तपस्वी , संयमी उभयचर मेंढक
__________________जरा सी समस्या जीवन में आई नहीं मनुष्य फांसी के फंदे पर झूल जाता है… जीवन में प्रतिकूलता कष्ट रोग महामारी के सामने आत्मसमर्पण कर देता……….| जगत विश्वकर्मा भगवान ने हम मनुष्य को अकेले नहीं बनाया है हमारे साथ बहुत से जीव जंतुओं की सृष्टि भी उसने की है जिनमें कुछ जलचर हैं कुछ थलचर हैं कुछ नभचर है कुछ तो जल और थल दोनों में ही रहने वाले उभयचर प्राणी है|प्रत्येक जीव हमें जीवन जीने की आदर्श प्रेरणा दे रहा है| हमें जीवन में निष्क्रिय उदासीन धीरज हीन भाग्यवादी नहीं होना चाहिए | ऐसा ही अनोखा धैर्यवान परिश्रमी तपस्वी अवतारी प्राणी है मेंढक… जी हां वही मेंढक जिसे संस्कृत में मंडूक कहा जाता है जिसके नाम से ही उपनिषदों में माण्डूक्योपनिषद का नामकरण हुआ…..|योगासनों में मंडूकासन भी इसी से प्रेरणा लेकर इजाद हुआ है मस्तिष्क रोगों में रामबाण जड़ी-बूटी मंडूकपर्णी भी इसी के आकार के कारण उसका नामकरण हुआ है…. हमारे ऋषि-मुनियों की तरह ही यह तपस्वी तेजस्वी प्राणी है मेंढक |
.अजर अमर ईश्वर की वाणी वेद में चुनिंदा जीवो का ही नाम उल्लेख मिलता है मेंढक उन्हीं में से एक है… वेदों की अनेक वैदिक रिचा अलंकारिक तौर पर ईश्वर के विधि वाक्य का उपदेश करती है… जैसे वर्षा ऋतु में मेंढक टर टर करते हैं ऐसे ही हमें वर्षा ऋतु में ईश्वर की वाणी वेद का पाठ करना चाहिए… वर्षा ऋतु में सब कार्यों से विश्राम लेकर स्वाध्याय ही करना चाहिए |मेंढक कि 4000 से अधिक जातियां हैं जिनका शरीर को सेंटीमीटर से लेकर आधा फुट लंबा चौड़ा हो सकता है पेड़ों पर रहने वाले मेंढक छोटे आकार के होते हैं हम बात केवल तलाब और जलीय स्रोतों में रहने वाले मेंढक की करेंगे जिन से सभी परिचित हैं |बात वर्षा ऋतु की हुई थी तो जिक्र तालाबों का भी होना चाहिए, वह तालाब ही क्या जिसमें मेंढक का निवास ना हो| घूम फिर कर बात मेंढक पर ही आ गई
|हमने आपने कभी विचार किया है सर्दी के बाद हमारे जल स्रोत स्वाभाविक तौर पर सूखने लगते हैं जमीन सूख जाती है… जुलाई से सितंबर तक जो तालाब मंडूक समूह की क्रमबद्ध कर्मिक ध्वनि से गुंजामान रहते थे वह मेंढक आखिर कहां चले जाते हैं?यह आश्चर्य की बात है तालाबों झीलों जल स्रोतों के सूखने पर मेंढक कही नहीं जाते बल्कि उन्हीं जलाशो की तली में 20 से 30 फुट नीचे मिट्टी में काफी गहराई में जाकर ग्रीष्म सुप्तअवस्था में चले जाते हैं फिर जब जुलाई में मानसून आने पर मेंढक मिट्टी से बाहर निकलते हैं 3 महीने खा पीकर मोटे ताजे हो प्रजनन करते हैं फिर तालाबों के सूखने पर मिट्टी की गहराई में चले जाते है |अपनी इच्छाओं मैं कटौती कर बहुत कम में गुजारा करते हैं वर्षभर लगभग 8 से 9 महीने | पानी में तैरने के लिए इनके पैरों में झिल्ली होती है जिन्हें पाद जाल कहां जाता है पतवार की तरह काम करती हैं…| इनके पिछले पैर बहुत मजबूत होते हैं उनकी मांसपेशियां इतनी मजबूत होती है मेंढक 14 फीट तक छलांग लगा सकता है… एक वयस्क इंसान भी ऐसी छलांग नहीं लगा सकता..