नारी को लेकर महर्षि मनु के विचार
जिस कार्य को करने में जो व्यक्ति कुशल हो , उसको वही कार्य सौपें जाने चाहिए। जैसे मनु महाराज ने कर्म के आधार पर ही चार वर्ण बनाए थे। जिनको आज जातिगत बना दिया गया है , जो मनु महाराज की सोच के विपरीत हैं । आप भी अपने घर में आज भी किसी उपयुक्त व्यक्ति को वही जिम्मेदारी सौंपते हैं जो वह करने में सक्षम होता है।आप अपने परिवार में स्वयं जिम्मेदारी तय करते हैं कि इस कार्य को करने में अमुक व्यक्ति उपयुक्त है। शूद्र का बच्चा ब्राह्मण हो सकता है व ब्राह्मण का बच्चा शूद्र हो सकता है। सबको मालूम है कि जन्म से सभी शूद्र हैं। मनु महाराज की स्पष्ट व्यवस्था है कि :–
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् भवेत् द्विजः ।
वेद-पाठात् भवेत् विप्रः ब्रह्म जानातीति ब्राह्मणः ।।
जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पठान-पाठन से विप्र होता है और जो ब्रह्म को जानता है वह ब्राह्मण कहलाता है ।
ब्राह्मण का स्वभाव
शमोदमस्तपः शौचम् क्षांतिरार्जवमेव च ।
ज्ञानम् विज्ञानमास्तिक्यम् ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ।।
अर्थात चित्त पर नियन्त्रण, इन्द्रियों पर नियन्त्रण, शुचिता, धैर्य, सरलता, एकाग्रता तथा ज्ञान-विज्ञान में विश्वास । वस्तुतः ब्राह्मण को जन्म से शूद्र कहा है । यहाँ ब्राह्मण को क्रिया से बताया है । ब्रह्म का ज्ञान आवश्यक है । केवल ब्राहमण के घर पैदा होने से कोई व्यक्ति ब्राह्मण नहीं होता ।
ब्राह्मण के कर्त्तव्य
निम्न श्लोकानुसार एक ब्राह्मण के छह कर्त्तव्य इस प्रकार हैं :–
अध्यापनम् अध्ययनम् यज्ञम् यज्ञानम् तथा ।
दानम् प्रतिग्रहम् चैव ब्राह्मणानामकल्पयात ।।
शिक्षण, अध्ययन, यज्ञ करना , यज्ञ कराना , दान लेना तथा दान देना ब्राह्मण के ये छह कर्त्तव्य हैं ।
मनु की आलोचना गलत
कार्यकुशलता के आधार पर ही वर्ण और व्यक्ति निर्धारित होते हैं। सेना में या अन्य कहीं सामूहिक क्षेत्र में आप देखते हैं कि कार्य करने की योग्यता के आधार पर ही कार्य बांटे जाते हैं चाहे वह ऑफिसर से हूँ या सामान्य सैनिक इसीलिए मनु महाराज ने मनुस्मृति का निर्माण किया था । आज लोग मनुस्मृति के वास्तविक स्वरूप को समझे बिना और यहां तक कि मनुस्मृति को पढ़े बिना मनु महाराज को आलोचित करते हैं । वह आलोचना अनुचित है । बिना समुद्र में उतरे उसकी गहराई को बताना जिस प्रकार गलत होता है अनुमानित होता है , ऐसे ही मनुस्मृति को पढ़े बिना जो लोग आलोचना करते हैं वह उपयुक्त नहीं है।
जैसे नदी अपना नीर स्वम नहीं पीती वह वृक्ष अपना फल नहीं खाते ऐसे ही सत्पुरुष अपना शरीर अपना नहीं समझते दूसरों के लिए अर्पण करने में तत्पर रहते हैं — परोपकाराय संताम विभूतय।
उदार कौन हैं?
