नास्तिक मत समीक्षा
लेखक- पण्डित हरिदेव जी तर्क केसरी
प्रस्तुति- ज्ञान प्रकाश वैदिक
प्रश्न १- नास्तिक का क्या लक्षण है? अर्थात् नास्तिक किसे कहते हैं?
उत्तर- जो ईश्वर की सत्ता से इन्कार करे वह मुख्य रूप से नास्तिक कहा जाता है। परन्तु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने दस प्रकार के लोगों को नास्तिक संज्ञा दी है। यथा-
(१) जो ईश्वर को न माने। (२) जो आत्मा और पुनर्जन्म स्वीकार न करे और यह कहे कि अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी से आत्मा उत्पन्न होता और मृत्यु के पश्चात् इसका नाश हो जाता है इसलिए परलोक की चिन्ता करना व्यर्थ है। (३) जो ईश्वरीय ज्ञान वेद को न माने अर्थात् ज्ञान का विरोधी हो। (४) जो अभाव से भाव की उत्पत्ति माने, नेस्ति से हस्ती की पैदायश पर विश्वास रखता हो। (५) जो ईश्वर को बिना कर्मों के स्वेच्छा से फल प्रदाता मानता हो अर्थात् यह कहे कि ईश्वर अपनी मर्जी से जिसको चाहे जैसा बना दे लूला-लँगड़ा, अंधा, कोढ़ी इत्यादि। (६) स्वभाव-वादी, जो कहे कि स्वभाव से ही अपने आप ही सब कुछ बन बिगड़ रहा है, बनाने बिगाड़ने वाला कोई नहीं, जैसे जैन मत। (७) जो अपने आपको ब्रह्म या भगवान माने, “अहं ब्रह्मा अस्मि” अर्थात् मैं ब्रह्म ही हूँ। खुद खुदा हूँ, जैसे नवीन वेदान्ती। (८) जो यह कहे कि संसार नित्य है, सदा से है और सदा रहेगा। जैसे चार्वाक। (९) जो केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को माने, अन्य प्रमाणों का निषेध करे। (१०) शून्यवादी, जो कहता है कि सब शून्य ही शून्य है, वास्तव में किसी वस्तु की सत्ता ही नहीं। इन दस प्रकार के नास्तिकों में सब नास्तिकों की गणना हो जाती है।
प्रश्न २- नास्तिक मत का प्रचार कब और कहाँ से चला?
उत्तर- नास्तिक मत के प्रचार का काल और स्थान भिन्न-भिन्न है, परन्तु मुख्य रूप से नास्तिक मतों का जन्मदाता भारत देश ही है। चार्वाक, बौद्ध और जैनियों ने नास्तिकवाद की नींव उस समय रखी जब कि पश्चिमी सभ्यता का अभी जन्म भी नहीं हुआ था, भारतवर्ष में मायावाद और नास्तिकवाद के विचार आदि प्राचीन काल से पाए जाते हैं। रामचन्द्रजी के जमाने में “जाबाल” ऋषि तथा तथा हरिवंश देश का राजा “बीना” भी कुछ ऐसे ही विचार रखते थे, परन्तु भारतवर्ष प्राचीनकाल से ही धर्म प्रधान देश रहा है, इसलिए नास्तिकवादी विचारधारा को यहां कभी भी सफलता प्राप्त नहीं हुई। इस देश में पुरातन काल से ही ईश्वर, जीव, प्रकृति को नित्य, अनादि तथा स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार किया जाता रहा है, इसलिए नास्तिकवाद का यहां विस्तार नहीं हो सका। परन्तु इस समय भारत में जैन, बौद्ध, कम्युनिष्ट तथा पश्चिमी विचारधारा के पोषक कुछ ग्रेजुएट इस नास्तिकवादी विचारधारा का बड़े प्राबल्य से प्रचार व प्रसार कर रहे हैं।
प्रश्न ३- नास्तिकवाद के सबसे प्रथम प्रचारक तथा विस्तारक नेता मुख्य रूप से कौन हुए हैं?
उत्तर- व्यक्तिगत रूप से नास्तिकवाद का प्रचारक कौन-कौन, कहाँ-कहाँ और कब-कब हुआ निश्चय से नहीं कहा जा सकता परन्तु नास्तिकता का मुख्य रूप से प्रचारक तथा प्रसारक चार्वाक मत को ही माना जाता है।
प्रश्न ४- चार्वाक मत कब प्रचलित हुआ? और इसका संस्थापक कौन था?
