्रता दी है वहीं सब जीव अपने किये हुए कर्मों का फल भोगने में परतन्त्र हैं। इस स्वतन्त्रता का जो मनुष्य व जीवात्मायें दुरुपयोग करती हैं, उनको ईश्वर से अपने पापों व अपराधों का दण्ड अवश्य ही मिलता है। इस जन्म के अधिकांश पाप-पुण्य कर्मों का फल जीवों को परजन्म व बाद के जन्मों में मिलता हुआ प्रतीत होता है। हमारा यह जन्म व इसमें जाति, आयु व भोग हमें हमारे पूर्वजन्मों के कर्मों के आधार पर मिलते हैं। इस जन्म में हमें अपने पूर्वजन्मों के उन कर्मों को पहले भोगना है जो हम पहले कर चुके हैं। इस कारण इस जन्म के अधिकांश कर्मों का फल हमें भावी जन्मों वा पुनर्जन्मों में मिलता है। अतः ईश्वर पर यह आरोप नहीं लगता कि उसने जीव को कर्म करने के साथ ही दण्ड क्यों नहीं दिया। दण्ड अपराध करने के बाद ही दिया जाता है। यदि ऐसा न हो तो जीव को कर्म करने की स्वतन्त्रता पर आंच आती है। ईश्वर सर्वज्ञ है, अतः उसके सभी कार्य नियमों व मर्यादाओं के अन्तर्गत ही होते हैं। वेदों एवं सत्यार्थप्रकाश आदि ग्रन्थों का अध्ययन करने वाले लोग विवेक से युक्त होने के कारण इन बातों पर विश्वास करते हैं। इस कारण वह ईश्वर की व्यवस्था को समझते हैं और उसे स्वीकार भी करते हैं। इन नियमों व सिद्धान्तों का जन-जन में प्रचार होना चाहिये जिससे मनुष्य पाप कर्मों को करते हुए डरे। उसे ज्ञात होना चाहिये कि उसे अगला जन्म उसके इस जन्म के सत्यासत्य वा पाप-पुण्य कर्मों के आधार पर मिलेगा जहां उसे अपने पाप कर्मों का फल दुःख के रूप में अवश्यमेव भोगना होगा। यह भी सत्य सिद्धान्त है कि ईश्वर किसी जीव के किसी पाप कर्म को कदापि क्षमा नहीं करता है। किसी मत व पन्थ के आचार्य व महापुरुष में यह सामथ्र्य नहीं है कि वह अपने व अपने अनुयायियों के किसी एक कर्म का फल भी क्षमा करवा सकें। इस विषय में मत-मतांतरों ने अनेक भ्रान्तियां फैलाई हुई है। उसके लिये इस विषय के जिज्ञासुओं को वैदिक कर्म फल सिद्धान्तों से संबंधित ग्रन्थों को पढ़ना चाहिये।

हम यह भी अनुभव करते हैं कि पूरा विश्व मत-मतान्तरों में बंटा हुआ है। प्रत्येक मनुष्य किसी एक मत व विचारधारा को मानता है। कुछ मत ऐसे भी हैं जो ईश्वर पर विश्वास नहीं करते परन्तु पाप तो सभी मतों के लोगों द्वारा किये जाते हैं। कोई व्यक्ति व मतानुयायी कम करता है तो कोई अधिक कर सकता है। इसका एक कारण किसी मत द्वारा पाप कर्मों की सूची का न बनाया जाना व उन्हें प्रचारित न किया जाना भी है। वेदों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि मनुष्य को सत्य का ग्रहण एवं असत्य का त्याग करना चाहिये। इसका अर्थ है कि मनुष्य को सत्याचरण ही करना चाहिये असत्याचरण व पाप कर्म नहीं करने चाहियें। पाप कर्म वह होता है जिससे किसी निर्दोष व्यक्ति व व्यक्तियों के समूह को दुःख व पीड़ा पहुंचती हैं। हमें दूसरों के प्रति वह कर्म कदापि नहीं करने चाहियें जो हम दूसरों से अपने प्रति किया जाना स्वीकार न करते हों। झूठ बोलना, सत्य को छिपाना, चोरी करना, अकारण मनुष्य व किसी भी प्राणी की हिंसा करना वा उन्हें दुःख देना पाप कर्मों में आता है। मनुष्यता अज्ञानतावश भी बहुत से अनुचित कार्य करता है जो कि अकरणीय होते हैं। अतः पापों से बचना चाहिये जिससे हमारा वर्तमान व भविष्य का जीवन हमारे द्वारा किये जाने वाले व किये गये पाप कर्मों के दुःख रूपी फलों को भोगने से बच सके। यदि हम सत्यार्थप्रकाश, वेद, उपनिषद, दर्शन तथा मनुस्मृति आदि ग्रन्थों का अध्ययन कर लें तो हम एक सच्चे मानव बन सकते हैं और वर्तमान एवं भविष्य के संकटों से बच सकते हैं। पाप के सन्दर्श में यह विशेष जानने योग्य है कि मांस व मदिरा का सेवन पाप कर्मों में सम्मिलित है। इन कार्यों को किसी भी सभ्य मनुष्य को कदापि नहीं करना चाहिये।

