दिल्ली दुष्कर्म:कानून से अधिक व्यवस्था में दोष है

dilliदिल्ली में हुई एक बस में युवती के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने दिल्ली को दहला दिया है। देश की राजधानी में आजाद भारत के इतिहास में पहली बार देश के युवाओं ने ऐसी हुंकार भरी है कि उसका कोई सानी नही है। कोई दूसरा उदाहरण नही है। बिना नेता के और बिना राजनीति के समाज की बिगड़ती स्थिति के प्रति भारत के युवा वर्ग की पीड़ा को समझने के लिए यह आंदोलन काफी है। वास्तव में ऐसा लगता है कि देश में क्रांति का बिगुल बज गया है। लेकिन इस समय भारत के युवा वर्ग को कुछ समझने की आवश्यकता है। काम इस जघन्य अपराध के दोषियों को फांसियों पर लटकाने से भी नही चलेगा और ना ही ऐसे अपराधों के अपराधियों को भविष्य में नपुंसक बनाने से ही चलेगा। क्योंकि ऐसे कानूनों का दुरूपयोग होने की पूरी-पूरी संभावना है। दोष व्यवस्था में है-व्यवस्था ही लोगों को अपराधी बना रही है। व्यवस्था ने मनुष्य की मानसिकता को और उसकी आपराधिक प्रवृत्ति की मौलिकता को और उसकी आपराधिक प्रवृत्ति की मौलिकता को समझने का प्रयास नही किया है। इसलिए सारी व्यवस्था इस समय किंकत्र्तव्य विमूढ़ की स्थिति में भौंचक्की सी खड़ी है। वह समझ नही पा रही कि आखिर राष्ट्रपति भवन की ओर आक्रोशित युवा शक्ति को बढऩे की आवश्यकता क्यों पड़ी है?

गीता (3-37) में कहा गया है-

काम एष क्रोध एष रजोगुण समुदभव: अर्थात यह काम और क्रोध हैं जिनकी प्रेरणा से मनुष्य पाप में अथवा आसुरी प्रवृत्तियों में प्रवृत्त होता है। भारत का प्रचलित कानून अपराधी को सजा देता है लेकिन उसकी आपराधिक मानसिकता पर चिंतन नही करता है। जबकि गीता की उपरोक्त सूक्ति हमें अपराधी की मानसिकता पर चिंतन करने की प्रेरणा दे रही है। सचमुच हमें पहले पाप या अपराध के मूल कारण को खोजना चाहिए। उस मूल कारण को खोजकर उसे दूर करने का प्रयास करना चाहिए। जन्म से प्रत्येक मनुष्य शूद्र पैदा होता है। संसर्ग व संपर्क से वह द्विज बनता है, विद्वान बनता है। इसलिए शिक्षा में समानता आवश्यकता है। शिक्षा के लिए गये विद्यार्थियों को शूद्र मानकर उन्हें द्विज बनाने के लिए प्रयास गुरू करता है। द्विज का अर्थ है-दूसरा जन्म लेना। आचार्य के गुरूकुल को गर्भ माना गया है और उससे दक्ष होकर, दीक्षित होकर बाहर आना ही स्नातक बन जाना है-अर्थात स्नान करके पवित्र होकर बाहर आना। आज उसी उसी पवित्र व्यवस्था की आवश्यकता है।

गुरूकुल में आचार्य बताता था कि तुम्हें शिव संकल्पों वाला बनना है। शिव अर्थात ऐसे संकल्प जिनसे अपना अपने परिवार का, समाज का, राष्ट्र का और  प्राणिमात्र का कल्याण हो। यजुर्वेद में ऐसे कई मंत्र हैं-जिनमें बार बार ‘तन्मे मन: शिवसंकल्पमस्तु’ अर्थात यह मेरा मन शिव संकल्पों वाला हो, कहा गया है।

आचार्य की गुरूकुलीय व्यवस्था के लिए मनु महाराज ने लिखा है:-

मृगयाक्षो दिवास्वपन: परिवाद: स्त्रियो मद:।

तौय्र्यात्रिकं वृथारया च कामजो दशको गण:।।

इस श्लोक में बताया गया है कि काम से उत्पन्न होने वाले अपराध दस हैं:-शिकार खेलना, अक्ष, जुआ खेलना, चौपड़ आदि खेलना, दिन में सोना, कामुक साहित्य पढऩा, दूसरे की निंदा, स्त्रियों का अतिसंग करना, शराब, अफीम, गांजा, भांग, चरस आदि मादक द्रव्यों का सेवन करना,गाना बजाना, नाचना, नचाना, सुनना, सुनाना देखना-दिखाना एवं व्यर्थ में इधर उधर घूमना।

ये कामज दोष (ऐसे अपराध जिन्हें समाज के विरूद्घ अपराध कहा जाता है) हैं। ये वो गुरूकुलीय शिक्षा व्यवस्था थी जिसमें अपराध को सर्वप्रथम एक मानवीय स्वभाव का दोष स्वीकार कर उसे वहीं से दूर करने का प्रयास किया जाता था। उनके दूर होने पर सत्यम् शिवम सुंदरम का जो सामाजिक परिवेश बनता था उसे ही धर्म कहा जाता था। इन दोषों से मुक्त हो जाना हमारा प्रत्येक मनुष्य का धर्म स्वीकार किया गया है। लेकिन आज धर्म तो एक गाली बन गया है। धर्म का अर्थ माना जाता है कि आप समाज के लिए एक आफत हैं। मनु ने जिस प्रकार काम की मानसिकता से उपजे उपरोक्त दोषों (सामाजिक अपराधों) को इंगित किया है उसी प्रकार उन्होंने क्रोध से उत्पन्न होने वाले दोषों को भी इंगित-चिन्हित किया है-

पैशन्युं साहसं द्रोह ईष्र्या सूपार्थ दूषणम।

वाग्दण्डजं च पारूष्यं क्रोच्च जो अपि गणो अष्टक:।।

अर्थात चुगली करना, बलात्कार करना, द्रोह रखना, ईष्र्या करना, निंदा करना, अधर्म से धन कमाना, कटु बोलना, व निष्ठुर दण्ड देना ये आठ अशिव अकल्याणकारी दोष हैं। ऋषियों ने काम और क्रोध का मूल लोभ माना है। इन तीनों को  समाप्त करना ही व्यवस्था का सृजन करना है। मानो सत्य (सत्यम) की सुंदर (सुंदरम) अवस्था को शिवस्वरूप (शिवम) में स्थापित करना है।

प्रचलित कानून के द्वारा हम दोषियों को फांसी पर चढ़वा देंगे लेकिन सोचने वाली बात ये है कि क्या इस प्रकार दोषियों को फांसी पर चढ़ा देने से काम, क्रोध और लोभ की बढ़ती प्रवृत्ति पर समाज में रोक लग जाएगी? यहां बात पाशविक लोगों के अपराध की पैर्रवी करने की नही चल रही-उन्हें तो सजा मिलनी ही चाहिए पर यहां विचारणीय बात ये है कि व्यवस्था इसके  उपरांत क्या और लोगों को अपराधी बनने से रोक पाएगी? घर में ताला चोरी न होने के लिए नही डाला जाता है, बल्कि एक साधारण व्यक्ति परायी वस्तुओं को देखकर चोर न बन जाये इसलिए उसे रोकने के लिए ताला डाला जाता है। ताले की खोज व्यवस्था को सुव्यवस्थित बनाये रखने के लिए ही की गयी है। पर ताले के पीछे भी मनुष्य की एक कमजोरी खड़ी है-लोभ की प्रवृत्ति। उस लोभ पर रोक लगाने के लिए ताला एक उपाय है-पर ताला एक अंतिम उपचार नही है। अंतिम उपचार तो धर्म है- अर्थात चाहे किसी का सोना गली में ही क्यों न पड़ा हो-उधर देखना तक भी नही। इसी प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए अस्तेय और अपरिग्रह को अर्थात चोरी न करना और आवश्यकता से अधिक संग्रह न करना (धर्म की व्यवस्था) हमारे यहां एक अंतिम उपचार माना गया। कहने का अभिप्राय है कि ताले के उपाय के पीछे खड़ी लोभ की प्रवृत्ति को अस्तेय और अपरिग्रह के उपचार से ही समाप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार हमें कामज और क्रोधज अपराधों के लिए फांसी की सजा के उपाय के पीछे खड़े धर्म के अंतिम उपचार पर विचार करना चाहिए। इसके लिए शिक्षा को संस्कार आधारित करना होगा। कानून को धर्म संगत अर्थात धर्मानुकूल बनाना होगा। कानून को धर्म के उपचार से नैतिक व्यक्ति के निर्माण से ही समाजोपयोगी बनाया जा सकता है। कानून से समाज को हांकने की बातें करना और कानून को ही समस्या का अंतिम उपचार मानना सिरे से ही गलत है। शासन कानून बनाता जा रहा है और आदमी और भी अधिक शातिर होता जा रहा है। यह सांप सीढ़ी का खेल है जो सदियों से चलता आ रहा है। पर समाज सुसंस्कृत नही बन पा रहा है। हम एक संवेदनाशून्य समाज में जी रहे हैं क्योंकि इस समाज के पीछे एक संवेदनाशून्य कानूनी व्यवस्था खड़ी है।

