आखिर क्या मिला केजरीवाल को ऐसी भेदभाव की राजनीति करने से ?
हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के संघीय ढांचे की एक बड़ी कमी तब उभरकर सामने आयी है, जब दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली के अस्पतालों में केवल दिल्लीवासियों को ही उपचार उपलब्ध कराने का शासनादेश निर्गत कर वहाँ के समस्त प्रवासियों को महामारी के इस विकट संकटकाल में चिकित्सा सुविधा से वंचित कर दिया। उनका तर्क है कि यदि अन्य प्रदेशों से आकर बसे लोगों को उपचार देंगे तो संसाधनों की कमी के कारण दिल्लीवासी रोगियों के लिए उपचार उपलब्ध कराने में कठिनाई होगी। दिल्ली के एल.जी. महोदय ने मुख्यमंत्री के उक्त आदेश को पलटकर दिल्ली में रह रहे सभी भारतीयों को उपचार सुविधा उपलब्ध करायी है। केन्द्रीय प्रतिनिधि एल.जी. और राज्य के रहनुमा मुख्यमंत्री के आदेशों का यह विरोधाभास नया नहीं है। केन्द्र का भाजपा शासन और जिन राज्यों में भाजपा का शासन नहीं है उनके मध्य के विरोध पहले भी सामने आते रहे हैं। पारस्परिक विरोध की यह राजनीति अगर सामान्य भारतीय के हित में हो तो निश्चय ही स्वागत के योग्य है किन्तु यदि दलगत स्वार्थों के लिए, बोट बैंक की राजनीति के लिए यह विरोध किया जाय तो निश्चय ही चिन्ता का विषय है।
पश्चिम बंगाल, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ आदि प्रान्तों में जहाँ अन्य दलों की सरकारें हैं वहाँ केन्द्र सरकार के निर्देशों की अवहेलना अथवा केन्द्र सरकार द्वारा इन प्रदेशों को इनके संवैधानिक अधिकारों से वंचित किया जाना – दोनों ही स्थितियाँ भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ नहीं हैं। केन्द्र शासन केवल उन राज्यों को ही सुविधा देने के लिए नहीं है, जहाँ उसके दल की सरकारें हों। न ही ऐसे राज्य केन्द्रीय नियन्त्रण से मुक्त प्रांतीय नेतृत्व की स्वतंत्र जागीरे हैं जो भारतीयता की व्यापक अवधारणा को तिरस्कृत कर क्षेत्रीयता की संकीर्णता को प्रोत्साहित करें। प्रवासी मजदूरों, कर्मचारियों एवं अन्यान्य कारणों से अपने ही देश के अन्य राज्यों से आकर बसे भारतीयों को उनकी इच्छा के विरूद्ध अपने राज्य से बाहर निकालने के प्रयत्न, उनके मौलिक अधिकारों से उन्हें वंचित करने के ऐसे शासनादेश निश्चय ही गंभीर चिन्ता का विषय हैं क्योंकि ये देश की एकता, अखण्डता और सार्वभौम सत्ता को प्रश्नांकित करते हैं। मुंबई से प्रवासी मजदूरों की वापसी, कोटा (राजस्थान) से उप्र के छात्रों की वापसी और अब दिल्ली में अन्य राज्यों से आए लोगों के उपचार पर प्रतिबन्ध आदि कार्य यह सोचने पर विवश करते हैं कि क्या अब सत्ता के पदों पर बैठने के बाद निर्वाचित नेतृत्व पूरे समाज और सम्पूर्ण भारतीयता के लिए न होकर केवल अपने दल, अपने क्षेत्र, अपने समर्थकों तक ही सीमित रह कर कल्याण कार्य करेगा । यदि इस नकारात्मक दिशा में राजनीति आगे बढ़ेगी तो यह लोकतंत्र कितने दिन टिक सकेगा? राज्यों से केंद्र की टकराहट सर्वथा अशुभ है।