उत्तर- इस मत का जन्मदाता कौन था, यह निश्चय से नहीं कहा जा सकता, परन्तु कुछ लोग चार्वाक का अर्थ चबाने, खाने वाला करते हैं, कुछ लोग चार्वाक मीठी वाणी बोलने वाला यह अर्थ करते हैं। कुछ लोग चार्वाक का अर्थ अधिक बोलने वाला करते हैं, कुछ लोग चार्वाक को एक आचार्य बतलाते हैं, जिसने यह मत प्रचलित किया। परन्तु अन्वेषण मत के संचालक “आचार्य बृहस्पति” थे, जो बुद्ध से तीन सौ वर्ष पूर्व तथा ईसा से आठ सौ वर्ष पूर्व हुए।
प्रश्न ५- चार्वाक मत प्रचलित होने के क्या कारण थे?
उत्तर- इस मत के प्रचलित होने से पूर्व यहां वाममार्गियों का प्राबल्य था। वाम मार्ग के दो अर्थ हैं, एक तो वाम का अर्थ है सुन्दर और दूसरा अर्थ है उलटा। वाममार्गी अपने मत को सुन्दर मार्ग कहते थे परन्तु इनके कुकर्मों को देखकर वैदिक सिद्धान्तों ने इन्हें कुमार्गी या वाममार्गी अर्थात् उलटे मार्ग पर चलनेवाला कहा, वाममार्गी संज्ञा देने के कई कारण थे।
१. वाममार्गी पशुओं और मनुष्यों तक की बलियां देते थे।
२. इस मत में व्यभिचार का जोर था। मातरमपि न त्यजेत- यह इनका नारा था।
३. मांस, शराब की प्रवृत्ति लोगों में अधिक थी। यज्ञों तक में मांस, शराब का प्रयोग होता था।
४. जन्तर-मन्तर, जादू-टोना, भूतप्रेत तथा चुड़ैल आदि पर लोगों को पूर्ण विश्वास था।
५. प्रत्येक बुरी बात और अनिष्ट रीति-रिवाज को शास्त्रों के प्रमाणों से सिद्ध किया जाता था और प्रत्येक बुरी बात को लोग धर्म का अंग और मुक्ति का साधन समझते थे।
इस प्रकार के विचारों की प्रतिक्रिया और विरोध के फलस्वरूप चार्वाक या नास्तिकमत का प्रादुर्भाव हुआ। परन्तु वर्तमान समय में इस मत का खूब जोरों से प्रचार हो रहा है; बौद्ध, जैन, पाश्चात्य विद्वान् तथा मार्क्सवादी कम्युनिष्ट इस मत का जोर-शोर से प्रचार कर रहे हैं? इनकी मुख्य मान्यताओं का आस्तिक नास्तिक सम्वाद रूप से वर्णन किया जाता है।
नास्तिक आस्तिक सम्वाद
नास्तिक- इस संसार का कर्त्ता, धर्त्ता, संहर्त्ता, कोई नहीं। आग, हवा, मिट्टी, पानी, चारों तत्व स्वतः अपने आप स्वभाव से मिलते हैं और उससे जगत् की उत्पत्ति हो जाती है।
आस्तिक- बिना चेतन परमेश्वर के निर्माण किये जड़ पदार्थ स्वयं आपस में स्वभाव से नियमपूर्वक मिलकर उत्पन्न नहीं हो सकते। यदि स्वभाव से ही होते हों तो द्वितीय सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी, नक्षत्र आदि आप से आप क्यों नहीं बन जाते।
दूसरे बनाने वाले के बिना कोई वस्तु नहीं बनती, और यह संसार बना हुआ है, कार्यरूप है अतः इसका भी कोई न कोई कर्त्ता अवश्य होना चाहिए, जो ज्ञानपूर्वक इस जड़ प्रकृति को कारण रूप से कार्य रूप में ले आए अथवा कार्यरूप से कारण रूप में परिवर्तित कर दें, ऐसा केवल सर्वज्ञासृष्टि कर्त्ता ईश्वर ही कर सकता है, दूसरा नहीं। इसलिए वेदान्त दर्शन कहता है- “जन्माद्यस्ययत:” (१/१/२) अर्थात् जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयकर्त्ता है वही ईश्वर है।
तीसरे इस शरीर के एक-एक अंग को देखो, देखने से पता चलेगा कि ऐसी अद्भुत रचना कोई जीव नहीं कर सकता, जीव तो शरीर का एक रोम भी नहीं बना सकता अतः जिसने शरीर और शरीर स्थित अंग-प्रत्यंग की अद्भुत रचना की है, वही परमेश्वर है।
नास्तिक- यदि ईश्वर की रचना से ही सृष्टि होती है तो माता-पिता आदि की क्या आवश्यकता है, बिना माता-पिता के ही सन्तान हो जाए?
