विद्या और मानव समाज
परमेश्वर ने मनुष्य को जीवन को श्रेष्ठ कर्म करते हुए मुक्ति को प्राप्त करने का सुअवसर देने के लिये साधनरूप में देह को प्राप्त कराया है। मनुष्य विवेक प्राप्त कर मैं कौन हूं ? मेरा लक्ष्य क्या है ? आदि प्रश्नों के समाधान प्राप्त करता है। परमात्मा ने मनुष्य को सद्कर्मों से स्वयं आनन्द भोगने सहित समाज को आनन्द देने के लिये समर्थ बनाया है।
अर्जुन की युद्ध न करने की बातें सुनकर कृष्ण जी ने अर्जुन को समझाया था कि जो मनुष्य धर्म पर स्थिर रहता है वह उत्तम गति को प्राप्त होता है। कृष्ण जी द्वारा मृत्यु विषयक जो ज्ञान अर्जुन को दिया गया, उससे भी यह स्पष्ट होता है कि मनुष्य की मृत्यु अवश्यम्भावी है। श्री कृष्ण ने अर्जुन को कहा कि युद्ध में जो लोग उपस्थित हैं वह उससे पूर्व के अपने जन्मों में कई कई बार मर चुके हैं। इस जन्म में भी वह मरेंगे अवश्य, भले ही उसका कारण युद्ध व कोई अन्य क्यों न हो। कृष्ण जी ने अर्जुन को बताया कि मनुष्य का आत्मा तो अजर, अमर तथा अविनाशी है। मरने के बाद सभी आत्मायें नये शरीरों को धारण करती हैं। मनुष्य को हर हाल में संसार में आना है और जीना है।
जीवात्मा को कर्मशील रहते हुए श्रेष्ठ कर्मों को करना चाहिये। हमें अपने जीवन में कर्तव्यों के पालन में अनेक प्रकार के संघर्ष करने पड़ते हैं। हमारे जीवन में यदा कदा अर्जुन की तरह से किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी स्थिति में मनुष्यों को अपने कर्तव्यों को जानकर उनका पालन करना चाहिये और इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अपने कर्तव्य का पालन करते हुए वह किसी कर्म बन्धन में न फंसे। हमें अपने कर्तव्य व कर्म का त्याग नहीं करना है , अपितु वेद विहित धर्म सम्मत कर्मों को करना है। हमारे जन्म के साथ हमारा प्रारब्ध तथा भाग्य भी जुड़ा रहता है। हम प्रत्येक स्थिति में धर्म को जानकर उसके अनुरूप पुरुषार्थ करते हुए जीवन में आगे बढ़ते हैं। हमारे जीवन के अशुभ कर्म हमें ईश्वर से दूर करते हैं। मृत्यु के समय मनुष्य के समक्ष अनेक दुःख उपस्थित होते हैं। इस स्थिति में वेद को जानने वाला तथा जीवन में धर्म का पालन करने वाला मनुष्य ईश्वर का धन्यवाद करते हुए संसार से जाता है। गीता में शरीर को आत्मा के वस्त्र के समान बताया गया है। मृत्यु आत्मा को नये शरीर की प्राप्ति का साधन होता है।
विद्या क्या है मानव के लिए कैसे उपयोगी है ? विद्या की देवी क्या है ? विद्या की देवी सरस्वती है।
‘विद्या ददाति विनयम’ अर्थात विद्या विनयशील बनाती है , विनय प्रदान करती है । विनम्रता देती है। इसका तात्पर्य हुआ कि जो विद्वान होते हैं वह विनय शील होते हैं । विनम्र होते हैं और विद्वान होते हुए जो भी विनम्र नहीं होते उनको विद्वान नहीं कहा जा सकता। लेकिन क्या विद्या केवल विनय ही प्रदान करती है , या विनय व्यक्ति को कुछ और भी देती है। विद्या जागृति सिखाती है , विद्या भौतिकता से बचाती है। स्थित प्रज्ञ विद्या ही बनाती है। अद्भुत आत्मविश्वास उत्पन्न करती है । विद्या कल्पवृक्ष के समान हैं। विद्या विनम्रता , कृतज्ञता , करुणा, परोपकार , सिद्धांत और आदर्श को बढ़ाती है। विद्या वाणी में मुक्त करने वाली शक्ति प्रदान करती है।