|बात मेंढक के रंग की करे तो जब यह ग्रीष्म निद्रा से निकलते हैं जमीन से इनका रंग चटक पीला होता है धीरे-धीरे सामान्य होकर हरे धब्बे धारीदार हो जाता है|आर्मी की यूनिफॉर्म तो हम सभी ने देखि है ठीक ऐसा ही हो जाता है यह कारण मेंढक के झुंड को भी अंग्रेजी में आर्मी कहा जाता है | इनकी त्वचा का रंग इनके शरीर को तापमान को भी नियंत्रित करता है, गरम स्थलों पर पाए जाने वाले मेंढक का रंग हल्का ,ठंडे देशों में पाए जाने वाले लड़कों का रंग गहरा होता है.. हल्की रंग से गर्म वातावरण में रहने वाले मेंढक की त्वचा से सूर्य का प्रकाश ऊष्मा परावर्तित हो जाती है ,गहरे रंग से अधिक ऊष्मा अवशोषित हो जाती है |
मेंढक की त्वचा की विलक्षणता यहीं नहीं रुकती, इनकी त्वचा अर्ध पारगम्य होती है, ऑक्सीजन कार्बन डाइऑक्साइड और जल इसके आर पार आ जा सकता है| सुखी स्थानों पर पहुंचने पर उनकी त्वचा के माध्यम से जल वाषिप्त होने लगता है इसलिए यह नम स्थानों जल में रहना पसंद करते हैं त्वचा के माध्यम से यह ऑक्सीजन भी प्राप्त कर सकते हैं.. फेफड़ों के खराब हो जाने पर मेंढक अपनी सारी गतिविधियों को सामान्य ढंग से करता है क्योंकि यह त्वचा से भी सांस ले सकता है… लेकिन यह एक शर्त है इसकी त्वचा नम होनी आवश्यक है.. जिसका यह ख्याल रखते हैं… बाहरी वातावरण से यह जल का भी अवशोषण कर लेते हैं त्वचा के माध्यम से अर्थात यह त्वचा से ही पानी पीते हैं , वाह! कितनी अद्भुत योग्यता सर्वशक्तिमान ईश्वर ने इनको दी है | असली वरदान तो ईश्वर का इन्हें प्राप्त है, क्योंकि जमीन छोड़कर निकलते हैं लंबे समय बाद सच्चे अर्थों में अवतारी भी यही है…|लेकिन इनका सौभाग्य हम मानवों के क्रियाकलापों से दुर्भाग्य में बदल गया है इनकी त्वचा की संवेदनशीलता ही इनके लिए अब अभिशाप बन गई है | क्योंकि यह बाहरी वातावरण से जल ,वायु का अवशोषण त्वचा से ही करते हैं ऐसे में जल स्रोत के प्रदूषित हो जाने पर इनकी त्वचा के जरिए जहरीले रसायन भी इनके रक्त परिवहन तंत्र में पहुंच जाते हैं इस प्रकार एक साथ किसी तालाब के लगभग सभी मेंढक एक साथ मर जाते हैं जल का अवशोषण त्वचा से करने के कारण इन्हें जल में प्रदूषण का पता नहीं चल पाता अतः यह उस जगह को छोड़कर बेचारे अन्यत्र कहीं जाने की कोशिश भी नहीं कर पाते धीमी मौत मरते हैं |अब बात इनकी आंखों की करें तो वह भी लाजवाब है मेंढक की आंख सिर के बाएं दाएं तरफ के सबसे ऊपरी किनारे पर स्थित होती हैं इनकी आंखें बाहर की और बहुत उभरी हुई होती है इस प्रकार समायोजित होती है कि इनकी दृष्टि क्षेत्र 360 डिग्री तक होता है दाएं बाएं ऊपर नीचे एक साथ ही देख लेते हैं.. हम और आप एक समय में केवल सामने का ही देख सकते हैं | बिना