उम्मीदों की किश्ती पर बैठ ओबामा ने रचा इतिहास
सिद्धार्थ शंकर गौतम
अमेरिका के पहले अश्वेत राष्ट्रपति का गौरव हासिल करने वाले बराक हुसैन ओबामा का लगातार दूसरी बार राष्ट्रपति चुना जाना इस तथ्य को रेखांकित करता है कि यदि प्रतिद्वंद्वी के पास मात्र दोषारोपण के अलावा विकास और उन्नति का कोई खाका नहीं है तो जनता के पास भी विकल्प सीमित हो जाते हैं और तब वह ऐसे राजनेता पर दांव लगाना पसंद करती है जिसके कार्यकाल को उसने बेहद करीब से देखा हो। अमेरिका में हुए राष्ट्रपति चुनाव से तो यही संदेश जाता है। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार मिट रोमनी पूरे चुनाव प्रचार के दौरान नकारात्मक भ्रम फैलाते रहे, खासकर ओबामा की विदेश नीति की उन्होंने जमकर खबर ली किन्तु अमेरिकी जनता यह कैसे भूल सकती है कि आतंक के खात्मे हेतु ओबामा ने जो रणनीति बनाई थी वह काफी हद तक कारकर साबित हुई है। दुनिया भर में आतंक का पर्याय बन चुके दुर्दांत आतंकी ओसामा बिन लादेन की मौत भी ओबामा के कार्यकाल की शानदार उपलब्धि कही जाएगी। वहीं रोमनी अमेरिका की जनता को यह भरोसा दिलाने में नाकाम रहे कि उनके पास बिना टैक्स बढ़ाए और मेडिकेयर से जुड़ी सुविधाओं में कटौती के बिना देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए कोई ठोस नीति है? इससे इतर ओबामा के 4 वर्ष के राष्ट्रपति कार्यकाल में शायद ही कोई ऐसा अविस्मरणीय कार्य हुआ हो जिसे याद रखा जाए। किन्तु इन सब के बावजूद ओबामा की ऐतिहासिक जीत के कई मायने हैं। अव्वल तो ओबामा ने अमेरिकी जनता को जो सपने 4 वर्ष पूर्व दिखाए उनके क्रियान्वयन और परिणाम प्रारंभिक स्तर पर संतोषजनक रहे। लिहाजा अमेरिकी जनता का उनपर विश्वास करना और उम्मीद जताना लाजमी था। हालांकि ओबामा की इस जीत में अमेरिकी समाज के विभाजित होने का बड़ा रोल रहा। अमेरिका का अमीर तबका मिट रोमनी के समर्थन में रहा जबकि अपेक्षाकृत गरीब जनता ने खुलकर ओबामा का समर्थन किया। अफ्रीकी-अमेरिकंस और हिस्पैनिक्स ने जमकर ओबामा का समर्थन किया जबकि गोरों ने रिपब्लिकन उम्मीदवार रोमनी को सपोर्ट किया। ओबामा को श्वेतों का भी खूब समर्थन मिला। उदाहरण के तौर पर ओहायो में करीब 45 फीसदी श्वेतों के वोट ओबामा को मिले। इसके अलावा ओबामा को लैटिन अमेरिकी जनता के 70 फीसदी, अफ्रीकी-अमेरिकी मूल के लोगों के 96 फीसदी वोट तो मिले ही, एशिया-प्रशांत मूल के अमेरिकियों ने भी ओबामा का जमकर समर्थन किया। अब जबकि ओबामा पुन: दुनिया के सबसे ताकतवर देश के राष्ट्रपति पद को सुशोभित करने जा रहे हैं और इस बार जनता की उम्मीदों को पंख लग चुके हैं तथा दुनिया भर की निगाहें उनपर टिकी हुई हैं, ऐसे में भारत के प्रति उनका क्या दृष्टिकोण रहता है यह देखना दिलचस्प होगा। हालांकि अपने पहले कार्यकाल में भी उन्होंने भारत के प्रति द्वेषपूर्ण कार्य करने से परहेज रखा किन्तु दूसरी ओर पाकिस्तान को सैन्य व आर्थिक सहायता प्रदान कर दोनों देशों के आपसी रिश्तों में खटास की लकीर भी खींच दी। हां, अन्य अमेरिकी राष्ट्रपतियों की तुलना में ओबामा ने कश्मीर मुद्दे पर तथस्थ रुख अपना कर विवादों को जन्म देने से बचा लिया। हो सकता है इन सबके पीछे अमेरिकी आर्थिक हित छुपे हों? दरअसल वैश्विक आर्थिक मंदी की मार झेल चुके अमेरिका व अन्य पूंजीवादी देशों से इतर भारत मंदी की मार से अछूता ही रहा। ओबामा भली-भांति यह जानते हैं कि भारत जैसे बड़े देश में उनके आर्थिक हितों की पूर्ति होना असंभव नहीं है। दुसरे एशिया में चीन के बढ़ते प्रभुत्व को कम करने और महाशक्ति बनने से रोकने में भारत अमेरिका का अहम सहयोगी हो सकता है। फिर भी अभी कुछ ऐसे अहम मसले हैं जिनका हल भारत और अमेरिका को मिलकर निकालना होगा। जैसे भारत से अमेरिका आने वाले लोगों और भारत में निवेश के रास्ते में आने वाली बाधाएं अमेरिका को चिंतित करती रही हैं। वहीं आउटसोर्सिंग के मुद्दे पर भी ओबामा का रुख भारत-विरोधी है। कुल मिलकर ओबामा का दोबारा अमेरिका का राष्ट्रपति चुना जाना भारत के परिपेक्ष्य से न तो अच्छा है; न ही बुरा। राष्ट्रपति चुने जाने के बाद अपने अद्र्धरात्रि भाषण में ओबामा ने अमेरिका की अखंडता और संप्रभुता को अक्षुण रखने की वकालत करते हुए देशवासियों से एकजुट होकर अमेरिका को संगठित व विकासोन्मुखी बनाने के लिए संकल्पित होने का आव्हान किया। उन्होंने देशवासियों को उनका साथ देने के लिए धन्यवाद भी दिया। देखा जाए तो उनके संदेश से भले ही उनकी आगामी योजनाओं व विचारों का खुलासा न होता हो किन्तु उन्होंने अमेरिकियों की आंखों में तो सपनों और उम्मीदों का ज्वर पैदा कर ही दिया है। आम अमेरिकी नागरिकों को घर और नौकरी जैसी मूलभूत आवश्यकता के अवसर प्रदान करना ओबामा की सबसे बड़ी अग्निपरीक्षा है। कहा जा सकता है कि ओबामा की जीत का यह सफऱ अब काँटों भरी डगर के रूप में परिलक्षित होने जा रहा है।