आस्तिक- सृष्टि रचना दो प्रकार की है; एक ऐश्वरी, दूसरी जैवी। ऐश्वरी सृष्टि का कर्त्ता ईश्वर है, जैवी सृष्टि का नहीं क्योंकि वे जीवों का कर्म है। वह जीव ही कर्त्ता है ईश्वर नहीं। जैसे वृक्ष, फल, औषधि आदि ईश्वर ने उत्पन्न किये हैं, उसी को लेकर मनुष्य यदि कुटे-पीसे नहीं, न ही रोटी आदि बनवाए और न ही खाए तो क्या मनुष्य के बदले यह कार्य भगवान करेगा? कभी नहीं क्योंकि यह कार्य जीव के हैं भगवान के नहीं। यदि यह कार्य जीव न करे तो उनका जीना भी दूभर हो जाये, इसलिए आदि सृष्टि में जीव के शरीर रूपी सांचों को बनाना ईश्वर का काम है तत्पश्चात् उनसे पुत्रादि की उत्पत्ति करना जीव का काम है, ईश्वर का नहीं।
नास्तिक- यदि कोई ईश्वर है तो उसका प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता, जिससे लोगों को उसके प्रति विश्वास हो जाये कि वस्तुतः ईश्वर है।
आस्तिक- यह कहना सर्वथा अशुद्ध और भ्रमपूर्ण है कि ईश्वर का कभी प्रत्यक्ष नहीं होता। हां! प्रत्यक्ष दो प्रकार का है। एक बाह्य प्रत्यक्ष जो इन्द्रियों द्वारा होता है; यथा आंख से रूप का, नासिका से गंध का, कान से शब्द का, रसना से रस का, और त्वचा से स्पर्श का। दूसरा आन्तरिक प्रत्यक्ष जो अन्तःकरण (मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार) द्वारा किया जाता है; जैसे सुख-दुःख, राग-द्वेष, भूख-प्यास आदि एवं आत्मा अथवा परमात्मा का प्रत्यक्ष बाह्य इन्द्रियों द्वारा नहीं, अपितु आन्तरिक इन्द्रिय शुद्ध मन द्वारा होता है। बाह्य इन्द्रिय स्थूल हैं इस कारण स्थूल वस्तुओं का ही ग्रहण करती हैं, अति सूक्ष्म वस्तुओं का नहीं। इसलिए योगीजन ही सूक्ष्म बुद्धि एवं शुद्धान्त:करण द्वारा ईश्वर को साक्षात्कार करते हैं अन्य नहीं। इसलिए सत्यार्थप्रकाश में स्वामी जी ने लिखा है-
“जैसे कान से रूप और चक्षु से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता, ऐसे ही बिना शुद्धान्त:करण, विद्या, योग्याभ्यास और मल विक्षेप आवरण से रहित पवित्रात्मा के बिना उस परमात्मा का प्रत्यक्ष नहीं होता। जैसे बिना पढ़े विद्या की प्राप्ति नहीं होती, वैसे ही बिना योगाभ्यास और विज्ञान के परमात्मा की भी प्राप्ति नहीं होती।”
“जैसे शब्द रूप आदि से पंच भूतों आकाश, पृथ्वी आदि का ज्ञान होता है। वैसे ही सृष्टि में परमात्मा की रचना विशेष और ज्ञान विशेष को देखकर परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है।”
“जो पापाचरणेच्छा समय में भय, लज्जा और शंका उत्पन्न होती है, वह अन्तर्यामी ईश्वर की ओर से ही होती है। इससे भी परमात्मा का प्रत्यक्ष होता है।
“जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करता है तब उसे अपना तथा परमात्मा दोनों का साक्षात्कार होता है।”
केनोपनिषद् में भी कहा है कि-
“दृश्यते त्वग्रया बुद्धया सूक्ष्मया सूक्ष्म दर्शिभि:।”
अर्थात् सूक्ष्म दृष्टि रखनेवाले योगी और तपस्वी लोग अपनी अत्यन्त सूक्ष्म बुद्धि द्वारा उस परमात्मा देव का दर्शन करते हैं।
ऐसे ही श्वेताश्वतर उपनिषद् में भी कहा गया है कि-
“ते ध्यान योगानुगता अपश्यन्”
अर्थात् उन्होंने (योगियों) ने ध्यान योग में समाधिस्थ होकर उस ब्रह्म का प्रत्यक्ष किया। और जिन्होंने प्रत्यक्ष किया वह मस्ती में झूमकर पुकार उठे।
