स्वामी संकल्पानंद जी महाराज ने मानव जीवन के लक्ष्य पर प्रकाश डालते हुए बड़ा सुंदर कहा है-श्रण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा: (ऋग्वेद 10-13-1) मानव जीवन अतीव, पवित्र एवं श्रेष्ठ है। मनुष्य कर्मयोगी है, इस कारण मानव जीवन पाकर मनुष्य ऋषि, पितर और देवपद भी पा सकता है और राक्षस पद भी। बस, यह बात कर्मयोगी के हाथों में है, मानव जीवन की महिमा अनंत है, महाभारत में युधिष्ठर के प्रश्न के उत्तर में भीष्म पितामह ने कहा था कि मनुष्य प्राणी से बढ़कर कोई नही। मनुष्य जीवन इहलोक और परलोक की कड़ी है, कहा गया है कि सभी पदार्थों से प्राणी श्रेष्ठ है। पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि प्राणियों से बुद्घिजीवी श्रेष्ठ है और बुद्घिजीवियों से मनुष्य श्रेष्ठ है, मनुष्यों से ब्राह्मण श्रेष्ठ है, ब्राह्मणों से विद्वान श्रेष्ठ है, विद्वानों से प्रतिभाशाली, कर्त्तव्यपरायण श्रेष्ठ है, और उनसे भी अधिक श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ता हैyo
स्वामी दिव्यानंद जी सरस्वती एक मूर्धन्य सन्यासी थे, ऊंचा पूरा कद, भव्य मूर्ति हाथ में एक अच्छा लठ भी रखते थे। एक बार का प्रसंग है कि वे दिल्ली से रेल से चले, अचानक 20-25 कॉलेज की लड़कियों की एक टीम उन्हीं के डिब्बे में घुस गयी। ये कन्याएं उनके आसपास बैठ गयीं। स्वामी जी ने अपनी एक आंख कानी कर ली। सभी कन्याएं जोर से हंस पड़ी। एक ने पूछा स्वामी जी कहां जा रहे हो? स्वामी जी ने कहा-पता नही। इससे और जोर की हंसी फैली। थोड़ी देर बाद दूसरी कन्या ने पूछा-स्वामीजी कौन से स्टेशन जाना है? स्वामी जी ने अपनी कानी आंख बनाए रखकर कहा-मालूम नही। और भी जोर की हंसी फैली। फिर एक कन्या ने पूछा स्वामी जी कहां उतरोगे? स्वामीजी के जवाब देने से पहले एक कन्या ने कहा-स्वामी जी ने आगरा पहुंचना है, दूसरी बोली-अरे, आगरा नही, झांसी पहुंचना है, तीसरी बोली, दोनों गलत-स्वामीजी नागपुर जाएंगे। वास्तव में स्वामीजी नागपुर ही जा रहे थे। परंतु नागपुर कहने पर स्वामीजी मुस्कुराए और बोले-हां,हां नागपुर ही जाना है। अब चर्चा चली। स्वामी जी ने पूछा आगरा, झांसी और नागपुर तीनों जगहों के नाम ही मेरे संबंध में क्यों लिये गये? तब झट से एक कन्या ने कहा स्वामीजी, आगरा, झांसी और नागपुर तीनों जगह मनोरोगियों की व्यवस्था है। यह सुनकर सब ऐसी जोर से हंस पड़े कि एक मिनट तक हंसी बंद नही हुई।
सच्चाई तो यह है कि मनुष्य तू कहां से आया, क्या यह तुझे मालूम है? उत्तर होगा-नहीं। तुझे कितने दिन, कितने वर्ष इस जगत में ठहरना है? उत्तर होगा-पता नही। तेरा गंतव्य, मंजिल या ठिकाना क्या है? तो उत्तर होगा-मालूम नही। बड़ा अजब मुसाफिर है यह मानव। यात्रा तो कर रहा है, पर यात्रा के संबंध में कुछ भी पता नही। यही हाल मेरा और आप सब का है, जीवन तो मानव का पाया पर जीवन का काल, जीवन का लक्ष्य पता नही। ऐसे यात्री मनोरोगियों के चिकित्सालय के ही योग्य समझे जाएंगे। स्वामीजी की इस बात को सुनकर हंसी की जगह डिब्बा में गंभीर सन्नाटा छा गया।
अत: हे मनुष्य तू अपने जीवन का लक्ष्य पहचान। तेरे जीवन का लक्ष्य खाओ पियो और मौज करो का नही है, अपितु इससे भी श्रेष्ठ है तेरे जीवन का लक्ष्य। एक बढ़ई है, चार लंबी लकड़ियां लेकर चारपाई बना रहा है, एक ने पूछा चारपाई बनाने का क्या उद्देश्य है? जवाब मिला, चारपाई बनाकर मैं इस पर सोऊंगा। एक छोटी सी कृति का भी जब उद्देश्य है तो इस महत्वपूर्ण जीवन का भी कोई लक्ष्य होगा, कोई उद्देश्य होगा परंतु आज क्या देखते हैं-
किसलिए आए थे दुनिया में और क्या कर चले।
जो यहां से पाया था उसे बस यहीं धर चले।।
यह बात भी विचारणीय है कि-
खुदा को भूल गये लोगफिक्रे रोजी में।
ख्याले रिजक है राजक का कुछ ख्याल नही।।
यदि मनुष्य का ध्येय रोटी के लिए ही जीना है तो मार्क्स, लैनिन, स्टालिन के पास रोटियों की कमी नही थी, तब वे रोटी को अलग करके आदर्शों के लिए क्यों जिए? ध्यान रहे मुट्ठी भर लोग गणाद गुणो गरियान के सिद्घांत के अनुसार शेष सारी संख्या से अधिक महत्व रखते हैं-क्या कभी इस विषय पर सोचकर देखा है कि झोंपड़ी में रहने वाले संत के सब लोग चरण स्पर्श करते हैं जबकि महलों में रहने वाले डकैत से सब घृणा करते हैं।
कठोपनिषद मानव जीवन के लिए प्रेयमार्ग और श्रेयमार्ग का निर्धारण किया गया है। श्रेयमार्ग को मनुष्य जीवन का उद्देश्य बताया गया है, कि हे मनुष्य! तू श्रेष्ठ मार्ग का पथिक है, तू मोक्ष का अभिलाषी बन, उसके लिए तू प्रभु का भक्त बन उसका स्मरण कर उसी के नाम के स्मरण से तुझे अपने जीवन का लक्ष्य झलकेगा और उस जीवन के लक्ष्य के झलकने से मिलने वाले आनंद से तेरे जीवन की खुशियों में दिनानुदिन बृद्घि होती जाएगी और तू अपने वास्तविक धाम को प्राप्त कर लेगा। तू आनंदलोक का वासी है और आनंद के परमधाम पर पहुंचना ही तेरे जीवन का अंतिम लक्ष्य है, इसलिए संसार की मृगमरीचिका और विषय वासनाओं के जंजाल से अपने आपको मुक्त कर और भव्य जीवन की प्राप्ति के लिए साधना के मार्ग को अपना, अपने गंतव्य को पहचान, और उसी में विलीन होने के लिए साधनारत रहने का शिव संकल्प ग्रहण कर। याद रखना यही जीवन और यही साधना तेरे यहां आने का एकमात्र कारण है और इसी में विलीन हो जाना तेरे जीवन का परम साध्य है। इसी के लिए जीवन जी और इसी के लिए स्वयं को होम कर दे।

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