जो मनुष्य अपने सुख के आश्रय का भी दान कर दे अर्थात जो दूसरों को सुखी करने के लिए स्वयं अपने सुख का त्याग कर दे , वही उदार पुरुष होते हैं।
मनुष्य को अपनी आकस्मिक विपत्तियों का सामना करने के लिए कुछ धन अवश्य संचित करना चाहिए। वृद्धों को भी धन अपने पास रखना चाहिए।आज संसार में सर्वत्र अथवा चहुंदिश पतन एवं ह्रास हो रहा है , परस्पर संबंधों के भरोसे और ताने-बाने टूट रहे हैं ,हम विखंडन और निराशा की तरफ जा रहे हैं भारत की सभ्यता और संस्कृति विलुप्त हो रही है ।परिवारों में एकल परिवार का भाव अधिक छा गया है। केवल मैं , मेरे बच्चे और पति या पत्नी ही परिवार तक सीमित रह गए हैं । वह बातें खत्म हो गई जब कई कई भाई और बहनों 1- 2 कमरों के मकान में खुशी – खुशी संयुक्त परिवार में रह लेते थे।
प्रेम प्यार के दिन गए , गए धर्म के गीत ।
इकला इकला नर चले होकर के भयभीत ।।
वर्तमान समय में वृद्धों के लिए अपने पास धन रखना भी आवश्यक हो गया जिससे कि वृद्धावस्था में वृद्ध लोग परमुखापेक्षी ना रहे।
एक छोटा सा उदाहरण व्यक्तिगत अनुभव के आधार पर प्रस्तुत कर रहा हूं । वर्ष 2002 में जून माह में मैं सपरिवार रामेश्वरम गया हुआ था ।वहां शाम को धर्मशाला में जाकर हम रुके थे। सुबह को सूर्योदय से पूर्व हम लोग नित्य प्रति के कार्यों से निवृत्त होकर समुद्र तट पर सूर्योदय की छटा देखने के लिए जाना चाहते थे कि तभी हमको बरामदे में चारपाई पर विराजमान एक वृद्ध ने अपनी तरफ बुलाया ।उन्होंने सोचा ये हिंदी भाषी हैं ।दिल्ली की तरफ के लोग आए होंगे तो वह बहुत उत्सुक थे , हमसे बात करने के लिए। उन्होंने उत्सुकतावश पूछा कि — कहां से आए हैं ? हमने अपना परिचय दिया तो कहने लगे कि गाजियाबाद में तो मेरे भाई की फ्लोर मिल है। अपना परिचय देते हुए और बताया कि वे मूलतः मोगा पंजाब के हैं और यहां कोयंबतूर में उनका अपना व्यवसाय है।
मोगा में हमारे यहां फ्लोर मिल थी ।ज्ञानी जैलसिंह हमारे यहां ₹10 के लिए फ्लोर मिल पर नौकर रहे थे। यह धर्मशाला हमारे पिताजी और उनके तीन भाइयों ने मिलकर बनवाई थी । ऐसी ही धर्मशाला हमारी मथुरा और हरिद्वार में भी हैं ।उन्होंने हमसे बहुत ही सहृदयता से बातें कीं और नहाने धोने की व्यवस्था के बारे में हमसे पूछा । हम बहुत ही शीघ्रता कर रहे थे लेकिन वह हमसे अधिक बातें करना चाहते थे। सूर्योदय देखने का लालच था हमारे मन में ,लेकिन वह बैठाना चाह रहे थे।
आखिर हम उनसे कह कर चले गए कि हम सूर्योदय देखना चाहते हैं। जब हम समुद्र किनारे पहुंचे तो वहां पर सूर्योदय की दिशा में काफी बादल छा गए और हम यह दृश्य नहीं देख पाए ।हम निराश होकर धर्मशाला लौट आए। उनके द्वारा हमको पुनः बुलाया गया । यह बताया गया कि मेरे चार बेटे हैं । मैंने चारों को एक-एक करोड़ रूपया व्यवसाय करने के लिए दे दिया है ।उन सबके अलग-अलग मकान भी दिए हैं। वे कोयंबतूर में रहते हैं । मैंने अपने हाथ की अंगूठी और घड़ी उतार करके भी उनको दे दी कि हमें कुछ नहीं चाहिए। मेरी पत्नी का देहांत पूर्व में हो चुका है। यह धर्मशाला हमारी ट्रस्ट प्रॉपर्टी है । इसकी आमदनी से मैं कोई पैसा नहीं ले सकता। यह एक कमरा न्यासियों के लिए आरक्षित होता है जिसमें मै रहता हूं। इसमें हम जितने समय चाहे रह सकते हैं लेकिन अब मैं खाऊं कहां से ,कपड़े कहां से पहनूं। क्योंकि मेरे लड़के मेरे विषय में अब नहीं पूछते कि आप कहां हैं ?कैसे हैं ? कब आओगे ? जो मकान मैंने बनाकर के दिए थे उनमें मेरा प्रवेश पुत्र वधूओं द्वारा वर्जित कर दिया गया है ।आप एक अधिवक्ता होने के नाते मेरे पुत्रों के विरुद्ध कानूनी कार्यवाही कीजिए ।मैंने उनसे कहा कि नहीं इससे आपके परिवार की शांति और भंग होगी ।वृद्ध ने मुझसे कहा कि मैं अपने जीवन काल में अपने पुत्रों को नेस्तनाबूद देखना चाहता हूं , इससे ज्यादा तो कुछ नहीं हो सकता।
इस बुजुर्ग द्वारा अपने पुत्रों के लिए दिए गए ऐसे अशुभ वचनों को सुनकर आप आज के परिवेश को समझ गए होंगे।
मैं आज तक उस वृद्ध पिता के बारे में सोचता हूं कि सचमुच उसके हृदय में कितनी पीड़ा रही होगी ? जीवन भर जिनके लिए कमाया और जिन्हें जीवन भर की सारी कमाई दे दी , वह दो रोटी के लिए भी नहीं पूछ सकते । नहीं कह सकते कि आओ हमारे पास और भोजन कर लो या कुछ अपने मन की बातें हमसे सांझा कर लो । इसलिए मैं कहता हूं कि बुढापे के लिए भी आपके पास बैंक बैलेंस अलग से होना चाहिए।
आचरण सुधारो
मनुष्य को पहले अपनी बुरी आदतें छोड़नी चाहिए ,तभी वह दूसरों को उपदेश देने का अधिकारी होता है। पहले मनुष्य गम दूर करने के लिए नशा करता और इसी में गलत होता चला जाता है।
पहले पीते थे कोई माकूल मौका ढूंढ कर।
रफ्ता रफ्ता बेसब्र पीने की आदत हो गई।
इसलिए पान ,बीड़ी ,तंबाकू, शराब ,जुवा, गांजा, अफीम, हेरोइन आदि का नशा नहीं करना चाहिए।
पत्नी को वामांगी क्यों कहते हैं ?
क्योंकि पुरुष के वाम पार्श्व में हृदय होता है। विवाह संस्कार के समय यह हृदय पत्नी को मंत्रों द्वारा दे दिया जाता है तथा उसकी जगह पत्नी को दे दी जाती है ।इसलिए पत्नी को वाम भाग में बैठाया जाता है ।इसी कारण से पत्नी को वामांगी कहा जाता है। सिंदूरदान, द्विज आगमन के समय, भोजन ,शयन, सेवा के समय में पत्नी हमेशा वाम भाग में रहे ।आशीर्वाद ग्रहण करते समय अभिषेक के समय ,ब्राह्मणों के पैर धोते समय पत्नी वाम (उत्तर )में रहे।
पत्नी (दक्षिण )दाएं भाग में कब-कब बैठती है ?
कन्यादान विवाह , प्रतिष्ठा यदि कर्म एवं अन्य धार्मिक कार्यों में पत्नी सदैव दक्षिण भाग में रहे । इसी प्रकार जात कर्म , नामकरण , अन्नप्राशन और निष्क्रमण संस्कार के समय पत्नी और बालक दोनों दांई ओर रहें । जो कर्म स्त्री प्रधान होते हैं उसमें स्त्री वामांग में बैठती है या यूं कहिए जो कर्म ही अलौकिक फलदायक हैं , उसमें पत्नी वाम भाग में रहती है । जैसे मांग में सिंदूर भरना उपरोक्त में बताया गया। यह इहलौकिक कार्य हैं ।जो पुण्य कार्य के साधन नहीं है ।परंतु यज्ञ आदि जो दूसरा समूह उपरोक्त में बताया गया है ,के कार्य पुण्यदायक पुरुष प्रधान माने गए हैं ।इन कार्यों में पत्नी दक्षिण भाग में रहती है।
पति पत्नी जब आपस में झगड़ते हैं तो तमाशा देखते हैं पड़ोसी और बच्चे। अतः ऐसे आचरण से बचना चाहिए जिससे हम स्वयं ही तमाशा बन जाएं । इस संबंध में मनु महाराज की व्यवस्था का पालन करना चाहिए :–
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः ।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः ।।
अर्थात जहां स्त्री जाति का आदर-सम्मान होता है, उनकी आवश्यकताओं-अपेक्षाओं की पूर्ति होती है, उस स्थान, समाज, तथा परिवार पर देवतागण प्रसन्न रहते हैं । जहां ऐसा नहीं होता और उनके प्रति तिरस्कारमय व्यवहार किया जाता है, वहां देवकृपा नहीं रहती है और वहां संपन्न किये गये कार्य सफल नहीं होते हैं ।
शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम् ।
न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा ।।
मनु महाराज कह रहे हैं कि जिस कुल में पारिवारिक स्त्रियां दुर्व्यवहार के कारण शोक-संतप्त रहती हैं उस कुल का शीघ्र ही विनाश हो जाता है, उसकी अवनति होने लगती है । इसके विपरीत जहां ऐसा नहीं होता है और स्त्रियां प्रसन्नचित्त रहती हैं, वह कुल प्रगति करता है । (परिवार की पुत्रियों, बधुओं, नवविवाहिताओं आदि जैसे निकट संबंधिनियों को ‘जामि’ कहा गया है ।)
जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः ।
तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः ।।
मनु महाराज की व्यवस्था है कि जिन घरों में पारिवारिक स्त्रियां निरादर-तिरस्कार के कारण असंतुष्ट रहते हुए शाप देती हैं, यानी परिवार की अवनति के भाव उनके मन में उपजते हैं, वे घर कृत्याओं के द्वारा सभी प्रकार से बरबाद किये गये-से हो जाते हैं । (कृत्या उस अदृश्य शक्ति की द्योतक है जो जादू-टोने जैसी क्रियाओं के किये जाने पर लक्षित व्यक्ति या परिवार को हानि पहुंचाती है ।
तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः ।
भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च ।।
मनु का कथन है कि अतः ऐश्वर्य एवं उन्नति चाहने वाले व्यक्तियों को चाहिए कि वे पारिवारिक संस्कार-कार्यों एवं विभिन्न उत्सवों के अवसरों पर पारिवार की स्त्रियों को आभूषण, वस्त्र तथा सुस्वादु भोजन आदि प्रदान करके आदर-सम्मान व्यक्त करें ।
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्त्रा भार्या तथैव च ।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ।।
मनु जी कहते हैं – जिस कुल में प्रतिदिन ही पत्नी द्वारा पति संतुष्ट रखा जाता है और उसी प्रकार पति भी पत्नी को संतुष्ट रखता है, उस कुल का भला सुनिश्चित है । ऐसे परिवार की प्रगति अवश्यंभावी है ।
सास ससुर को गाली देने वाली रोज क्लेश करने वाली पति की निंदा करने वाली स्त्री जोंक की योनि को प्राप्त होती है। ऐसे ही अंदर से दुष्ट और बाहर से सज्जन दिखने वाला और गायत्री संध्या आदि न करने वाला बगुलों की योनि को प्राप्त करता है । एक मनुष्य दूसरे को चोट पहुंचाने की सोचता है लेकिन पता उसको जब चलता है जब स्वयं को चोट लगती है।
अपने नफे के वास्ते मत और का नुकसान कर।
तेरा भी नुकसान हो वेगा इस बात का ध्यान कर।
पितामह भीष्म ने शरशैय्या पर पड़े हुए युधिष्ठिर को जो उपदेश दिए थे उनमें से एक उपदेश यह भी था कि नौकरों के साथ अधिक हंसी ठिठोली नहीं करनी चाहिए। तथा अपने भ्रत्य , प्रसादिकों व सेवकों को उचित वस्त्र खाद्य पदार्थ आदि देकर संतुष्ट रखना चाहिए।
मुंह के दान , तीर्थ स्नान, गरीब, अनाथ ,संत और देश की सेवा व प्रभु स्मरण से सबसे बड़ा फल मिलता है। विद्या पढ़ना और भजन करना इत्यादि मौके का प्रत्येक कार्य अधिक फलता है।
अवसर हमेशा बुद्धिमान के पक्ष में लड़ता है।
विचार और स्वभाव जब एकाकार हो जाते हैं तब अचार बन जाते हैं।
किसी भी मनुष्य का शुद्ध व शुभ्र अंतःकरण ही उसका आभूषण होता है। दूसरे , शब्दों में यह कह सकते हैं कि जिंदगी का आखिरी जेवर ज़मीर है।
जो विनय ,बुद्धि विद्या, कुल, और आयु में बड़े हो जो सिद्ध पुरुष हो या जो आचार्य हो ,उनके सत्संग और सेवा में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। बड़े लोगों की सेवा मन लगाकर विनम्रता से करनी चाहिए उनके सानिध्य में छोटा बनकर रहना चाहिए ।
विश्व में यह तो एक अनोखी घटना है कि जहां अपने मित्र गरीब सुदामा के कृष्ण भगवान ने पैर धोए हैं , उसका आदर सत्कार किस प्रकार किया है ? पूरे राज् समाज के समक्ष। आज के युग में अपने माता पिता और गुरु तक के पैर छूना आज के बच्चे उचित नहीं मानते। यही हमारे पतन का कारण बनते जा रहे हैं कि हम अपनी मर्यादाओं को भूलते जा रहे हैं।
जहां गुरुजन सोते बैठते हों उस शैय्या या आसन पर सोना या बैठना नहीं चाहिए। गुरुजनों के आने पर अपनी शैय्या और आसन से उठकर उनका स्वागत करना चाहिए बैठे-बैठे नहीं।
गुरुजनों का नाम लेकर या तुम कहकर नहीं बुलाना चाहिए । उन्हें उनकी उपाधि या योग्यता संबंधी उपाधि से बुलाया जाना चाहिए।
जब अपने से श्रेष्ठ बड़े या गुरुजनों से वार्तालाप चल रहा हो तो उस समय उनकी बातों को नहीं काटना चाहिए ।जब उनका वाक्य पूरा हो जाए तब अपनी शंका अथवा अन्य प्रकार की बातें करनी चाहिए।
माला में 108 दाने क्यों?
शुभ कार्यों के काम आने वाली माला में 108 ही दाने होने का भी वैज्ञानिक आधार है ।एक पल में हमारे 6 स्वास निकलते हैं । ढाई पल या 1 मिनट में 15 स्वास तो 1 घंटे में 900 इस तरह 24 घंटे में 216 00स्वास आते हैं।
जिनका जोड़ 2 + 1 + 6 + 0 + 0 = 9 होता है।
प्रकृति विज्ञान के अनुसार नक्षत्र 27 होते हैं। प्रत्येक नक्षत्र के चार पद होते हैं। 27 नक्षत्रों को उनके 4 पदों से गुणा करने पर 108 संख्या आती है । इस संख्या का + 1 + 0 + 8 = 9 होता है । यह संख्या एक प्रकार से सारे संसार का प्रतिनिधित्व करती है।
ब्रह्म अंक शास्त्र में 9 माना गया है , जिसका परिवर्तन नहीं होता है ।जैसे 9 गुना 1 बराबर 9 होता है , 9 गुणा 2 = 18 होता है । जिसमें 1 + 8 = 9 होता है। ऐसे ही 9 गुना तीन = 27 होता है । जिसमें 2 + 7 = 9 होते हैं । 9 गुना 4 बराबर 36 होते हैं । जिसमें 3 + 6 = 9 होते हैं । इसके अलावा 9 गुणा 5 बराबर पैतालीस अर्थात 4 + 5 = 9 होते हैं।
युवाओं की संख्या वर्षों की भी ऐसी होती सतयुग में 1728000 वर्ष होते हैं । जिनका योग 1 + 7 + 2 + 8 = 18 और 1 + 8 = 9
त्रेता युग में 1206000 वर्ष होते हैं और इन अंको का योग 1 + 2 + 9 + 6 = 18 अर्थात 1 + 8 = 9
द्वापर युग में 864000 वर्ष होते हैं । इनका योग 8 + 6 + 4 = 18 अर्थात 1 + 8 = 9
इसी प्रकार कलयुग में 432000 वर्ष होते हैं इनके अंको का योग 4 + 3 + 2 = 9
एक कल्प में चार करोड़ 32लाख वर्ष होते है। जिसको योग भी 9 होता है
ब्रह्मा का 1 वर्ष 31 10 40 0000000 वर्ष है इनके अंको की संख्या का जोड़ भी 3 + 1 + 1 + 4 = 9 होता है।
ग्रह नौ होते हैं।
नवार्ण मंत्र के वर्षों की संख्या भी नौ होती है।
नक्षत्र 27 होते हैं।
शरीर के क्षेत्रों की संख्या भी नौ होती है।
नवरात्रि में 9 दिन अनुष्ठान किया जाता है।
कार्तिक शुक्ल नवमी को भी अक्ष य नवमी होती है।
यह अंक 9 ब्रह्म का प्रतीक होता है। इसलिए इसको हमारे धर्म ग्रंथों में अत्यंत शुभ माना जाता है ।इसलिए शुभ संख्या को ध्यान में रखते हुए महर्षि व्यास जी ने पुराण के 18 उपपुराण लिखे हैं ।महाभारत के पर्वों की संख्या भी अट्ठारह होती है ।भगवत के श्लोकों की संख्या 18000 है । नौ की संख्या इकाइयों में सबसे बड़ी है।
देवेंद्र सिंह आर्य
चेयरमैन : उगता भारत