हिला देख लेते हैं बगैर आंखों की मूवमेंट की.. और हां पलक भी होती हैं |बात इनकी भोजन की करे तो यह ऐसा अनोखा जीव है जो अपने बाल अवस्था में शाकाहारी युवा वृद्धावस्था में मांसाहारी हो जाता जब अधिक उम्र हो जाती है तो भोजन बहुत कम कर देते हैं नाम मात्र का आहार लेकर स्वास्थ्य लाभ लेते हैं अपनी आयु में वृद्धि कर लेते हैं जीभ के स्वाद में डूबे हम इंसानों को सीख लेनी चाहिए हम तो खा खाकर बेमौत मरते हैं | जीभ शब्द का जिक्र आ गया तो मेंढक की जीभ का भी जिक्र कर लेते हैं इनकी जीभ विशेष लचीली विशेष चिपचिपा पदार्थ से युक्त होती है एक बार किसी छोटे कीट को छू जाए तो उसकी क्या औकात वह इसका निवाला ना बन पाए ,हानिकारक टिडियो उनके लारवा मच्छरों को खाता है चुन चुन कर… ईश्वर के स्वास्थ्य कर्मचारी हैं यह.. फसलों के नैसर्गिक रक्षक हैं….|जो ना अपने कार्य में लापरवाही बताते हैं ना ही हम से वेतन लेते हैं |बहुत इनकी विशेष विलक्षण गुणधर्म की अब करते हैं जिसका आंशिक वर्णन इस लेख के आरंभ में ही हमने कर दिया था मॉनसून ऋतु के पश्चात जल स्रोत तालाबों के सूखने अथवा गर्मी के कारण मेंढक ग्रीष्म सुप्तअवस्था में चले जाते हैं, इस अवस्था के दौरान इनके शरीर का मेटाबॉलिज्म 80 फ़ीसदी तक धीमा हो जाता है… इनका दिमाग और दिल जीने लायक ही कार्य करता है..| इनके शरीर की एक और आश्चर्यजनक खूबी यह है कई महीने तक निष्क्रिय इसी अवस्था में रहने भूखे रहने के बावजूद उनकी मांसपेशियां और आहार नाल को कोई नुकसान नहीं पहुंचता और जैसे ही यह व्यवस्था से बाहर आते हैं इनकी उछल कूद शुरू हो जाती है साथ ही सामान्य ढंग से शिकार को पकड़कर निगलना शुरु कर देते हैं जबकि हम इंसान लंबे समय तक स्थिर अवस्था में पड़े रहने पर हमारी मांसपेशियों में जकड़न हो जाती है इसलिए लंबे समय तक बिस्तर पर पड़े रहने वाले बीमार लोगों के उपचार के साथ-साथ फिजियोथैरेपी की भी जरूरत पड़ती है लेकिन इन्हें किसी फिजियोथैरेपिस्ट की जरूरत ही नहीं पड़ती |
इनकी इस खूबी को वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रियों की अंतरिक्ष यात्रा के हित में करने के लिए प्रयोग कर रहे हैं|जब यह जमीन में जाते हैं को कोई नम या कठोर मिट्टी मैं छेद करता है तो कुछ कीचड़ में छेद बनाते हुए जाता है कोई बलुई मिट्टी में छेद बनाता है,जमीन में कई फीट नीचे पहुंचकर यह अपने शरीर के चारों और एक जल संरक्षण कोकून का निर्माण करते हैं और निष्क्रियता में सो जाते हैं इनका कोकून त्वचा की मृत कोशिका से ही बनता है | इस विशेष आवरण को बनाने से पहले अपने बिल में मेंढक अपने चारों पैरों को सिकुड़ कर अपने धड़ के बराबर कर लेता है ताकि इसके शरीर का क्षेत्र न्यूनतम हो जाए और शरीर से पसीने के रूप में जल कम मात्रा में निकले उसके बाद इसकी त्वचा चारों ओर से पतली परत का निर्माण करती है इसी प्रकार की त्यागी