“त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि, त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि, ऋतं वदिष्यामि, सत्यं वदिष्यामि।। -तैत्तिरीयोपनिषद्
हे प्रीतम मैंने तुझे प्रत्यक्ष कर लिया है तू प्रत्यक्ष ब्रह्म है, तुझमें प्रत्यक्ष ब्रह्म को ही मैं ब्रह्म कहूंगा। ठीक-ठीक कहूंगा, सत्य ही कहूंगा।
अतः उपरोक्त प्रमाणों से सिद्ध है कि ब्रह्म का वास्तव में प्रत्यक्ष होता है। यह सर्वथा सत्य है परन्तु साथ ही यह भी स्मरण रहे कि-
हर जगह मौजूद है पर वह नजर आता नहीं।
योग साधन के बिना उसको कोई पाता नहीं।।
नास्तिक- कठोपनिषद् में भी कहा है कि वह परमात्मा शुद्ध मन के द्वारा जाना जाता है; यथा “मनसैवेदमाप्तव्यम्” अशुद्ध मन द्वारा नहीं, तब शुद्ध मन की पहचान क्या है?
आस्तिक- जब वित्तैषणा, पुत्रैषणा, लोकेषणा ये तीनों मन से दूर हो जाती है तो मन शुद्ध और पवित्र हो जाता है तब उस प्रभु का साक्षात्कार होता है। इसे इस प्रकार कह सकते हैं कि जब मन के दोष त्रय- मल, विक्षेप और आवरण, साधनत्रय- स्तुति, प्रार्थना और उपासना द्वारा दूर हो जाते हैं तो मन पवित्र तथा स्थिर होकर उस पवित्र ब्रह्म को प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है।
नास्तिक- मल, विक्षेप, आवरण किसे कहते हैं?
आस्तिक- मन में दूसरों को हानि पहुंचाने का विचार तथा आत्मा पर जो पापों का जन्म-जन्मान्तर का कुसंस्कार है, वह ‘मल दोष’ नाम से कहा गया है।
लगातार विषयों का चिन्तन वा ध्यान अथवा मन के स्थिर न होने का नाम ‘विक्षेप दोष’ है।
संसार के नाशवान पदार्थों की प्राप्ति से उत्पन्न अभिमान का पर्दा जो मन पर पड़ा रहता है उसे आवरण दोष कहते हैं।
इन दोषों के दूर होने से उस प्रभु के दर्शन होते हैं।
नास्तिक- वह परमात्मा एक है या अनेक? संसार में जब हम अनेक प्रकार की बनी वस्तुएं देखते हैं तो उनसे अनेक कर्त्ताओं का अनुमान होता है। ऐसे ही जब हम इस विविध प्रकार के संसार में नाना प्रकार की वस्तुओं को बना देखते हैं तो इससे अनुमान होता है कि इस संसार को बनाने वाले भी कई कर्त्ता हैं, एक नहीं। अतः सन्देह होता है कि इस संसार को बनाने वाले भी कई ईश्वर हैं एक नहीं- किसी ने सूर्य, चाँद बनाया होगा, किसी ने पहाड़, समुद्र और किसी ने पशु-पक्षी, मनुष्यादि बनाये होंगे।
आस्तिक- ऐसी शंका करनी उचित नहीं क्योंकि कई बार एक ही कर्त्ता विविध प्रकार की वस्तुओं का निर्माता वा रचयिता होता है, जो उसकी अद्भुत बुद्धि तथा कौशल का परिचायक होता है। जितनी प्रकार की वस्तुओं का निर्माण करना कोई जानता है उतना ही ज्ञानवान् तथा बुद्धिमान वह समझा जाता है। इसी प्रकार अनेक विध संसार की रचना ईश्वर के अद्भुत ज्ञान और बुद्धि कौशल का परिचय कराती है न कि उसके अनेक होने की। अतः वेद, दर्शन सब उसके एक होने की साक्षी देते हैं, अनेक होने की नहीं; यथा-
य: एकश्चर्षणीनां वसूनामिरज्यति।
इन्द्र: पञ्च क्षितीनाम्।। -ऋग्० १/७/९
जो प्रभु एक है और अनेकों पृथिवियों तथा विविध प्रकार के धनों का स्वामी है तथा पांच प्रकार की प्रजा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र और निषाद का संरक्षक है उसकी स्तुति करो।
भुवनस्य यस्पतिरेक एव नमस्यो -अथर्व० २/२/१
