कृषि प्रधान देश में बेमौत मरते किसान
डॉ. आशीष वशिष्ठ
दीपावली से एक दिन पूर्व महाराष्ट्र में पुलिस की गोलीबारी में दो किसानों की मौत ने दीवाली को बेरौनक कर दिया। अपनी मांगों को मनवाने के लिए अहिंसक प्रदर्शन कर रहे किसानों पर गोलीबारी करना कृषि प्रधान और लोकतांत्रिक राष्ट्र के लिए शर्म की बात है। पुलिस की गोली से किसानों की मौत बर्बर अंग्रेजी राज की याद दिलाती है, जब अपना हक मांगने पर किसानों, क्रांतिकारियों और आंदोलनकारियों को पुलिस के डण्डे, जूतों और गोली का शिकार होना पड़ता था। देश को आजाद हुए छह दशकों से अधिक समय हो चुका है । लेकिन पुलिस की कार्यशैली और प्रशासनिक रवैये में मामूली बदलाव और सुधार ही आ पाया है। पिछले दो दशकों में पुलिस और किसानों के बीच जिस तरह से संघर्ष की घटनाएं बढ़ रही हैं वो चिंता का विषय है। भूमि अधिग्रहण से लेकर फसलों के लाभकारी मूल्य तक किसान को हर कदम पर पुलिस, प्रशासन और सरकार से लड़ाई करनी पड़ती है। सरकार की हठधर्मिता और प्रशासन के नकारेपन से झुंझलाए किसान जब हिंसा पर उतारू होते होते हैं तो पुलिस-प्रशासन गोली और डंडों से किसानों की आवाज दबाने का काम करता है। स्वतंत्रता इस मूल अवधारणा पर आधारित है कि व्यक्ति अपनी भावना को सही अभिव्यक्ति दे सके और अपनी आजीविका को सुचारु रूप से चला सके। इस नजरिए से समाज के प्रत्यके वर्ग और प्रत्येक व्यक्ति के वैधानिक अधिकार की रक्षा करना शासक का कर्तव्य हो जाता है। लोकतंत्र में वैधानिक अधिकारों की रक्षा इसलिए सुनिश्चित मानी जाती है क्योंकि सरकार किसको बनाना है यह जनता ही तय करती है। पर आजाद भारत में देखें तो किसानों के वैधानिक अधिकारों की रक्षा नहीं हो रही है। वह शासकीय तंत्र का गुलाम बनकर रह गया है। किसान खुद अपनी भूमि के स्वामी नहीं हैं, जिससे उन्हें हर तरह के शोषण का सामना करना पड़ता है। अंग्रेजी हुकूमत ने किसानों के शोषण के जो तमाम उपाय व नियम-कानून बनाए थे वो कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी हैं। भू-राजस्व, रिकार्ड व भूमि-अधिग्रहण जैसे नियम, कानून और व्यवस्था उपनिवेशवादी शासकों की ही देन है जिसका खामियाजा आजादी के छह दशकों बाद भी किसान भुगत रहे हैं। भारत में एक बड़ी आबादी किसानों की है और भारत की अर्थव्यवस्था में किसानो का बहुत बड़ा योगदान भी है। लेकिन भारत के किसान दो जून की रोटी के लिए भी मोहताज है और उन्हें देखने वाला कोई नहीं है ना ही कोई राजनेता या ना ही समाज के रहनुमा। आज चाहे पंजाब, बिहार, महाराष्ट्र के किसान हो या फिर उत्तर प्रदेश के कमोबेश सब की हालत एक ही है। दूसरे को भरपेट भोजन उपलब्ध करवाने वाले ये किसान खुद भूखे सोने को मजबूर है। कभी बाढ़ ने तो कभी सूखे ने इन्हें तबाह किया है। सरकारें मुआवजे का ऐलान कर देती है पर उन्हें जमीन तक उतरना अपना कर्तव्य नहीं समझता। जिससे किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। सिंगुर, भट्टा पारसौल से लेकर सांगली तक किसान पुलिस की गोली से मारे जा रहे हैं। पुलिस की गोली से मरने वालों का सरकारी आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं है लेकिन एक अनुमान के अनुमान ये संख्या हजारों में पहुंच चुकी है। पुलिस की गोली से मरने के अलावा कर्ज में डूबे और सरकारी नीतियों से ऊबे किसानों द्वारा आत्महत्या करने का सिलसिला भी थमने का नाम नहीं ले रहा है। किसानों के नाम पर देश भर में इतना पैसा सरकारों द्वारा दिया जाता है उसके बाद भी यदि किसान आत्महत्या करने को मजबूर है तो कही न कही सरकार की लाचारी और योजना में खामियों को दर्शाता है। सरकारी कुनीतियों के कारण छोटे और मझोले किसान जिनके पास 2 से तीन एकड़ जमीन है उसको उपज के लिए जितना लागत लगता है, उतनी कीमत उसे नहीं मिलती। खेती के लिए आवश्यक बीज, खाद, डीजल, कीटनाशक, मजदूरी के पैसे ले लिए, साहूकार से कर्ज लेते हैं। जरूरतमंद किसान कर्ज लेकर खेती करता है, जब फसल होती है, उन्हें बेचकर साहूकार का कर्ज चुकाता है। ब्याज के पैसे बढ़ते जायेंगे इसलिए उसे खेत या खलिहान में ही फसल को औने पौने दाम में बेचना पड़ता है। किसान को भी अपनी घर-गृहस्थी के गुजर-बसर के लिए अन्य सामग्री बाजार से खरीदनी होती है जो काफी महंगे दामों पर मिलती है। बैंकों से मिलने वाला कर्ज अपर्याप्त तो है ही, साथ ही उसे पाने के लिए खूब भागदौड़ करनी पड़ती है। इस दशा में किसान आसानी से साहूकारी कर्ज के चंगुल में फंस जाते हैं। किसानों की आत्महत्या के पीछे कर्ज एक बड़ा कारण है। लघु और सीमांत किसानों के लिए बगैर कर्ज से खेती करना लगभग असंभव हो गया है। सरकार की तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कर्ज के बोझ तले किसानों की आत्महत्या का सिलसिला नहीं रुक रहा है। देश में हर महीने 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जबकि एक लाख 25 हजार परिवार सूदखोरों के चंगुल में फंसे हुए हैं। सूचना के अधिकार कानून के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश में 2008 से 2011के बीच देशभर में 3,340 किसानों ने आत्महत्या की। इस तरह से हर महीने देश में 70 से अधिक किसान आत्महत्या कर रहे हैं। आरटीआई के तहत कृषि मंत्रालय के कृषि एवं सहकारिता विभाग से मिली जानकारी के अनुसार, 2008 से 2011 के दौरान सबसे अधिक महाराष्ट्र में 1,862 किसानों ने आत्महत्या की। आंध्रप्रदेश में 1,065 किसानों ने आत्महत्या की। कर्नाटक में इस अवधि में 371 किसानों ने आत्महत्या की। इस अवधि में पंजाब में 31 किसानों ने आत्महत्या की जबकि केरल में 11 किसानों ने कर्ज से तंग आ कर मौत को गले लगाया। आरटीआई के तहत मिली जानकारी के अनुसार, देश भर में सबसे अधिक किसानों ने सूदखोरों से कर्ज लिया है। देश में किसानों के 1,25,000 परिवारों के सूदखोरों एवं महाजनों से कर्ज लिया है जबकि 53,902 किसान परिवारों ने व्यापारियों से कर्ज लिया। बैंकों से 1,17,100 किसान परिवारों ने कर्ज लिया, जबकि कोओपरेटिव सोसाइटी से किसानों के 1,14,785 परिवारों ने कर्ज लिया। सरकार से 14,769 किसान परिवारों ने और अपने रिश्तेदारों एवं मित्रों से 77,602 किसान परिवारों ने कर्ज लिया। आत्महत्या करने वाले किसानों में सर्वाधिक तादाद लघु और सीमांत किसानों की हैं। इन किसानों की दशा पर केन्द्र और राज्य सरकार द्वारा सिर्फ तात्कालिक उपाय ही किए गए हैं। सरकार के पास लघु और सीमांत किसानों को सक्षम बनाने के लिए कोई दीर्घकालीन योजना दिखाई नहीं देती। जब फसल होती है तो उसे कोई खरीदने वाला नहीं होता। धान, गेहूं आदि को लागत मूल्य पर भी साहूकार नहीं खरीदते न ही सरकार के पास सही व्यवस्था है कि वे उनके उत्पाद को खरीदकर उचित भण्डारण की व्यवस्था कर सके। भण्डारण की व्यवस्था साहूकारों के पास है और वे सस्ता में माल खरीदकर रख लेते हैं
और दाम बढऩे पर धीरे-धीरे निकालते हैं। कई बार हमने देखा सुना है कि फसल के उचित दाम नहीं मिलने पर किसान अनाज को सडक़ों पर फेंक, अपना विरोध दर्ज करते हैं पर उससे भी सरकार की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ता है। और ये हर साल की कहानी है औरअगर हमें पता है कि किस फसल या उत्पाद की कमी
होनेवाली है? तो या तो उसके उत्पादन के लिए समुचित संसाधन और प्रोत्साहन की व्यवस्था की जाए ओर अगर जरूरत हो तो आयात भी समय पर किये जाएं या कोई फसल आवश्यकता से अधिक है, तो उसका सही भंडारण किया जाए या निर्यात की व्यवस्था करें। पर यह सब व्यवस्था कौन करेगा।
हालात यह हैं कि फसल अच्छी हो या खराब किसान का नुकसान निश्चित समझिए। सरकार और सरकारी मशीनरी अगर सचमुच किसान का भला चाहती है तो उसे भी अपने उत्पाद के लागत के आधार पर उसके मूल्य निर्धारण की स्वतंत्रता होनी चाहिए। उन्हें नित्य नई तकनीक से परिचित कराना चाहिए। मानसून पर निर्भरता कम कर, समुचित सिंचाई के साधन विकसित किये जाने चाहिएं। जिसके लिए राष्ट्रीयय बजट में व्यवस्था की जानी चाहिए और उसका ईमानदारी से पालन होना चाहिए।