गई प्रत्येक परत मिलकर ही कोकून का निर्माण करती हैं समय बीतने के साथ-साथ कोकून की परत मोटी हो जाती है, शुरू में पारदर्शी बाद में अपारदर्शी हो जाती है परत में सांस लेने के लिए नाक के छिद्र खुले रहते हैं जिनके जरिए धीरे-धीरे सांस लेता रहता है |बिना खाए पिए अपने शरीर की वसा से ही गुजारा करता है इतनी तपस्या करने के पश्चात जब मानसून की ऋतु आती है तो कई महीने इस अवस्था में बिताकर वह अपनी कोकून और भूमि के बाहर आकर सामान्य जीवन और प्रजनन की गतिविधियां शुरू करता है |मादा के साथ केवल संतान उत्पत्ति के लिए ही शारीरिक संबंध बनाता है ना की भोग विलास के लिए आदर्श ब्रह्मचारी है भोग विलास में डूबे हुए गृहस्थी लोगों विद्यार्थियों को इससे इस मामले में विशेष से प्रेरणा लेनी चाहिए |अब मंडूक महोदय की टर्र टर्र का भी थोड़ा जिक्र कर लेते हैं | जुलाई से सितंबर के प्रजनन काल के दौरान मादा को पाने की इनमे होड़ मची रहती है नर मेंढक मादा को रिझाने के लिए अपनी लोकेशन को बताने के लिए यह ध्वनि निकालते हैं यह ध्वनि प्रजनन के लिए तैयार हो चुकने का भी प्रतीक होती है यह ध्वनि कई मायनों में और भी ज्यादा महत्वपूर्ण होती है मेंढक की प्रत्येक जाति एक विशेष प्रकार की धनि निकालती है जिसे सुनकर उस विशेष जाति की मादा मेंढक वहां पहुंचती है, हम बगैर किसी एकॉस्टिक यंत्र के ऐसा नहीं कर सकते लेकिन यह बखूबी कर लेते हैं यह ध्वनि इनके अस्तित्व को बचाए रखने में सहायता करती है क्योंकि इसी के जरिए जाति विशेष के मेंढक प्रजनन हेतु एक स्थान पर मिल जाते हैं प्रत्येक तालाब में उपस्थित अन्य आसपास के तालाबों में उपस्थित मेंढक की ध्वनि अलग-अलग होती है | प्रत्येक मेंढक की साउंड फ्रिकवेंसी अलग-अलग होती है अलग-अलग मादाएं ने बखूबी पहचान लेती हैं कमाल का इंटरसेप्टर है | अब जब मेंढक ऐसी विशेष ध्वनि उत्पन्न करते हैं तो इसके लिए विशेष यंत्र भी होना चाहिए जी हां उनके गले के आसपास विशेष वायु कोष होते हैं जो ध्वनि निकालते वक्त वायु से फूल जाते हैं मादा की अपेक्षा नरक के स्वर कोष्टक बड़े होते हैं अधिकतर मादा नहीं बोलती नर ही विभिन्न प्रकार की ध्वनि निकालते हैं | लेकिन मादा नर से आकार में बड़ी होती है | दुनिया के वैज्ञानिक इन की इसी खूबी से इंटेलिजेंट हियरिंग ऐड बनाने के लिए अनेक शोध कर रहे हैं जिससे ध्वनि प्रदूषण में भी लोगों को सुनने में सहूलियत हो |अब जितना इस शानदार संयमी तपस्वी ब्रह्मचारी उभयचर प्राणी के विषय में लिखें उतना ही थोड़ा है कागज कलम यह फेसबुक wall भी थोड़ी पड़ जाएगी |आर्य जगत के प्रसिद्ध भजन उपदेशक गीतकार आदरणीय सत्यपाल पथिक जी के इस भजन को गुनगुनाते हुए अपनी लेखनी को विराम देता हूं…जो उन्होंने पंजाबी में लिखा |*तेरा हर एक काम है कमाल दा*
*दुनिया बनाने वालेया**दूजा होर कोई तेरे नाल*
*दुनिया बनाने वालेया*आर्य सागर खारी ✍