मनुष्य पाप न करे, इसके लिए उसे धर्म व पाप-पुण्य का ज्ञान होना आवश्यक है। धर्म के ज्ञान के लिये ईश्वर प्रदत्त वेदज्ञान का होना भी आवश्यक है। महाभारत युद्ध से पूर्व तक वेदज्ञान सर्वसाधारण मनुष्यों के सुलभ था। हमारे देश में ऋषियों व वेदों के आचार्य बहुतायत में होते थे। देश में गुरुकुलों का जाल बिछा हुआ था जहां सभी लोगों को निःशुल्क व बिना किसी भेदभाव के वेद एवं इतर विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन करने का अवसर मिलता था। महाभारत युद्ध व उसके बाद वेदाध्ययन कम होता गया और कुछ दशकों व शताब्दियों बाद यह अधिकांशतः बाधित हो गया। इसका परिणाम यह हुआ कि वेदों के सत्य अर्थों का सामान्य व विद्वानों को भी ज्ञान नहीं रहा। इसी कारण से देश व समाज में अज्ञान व अन्धविश्वास उत्पन्न हुए। महर्षि दयानन्द (1825-1883) के वेद प्रचार कार्य को आरम्भ करने के समय तक देश विदेश में अज्ञान व अंधविश्वास चरम सीमा पर थे। ऋषि दयानन्द ने विद्या का सत्यस्वरूप बताया। उन दिनों लोगों को ईश्वर व आत्मा का सत्य स्वरूप विदित नहीं था। ऋषि दयानन्द ने वेदप्रचार कर सृष्टि में विद्यमान सभी पदार्थों का सत्यस्वरूप प्रस्तुत किया। उन्होंने अपने समस्त वैदिक विचारों को सत्यार्थप्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि, आर्याभिविनय तथा ऋग्वेद-यजुर्वेद भाष्य के माध्यम से प्रस्तुत किया जिससे देश भर के सत्य एवं विद्या प्रेमी लोग लाभान्वित हुए। वेदप्रचार से मनुष्यों को ईश्वर व आत्मा का सत्यस्वरूप ही विदित नहीं हुआ अपितु सृष्टि में कार्यरत जीवों के जन्म व मरण का आधार कर्म-फल सिद्धान्त का भी ज्ञान हुआ। पाप का कारण अविद्या व अज्ञान होता है। इस अज्ञान व अविद्या को वेद एवं वैदिक साहित्य के प्रचार द्वारा ही दूर किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द के समय में देश में अनेक अविद्यायुक्त मत-मतान्तर प्रचलित थे और वह आज भी हैं। वह मत अपने हिताहित के कारण सत्य को स्वीकार नहीं कर सके जिसका परिणाम है कि अविद्या पूर्ववत् जारी है। इस अविद्या के कारण ही संसार में पाप व दुष्कर्म हो रहे हैं। जब तक मनुष्य वेदज्ञान को प्राप्त कर उससे युक्त होकर दूसरों को भी वेदाचरण की प्रेरणा नहीं देंगे, तब तक अविद्या दूर न होने से पापों का आचरण जारी रहेगा जिससे मनुष्यों का अपना जीवन व परजन्म दुःखों से ग्रस्त रहेंगे और उनके कारण संसार में इतर अशिक्षित भोलेभाले लोग भी दुःखों से ग्रस्त रहेंगे। अतः संसार में सत्य विद्याओं के ग्रन्थ वेद की शिक्षाओं का प्रचार व प्रसार समय की प्रमुख आवश्यकता है। यही प्रमुख उपाय संसार से दुःख व अशान्ति को दूर करने का प्रतीत होता है।

मनुष्य को सच्चे धर्म का ज्ञान होना आवश्यक है। सच्चा धर्म वेदों द्वारा प्रवृत्त वैदिक धर्म ही है। वैदिक धर्म का पालन करने से मनुष्य अधर्म व पाप से बचता है। उसका वर्तमान एवं भविष्य का जीवन दुःखों से प्रायः मुक्त हो जाता है। पापों से रहित इस वैदिक व्यवस्था को प्रवृत्त व क्रियान्वित करना दुष्कर है। ऋषि दयानन्द ने अपने जीवन काल में वेदों के ज्ञान को देश देशान्तर में प्रवृत्त करने का भरसक प्रयास किया था। उन्हें मत-मतान्तरों के विद्वानों का सहयोग नहीं मिला। उनके बाद उनके अनुयायियों ने भी इस कार्य को जारी रखा। उनके अनुयायियों की क्षमता सीमित होने व उनमें भी अन्य मनुष्यों के समान कुछ न्यूनतायें होने के कारण वह अपने संगठन को भी बलशाली नहीं रख सकें। वेदों का प्रचार कार्य धीमी गति से चल रहा है। आर्यसमाज के पास विद्वानों की कमी नहीं है। परन्तु संगठन की दुर्बलताओं के कारण देश व समाज से अविद्या दूर होने के आशानुकूल परिणाम समाने नहीं आ रहे। ईश्वर कृपा करें कि आर्यसमाज के संगठन को क्षीण करने वाले सभी दोष व प्रवृत्तियां दूर हो जायें। आर्यसमाज विश्व में जोर शोर से वेदों का प्रचार करे। संसार के लोग आर्यसमाज की सदाशयता को समझें और उससे सहयोग करें। मत-मतान्तर भी अपनी अविद्या को दूर करने के लिये तत्पर हों और आर्यसमाज के साथ मिलकर संसार से पापों व दुष्कर्मों को दूर कर सर्वत्र सुख व शान्ति का प्रसार करने के लिये मिलकर काम करें। यही उपाय संसार व समाज की उन्नति का प्रतीत होता है। हमारे प्राचीन सभी ऋषि-मुनि, विद्वान व आचार्य यही कार्य करते थे। ऋषि दयानन्द ने भी इस कार्य को आदर्श रूप में किया। यह कार्य अभी अपने लक्ष्य से दूर है। ईश्वर सभी मनुष्यों को सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने की प्रेरणा करें। ओ३म् शम्।

-मनमोहन कुमार आर्य

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