मानवीय गुणों का विकास विद्या से संभव है । मानवीय गुणों के विकास से ही चरित्र बनाया और बचाया जा सकता है। विद्या मनस्वी , तेजस्वी सिद्ध और महापुरुष को सकारात्मक प्रेरणा देती है।
विद्या से ही समस्त पदार्थों के वास्तविक स्वरूप का बोध होता है और तत्व स्वरूप की जानकारी न होना ही अविद्या है। मुंडकोपनिषद के एक आख्यान में अंगिरा ऋषि ने शौनक जी को जो बताया कि संसार में दो प्रकार की विद्याएं हैं ,अपरा और परा।अपरा विद्या के अंतर्गत संसार की समस्त विद्या हैं । जिनमें चारों वेदों ,शिक्षा, कल्प, व्याकरण ,निरुक्त, छंद ,ज्योतिष आदि का ज्ञान सम्मिलित है । परा विद्या में केवल ब्रह्मविद्या का स्थान रखा गया है।मानव की
मुक्ति के लिए विद्या ही एकमात्र साधन है।
भारत भूमि में उत्पन्न आर्य जाति भाग्यशाली है उसे सृष्टि की आदि में सर्वव्यापक परमात्मा से वेदों का ज्ञान प्राप्त हुआ था और आज भी वेद अपने मूल तथा यथार्थ स्वरूप में उपलब्ध हैं।लाखों लोग वेद की शिक्षाओं के अनुसार जीवनयापन करते हैं और अपने जीवन में सुखों व कल्याण को प्राप्त करते हैं। सत्य एवं अहिंसा के सिद्धान्त भी वेदों से ही प्राप्त हुए हैं। यह दोनों यम व नियमों के अन्तर्गत आते हैं। सत्य सृष्टिकर्म के सर्वथा अनुकूल सिद्धान्तों व मान्यताओं को कहते हैं। अहिंसा का यथार्थ स्वरूप भी हमें वेद व वैदिक साहित्य ही में प्राप्त होता है। अतः संसार के सभ्य व निष्पाप हृदय वाले मनुष्यों को पक्षपात छोड़कर वेदों को अपनाना चाहिये। वेदों से ही विश्व का कल्याण होगा। विश्व में सुख व शान्ति स्थापित होगी। देश व समाज में सुख व शानित की प्राप्ति का अन्य कोई मार्ग नहीं है। अन्य मार्ग व मत-मतान्तर तो रेत के बने ऐसे भवन हैं जो विज्ञान के युग में ठहर ही नहीं सकते। उनको तो कभी न कभी समाप्त होना ही है। सत्य के समान असत्य में वह शक्ति नहीं कि वह सत्य का मुकाबला कर सके। सत्यासत्य व धर्माधर्म की लड़ाई में असत्य पराजित होता है तथा धर्म की जय होती है। इस आधार पर भी वेदों की विजय सुनिश्चित है। आवश्यकता केवल यह है कि आर्यसमाज के वैदिक धर्मी लोग संगठित होकर वेदों का प्रचार व प्रसार करें। आर्यसमाज के लोगों को अपने शत्रुओं को पहचान कर उन्हें दूर करना होगा। रोगी शरीर से जिस प्रकार पुरुषार्थ व महत्कार्य नहीं होते उसी प्रकार से शत्रुओं व दुर्जनों के साथ मिलकर सफलतायें प्राप्त नहीं होती। आर्यबन्धु संभल व सुधर गये तो इतिहास बन सकता है और नहीं तो जो इतिहास चल रहा है वही बनेगा जिसे कोई सुहृद आर्य देखना पसन्द नहीं करेगा।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत