मेरे मालिक की महान आगोश: राही तू आनंद लोक का
गतांक से आगे…
कितनी महान है मेरे मालिक की आगोश?
भूमिका-चित्त का चैन प्रभु के चरणों में है, न कि सांसारिक वस्तुओं के संग्रह में।
बात सरलता से समझ में आए इसलिए एक दृष्टांत को उद्घृत करना चाहता हूं। किसी शहर में दो व्यक्ति रहते थे। एक शायर था, एक संपन्न था। शहर बहुत सुंदर था। शहर के बाजार की भव्यता मनमोहक थी। यदा कदा ये दोनों मित्र मिलते रहते थे। एक दिन इन दोनों की मुलाकात कपड़े की एक बहुत बड़ी दुकान पर हुई। जहां वह संपन्न व्यक्ति रेशमी वस्त्र, मखमल-मलमल, सुनहरी पर्दे, कालीन और गलीचे खरीद रहा था। कवि मित्र ने पूछा इतने कीमती वस्त्र क्यों खरीद रहे हो? घर में कोई शादी है क्या? धनी व्यक्ति बोला, घर में कोई शादी नही है, यह तो मैं केवल अपने शौक के लिए खरीद रहा हूं। इससे मुझे सुकून मिलेगा। शायर मित्र ने कहा-ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। इतना कह कर कवि मित्र चला गया।
एक दिन फिर दोनों मित्र एक बहुत बड़ी और भव्य दुकान पर मिले। जहां वह धनी मित्र स्वर्णाभूषण के साथ साथ हीरे, मोती, नीलम पन्ने और न जाने क्या क्या जवाहरात खरीद रहा था। कवि मित्र ने फिर पूछा-घर में कोई शादी है क्या? धनी मित्र ने उत्तर दिया, नही… ये आभूषण तो मैं अपने शौक के लिए खरीद रहा हूं। इनसे मुझे सुकून मिलेगा। कवि मित्र ने कहा, ठीक है, जैसी आपकी इच्छा। इतना कह कर कवि मित्र चला गया। यद्यपि धनी मित्र के पास पहले ही सुंदर मकान था किंतु उसने एक नया बंगला और बनाया। जिसकी भव्यता लोगों का मनमोह लेती थी। इटेलियन संगमरमर के सुंदर फर्श जिन पर चित्रकला के अनोखे डिजाइनों की सजीवता और दीवारों पर सुंदर नक्काशी की बारीकियों को देखकर ऐसे लगता था जैसे स्थापत्य कला मुंह से बोलती हो। इतना ही नही रेशम के सुंदर पर्दे औ शीशे बंगले की साज सज्जा में चार चांद लगा रहे थे। शीशम और सागौन की बेशकीमती लकड़ी से बना फर्नीचर अपने आप में अनुपम था। आलीशान बंगले में आलीशान गाडिय़ां और नौकर चाकरों की भीड़ को देखकर ऐसे लगता था जैसे यहां कोई शहंशाह रहता हो। अनायास एक दिन उस धनी व्यक्ति का कवि मित्र उससे मिलने के लिए उसके घर आ गया। संयोग ऐसा हुआ कि वह धनी व्यक्ति अपने घरवालों की किसी बात पर रूष्ट हुआ रेशमी वस्त्र पहने अपने उस ड्राइंग रूमें बैठा हुआ था जो आलीशान फर्नीचर, सुंदर रेशमी पर्दे, मखमल और कालीनों से सजा हुआ था। मित्र ने खिन्नता का कारण पूछा। काफी आग्रह के बाद उसने कहा-मैंने अपने जीवन की खून पसीने की कमाई से अपने परिजनों के लिए क्या कुछ नही किया? सुंदर सुंदर वस्त्र और आभूषण इनके लिए बाजार से खरीदे। ऐसी ऐसी वस्तुएं खरीदी जो बाजार में दुर्लभ थीं। सुंदर संगमरकर के टुकड़ों से यह महल बनाया। सोचा था मुझे इन सबसे सुकून एक दिल मिलेगा किंतु ऐसा हुआ नही। अपनी धनी मित्र की बात सुनकर कवि मित्र जोर से हंसा और कहने लगा-
सुकून-ए-दिल जहाने,
बेशो कम में ढूंढऩे वाले।
यहां हर चीज मिलती है,
सुकून-ए-दिल नही मिलता।।
हे मेरे भोले मित्र! जिन वस्तुओं को तू बाजार से खरीद कर लाया था वे तुझे सुख सुविधा तो दे सकती है किंतु सुकून-ए-दिल नही…….
सुकून-ए-दिल को पाना चाहते हो तो मेरी बात सुनो-
सुकून-ए-दिल को ढूंढ़ता है,
दुनिया के बाजार में।
क्या कभी डूबी है रूह,
उस रब के प्यार में।।
भजन
तर्ज-एक रात में दो दो चांद खिले…
जो सुकून मिले तेरी गोदी में,
वो दुनिया में ना दौलत में।
जो प्यार मिले तेरे चरणों में,
वो दुनिया में ना दौलत में।।
जो सुकून मिले……..
एक तुझसे रिश्ता अटूट मेरा,
यहां सब रिश्ते शमशानों तक।
सबमें तेरा नूर दिखाई दे,
जड़-चेतन और अनजानों तक।।
जो जोश तेरी आगोश में है,
वो शौहरत में ना दौलत में
जो सुकून मिले………..1
जब कभी अकेला होता हूं,
तेरे चिंतन में खो जाता हूं।
तेरी देख बरसती रहमत को,
मन ही मन शीश झुकाता हूं।।
तू हिरण्यगर्भ: कहलाया,
सब सिमट रहा एक मौहलत में।।
जो सुकून मिले………………..2
तेरी याद में जब खो जाता हूं
वाणी भी मूक हो जाती है।
हृदय गदगद हो जाता है,
बरबस आंखें भर आती हैं।।
जो रस है बरसता उस क्षण में,
वो दुनिया में ना दौलत में।।
जो सुकून मिले………………..3
अनुभूति बड़ी सुखद तेरी,
जिसे रह रहकर मैं चाहता हूं।
तेरे प्रेम तत्व को पा करके,
मैं ऊर्जान्वित हो जाता हूं।।
तेरे प्रेम में जो अतुलित शक्ति,
वो दुनिया में ना दौलत में।।
जो सुकून मिले……………..4
जल, सूर्य, चंद्रमा, अग्नि का,
ये वायु है अन्नाद सखे!
मन, वाणी, श्रोत्र और चक्षु का,
है प्राण यहां अन्नाद सखे!!
इन सबका है अन्नाद तू ही,
इस दुनिया रूपी दावत में।।
जो सुकून मिले……….5
पांचवें सोपान की व्याख्या :-
पाठकों को प्रस्तुत पद्यांश का भाव सरलता से समझ में आए। इसके लिए छान्दोग्य, उपनिषद पृष्ठ 441 पर उद्घृत आख्यायिका का उध्दरण देना प्रासंगिक रहेगा।
प्राचीनकाल में जानश्रुति नामक एक राजा था। जिसके पिता, पितामह तथा प्रतितामह तीनों जीवित थे, इसलिए वह पौत्रायण अर्थात पुत्र पौत्रों वाला भी कहलाया था। वह श्रद्घा से दान देता था। एक दिन यह राजा रैक्व नामक ऋषि के आश्रम पर पहुंचा और बोला-महर्षि रैक्व!ये एक सहस्र गौएं हैं, यह रत्नों की माला है, यह खच्चरों का रथ है, यह मेरी कन्या है, जिसे मैं आपको देना चाहता हूं। इतना ही नही अपितु यह ग्राम जिसमें आप विराजते हैं-यह भी आपकी भेंट है। हे भगवन! मुझे आप अपनी संवर्ग-विद्या का उपदेश दीजिए।
ऋषि ने कहा हे राजन! अधिदैवत अर्थात ब्रह्मांड(Macroscopic point of view) की दृष्टि से वायु ही संवर्ग है, सबको अपने भीतर समा लेने वाली है। जब आग बुझती है, तो वायु में ही लौट जाती है, जब सूर्य अस्त होता है, तो वायु में ही लौट जाता है, जब चंद्रमा अस्त होता है तो वह भी वायु में ही लौट जाता है। जब पानी सूख जाते हैं तो वायु में ही लौट जाते हैं। वायु ही इन सबका संवरण करता है, इन सब को ढांप लेता है। यह अधिदैवत, अर्थात ब्रह्मांड की दृष्टि से वर्णन हुआ।
क्रमश: