अब स्वदेशी को बनाना होगा एक जन आंदोलन
दुलीचंद कालीरमन
इटली और अमेरिका की तस्वीर आप सभी ने देखी होगी जिसमें ग्राहक शॉपिंग मॉल में आपस में छीना-झपटी करते नजर आ रहे थे। यहां तक कि टॉयलेट पेपर तक की कमी हो गई तथा उसकी प्रति ग्राहक संख्या निश्चित करनी पड़ी । ऐसा वहां की मॉल-संस्कृति के कारण हुआ। पश्चिम के विकसित देशों में भारत की अपेक्षा जनसंख्या बहुत कम है तथा सुविधाएं ज्यादा। फिर भी यह हाल है कि वहां वेंटिलेटर कम पड़ रहे हैं। स्वास्थ्य व्यवस्था चरमरा गई है। प्रतिदिन कोरोना पीड़ितों की मौतों का आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है। अब गिनती करना व्यर्थ लगने लगा है।भारत में अगर तबलीगी जमात के कृत्य को छोड़ दें तो सरकार ने कोरोना पर काबू कर चुकी थी। सरकार ने अपने सीमित संसाधनों के होते हुए स्थिति पर काबू ही नहीं किया बल्कि वैश्विक स्तर पर कोरोना के विरुद्ध एक नेतृत्व दिया है। चाहे सार्क (SAARC) के देशों के साथ बैठक हो या जी-20 के देशों को एक मंच पर लाने का प्रधानमंत्री मोदी का प्रयास। कोरोना से निपटने के लिए पश्चिम के देश चीन पर निर्भर हो चुके हैं। मास्क से लेकर पर्सनल प्रोटक्शन इक्विपमेंट (पीपीई) तक, सब कुछ चीन से ही आ रहा है। जिसमें से 40% तक खराब या घटिया क्वालिटी का होता है। वेंटिलेटर पर चीन मनमाने दाम वसूल कर रहा है। जबकि भारत में अपने यहां उत्पादित हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन (मलेरियारोधी दवा) का सुरक्षित भंडारण सुनिश्चित करने के बाद विश्व के सभी प्रमुख देशों तथा अपने पड़ोसी देशों को इस मुश्किल घड़ी में मदद करने का आश्वासन दिया है।भारत में लॉकडाउन के दौरान अभी तक इतनी मारा-मारी नहीं हुई। इसका एक कारण यहां की परिवार व्यवस्था है। परिवारों में महिलाएं संचय करने का पुरातन संस्कार साथ लेकर आती हैं । हर घर में अमूमन महीने भर का राशन ले लिया जाता है। इसका दूसरा कारण खुदरा क्षेत्र में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) का नहीं आना रहा। हमारी चौक-चौराहे और पड़ोस की दुकान, चाहे लॉकडाउन के कारण बंद थी, लेकिन हमें इस बात का भरोसा था कि पड़ोस की दुकान पर सब कुछ मिल जाएगा। राज्य सरकारों ने भी मोहल्ले तथा वार्ड में दैनिक उपभोग की वस्तुओं हेतु दुकाने निश्चित कर दी, जिससे भीड़ की स्थिति नहीं बनी और ना ही सामान की किल्लत हुई। जरूरी चीजों के दाम भी आसमान को नहीं छुए तथा प्रशासन की तत्परता से कालाबाजारी भी नहीं हुई।इस लॉकडाउन में हम लोग तीसरे सप्ताह में पहुंच चुके हैं। सरकारों की प्रशासनिक क्षमता की यही परीक्षा की घड़ी है क्योंकि किसानों की रबी की फसल कटने वाली है। ज्यादातर राज्य सरकारों ने केंद्र सरकार से लॉकडाउन को आगे बढ़ाने की जरूरत पर बल दिया है। लेकिन देश की खाद्य सुरक्षा के लिए तथा ग्रामीण भारत की कृषि अर्थव्यवस्था के लिए यह जरूरी है कि किसानों की गेहूं व सरसों की फसल को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदने के सारे प्रबंध किए जाएं।बात चाहे टेस्टिंग किट की हो या पर्सनल प्रोटक्शन इक्विपमेंट की कमी की, भारत में स्टार्टअप से लेकर लघु और मध्यम उद्योग सेक्टर (SME) तथा सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयां कंधे से कंधा मिलाकर सरकार के साथ खड़ी हो गई है। रेलवे, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (BEL), भारतीय रक्षा अनुसंधान संस्थान (DRDO) तक ने अपने यहां वेंटीलेटर बनाने में सफलता हासिल की है तथा वह भी बहुत ही सस्ते दामों पर। कितने ही जिलों में महिला स्वयं सहायता समूह मास्क के निर्माण का कार्य कर रही हैं। जिला प्रशासन ने अपने स्तर पर डॉक्टरों, नर्सों तथा पैरामेडिकल स्टाफ के लिए पर्सनल प्रोडक्शन किट के निर्माण की इकाइयां स्थापित करके उत्पादन भी शुरू कर दिया है। यह सब भारत की इच्छा-शक्ति तथा जुझारुपन को दिखाता है।यहां यह बात ध्यान करने की है कि संकट की इस घड़ी में कौन हमारे साथ खड़ा है तथा अभी तक हम किसके साथ खड़े थे? वह कौन सा महंगा विदेशी ब्रांड है जिसमें कोरोना से लड़ने के लिए भारत की सहायता की है? इस संकट की घड़ी में हमारे साथ सिर्फ हमारा किसान खड़ा था, जो निरंतर दूध और सब्जियां उपलब्ध करवा रहा था। हमारा छोटा व्यापारी, हमारा लघु और मध्यम उद्योग सेक्टर तथा वह सार्वजनिक क्षेत्र खड़ा था, जिसे हम नकारा कहते नहीं थकते। हर पुलिस कर्मचारी जनसेवक की भूमिका में था। हर स्वास्थ्य कर्मी अपनी जान जोखिम में डालकर भी कोरोना मरीजों को बचाने को तैयार है। हर छोटा दुकानदार, रेहड़ी-खोमचे वाला, जिसने घरों तक सामान की आपूर्ति कर इस लॉक डाउन के समय में हमें संभल दिया। यही भारत की असली ताकत है और यही सामूहिक ताकत हर नागरिक के साथ खड़ी थी। कोई भी विदेशी ब्रांड इस संकट की घड़ी में हमारे आस पास भी नहीं था।लॉकडाउन की इस घड़ी में आम आदमी तो मुसीबत में है ही, सरकारे भी आर्थिक बोझ के नीचे दब रही हैं। इस लॉकडाउन के समय में आओ एक बार फिर विचार करें कि भविष्य की हमारी व देश की दिशा व दशा क्या होगी? जो सबक हमने लॉकडाउन के दौरान सीखे हैं, क्या वह हमारी आगे की दशा तय करेंगे या हम उन्हें भूल जाएंगे? इस आर्थिक संकट से निकालकर भारत को अगर फिर पटरी पर लाना है, तो हमें स्वदेशी की राह पर चलना ही होगा। एक आत्मनिर्भर भारत भविष्य का विश्व मार्गदर्शक होगा, अब इसमें कोई गुंजाइश नहीं रह गई है। हमारे स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, छोटे और मध्यम उद्योग, किसान, छोटा दुकानदार, हमारी पारिवारिक संस्थाएं, यही हमें भारत बनाती है। इनकी सामूहिकता, इनका सामूहिक विकास ही स्वदेशी है। स्वदेशी के प्रयोग व विकास का संकल्प आज हमें इस संकट की घड़ी में लेना होगा तथा लॉकडाउन के बाद निभाना होगा। भारत की बेरोजगारी की समस्या के समाधान भी स्वदेशी ही है । अब स्वदेशी को जन-आंदोलन बनाना होगा।दुलीचंद कालीरमन
शिक्षाविद व स्तंभकार
करनाल
9468409948
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