भारत का युवा आज सड़कों पर है। सचमुच एक संवेदनशील समस्या को लेकर युवा सड़कों पर आया है। हमें उसके हौंसले की दाद देनी चाहिए। लेकिन आंदोलन क्षणिक उत्साह में कहीं बुलबुले की तरह न मिट जाए। इसलिए गंभीरता से विचार करने की आवश्यकता है। प्रचलित परिभाषाओं पर व प्रचलित व्यवस्था पर और उसके विकल्पों पर विचार करने की आवश्यकता है-आमूल चूल परिवर्तन को ही समग्र क्रांति की संज्ञा दी जाती है-रोग को समूल नष्ट करने के लिए आयुर्वेद (देशी उपचार) ही अंतिम विकल्प और अंतिम उपचार स्वीकार कर लिया गया है। अत: राजनीतिक समस्याओं और सामाजिक विसंगतियों के अंतिम उपचार के लिए भी धार्मिक व्यवस्था (देशी उपचार) ही काम करेगी। सारा आंदोलन यदि उसी ओर मोड़ दिया जाए और सरकार से अपराधियों के साथ साथ आपराधिक मानसिकता (कामज और क्रोधज अपराधों को शिक्षा के माध्यम से रोकने हेतु) पर भी कार्य करने को कहा जाए तो हमें मनोवांछित  परिणाम मिल सकते हैं। अत: युवाओं का नारा होना चाहिए कि कानून बदलो राज बदलो। संयोग से राष्ट्रपति भवन में इस समय एक विवेकशील व्यक्ति बैठा है जो आंदोलन के अर्थ समझता है।

भाजपा ऊाहापोह की….

में भली प्रकार देख लिया है कि वहां पर हिंदुओं की क्या स्थिति है इसलिए हमें समझना चाहिए-

एक ही अनुभव हुआ है आदमी की जात से।

जिंदगी काटे नही कटती महज जज्बात से।।

आह भरने से नही होता सय्याद पर कोई असर।

टूटता पाषाण है, पाषाण के आघात से।।

जनता निर्णय ले चुकी है और गुजरात के माध्यम से भाजपा को अपना निर्णय सुना भी चुकी है। अगर भाजपा इस निर्णय को समझ नही पा रही है तो यह कदम भाजपा के लिए आत्मघाती और देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण होगा। भाजपा निर्णायक क्षणों को उसी विवेकपूर्ण ढंग से समझने का प्रयास करे कि समय के सिर पर आगे की ओर बाल होते हैं पीछे की ओर वह सपाट पड़ा होता है। समझदार लोग समय को पहचानते हैं और पहचानकर उसी के अनुसार निर्णय लेते हैं। झूठे अहम को स्वाभिमान का बहम समझकर जो अकड़ कर खड़े रहते हैं वो काल के कपाल पर नया गीत नही लिख पाते। बल्कि काल उन्हें अपने विकराल गाल में समाविष्ट कर लेता है। भाजपा इस बात को समझे। भाजपा का नारा  सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का रहा है, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे की व्याख्या करते हुए भाजपा के नेताओं ने बार बार देश की जनता को समझाया है कि अमुक समय पर अमुक राजा या अमुक नेता ने अमुक निर्णय लिया तो उसके ये-ये घातक परिणाम आए। लम्हों की खता ने सदियों को सजा दिलाई लेकिन यदि भाजपा इस समय खुद निर्णय नही ले पाई तो वह स्वयं अपने लिये भी समझ ले-

लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सजा पाई।

-राकेश कुमार आर्य

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