जो सारे संसार का स्वामी है और एक है, वही प्रभु नमनीय एवं उपासना करने योग्य है।
न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थो नाप्युच्यते,
न पञ्चमो न षष्ठ: सप्तमो नाप्युच्यते।
नाष्टमो न नवमो दशमो नाप्युच्यते,
य एतं देवमेकवृतं वेद। -अथर्व १३/४/१६-२१
उसे दूसरा, तीसरा, चौथा, पांचवा, छठा, सातवां, आठवां, नवां, दसवां नहीं कह सकते। जो उसे एक अद्वितीय और एक वृत अर्थात् अकेला संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयादि का व्यवहार चलाने वाला जानता था मानता है वही उसे जानता है। इस प्रकार एक ईश्वर के होने का स्पष्ट एवं सुन्दर वर्णन वैदिक धर्म के अतिरिक्त किसी अन्यत्र स्थान पर मिलना असम्भव और दुष्कर है।
नास्तिक- यदि वह ईश्वर अनेक नहीं एक है तो वह व्यापक है या एक देशी?
आस्तिक- वह सर्वव्यापक है एक देशी नहीं। यदि एक देशी होता तो अनेक विध संसार का पालन पोषण एवं संरक्षण कैसे कर सकता?
नास्तिक- यदि वह सर्वव्यापक है तो पुनः दिखाई क्यों नहीं देता।
आस्तिक- दिखाई न देने के कई कारण होते हैं; जैसे सांख्या-कारिका में कहा है-
अतिदूरात सामीप्यादिन्द्रियघातान्मनो ऽनवस्थनात्।
सौक्ष्म्याद् व्यवधानादभिभवाद् समानाभिहाराच्च।।
(१) दिखाई न देने का प्रथम कारण है अति दूर होना। जैसे लन्दन या अमेरिका दूर होने से दिखाई नहीं देते परन्तु दिखाई न देने पर भी उनकी सत्ता से इन्कार नहीं हो सकता।
(२) दूसरा कारण है अति समीप होना, अति समीप होने से भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे आंख की लाली या आंख का सुरमा आंख के अति समीप होने पर भी दिखाई नहीं देते, अथवा पुस्तक आंख के अति समीप हो तो उसके अक्षर दिखाई नहीं देते।
(३) इन्द्रिय के विकृत या खराब होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे आंख दुखने पर या आंख के फूट जाने पर यदि कोई अन्धा कहे कि सूर्य, चन्द्रादि की कोई सत्ता नहीं, तो क्या यह ठीक माना जाएगा?
(४) मन के अस्थिर होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे कोई व्यक्ति सामने से होकर निकल जाय, तो उसके विषय में पूछने पर उत्तर मिलता है कि मेरा ध्यान उस ओर नहीं था। इसलिए मैं नहीं कह सकता कि वह यहां से निकला है कि नहीं।
(५) अति सूक्ष्म होने पर भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे आत्मा, मन, बुद्धि, परमाणु, भूख, प्यास, सुख-दुख, ईर्ष्या, द्वेष आदि।
(६) ओट में रखी या बीच में किसी वस्तु का पर्दा होने से भी वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे दीवार के पीछे रखी वस्तु या ट्रक के अन्दर रखी वस्तु।
(७) समान वस्तुओं के सम्मिश्रम हो जाने या परस्पर खलत-मलत हो जाने पर भी वस्तु दिखाई नहीं देती। जैसे दूध में पानी, तिलों में तेल, दही में मक्खन, लकड़ी में आग। इसी प्रकार परमात्मा सब वस्तुओं में व्यापक होने पर भी अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण आंखों से दिखाई नहीं देता। परन्तु-
जिस तरह अग्नि का शोला संग में मौजूद है।
इस तरह परमात्मा हर रंग में मौजूद है।।
(८) अभिभव से अर्थात् दब जाने से भी कोई वस्तु दिखाई नहीं देती। यथा दिन को तारे सूर्य के प्रकाश से दब जाने के कारण दिखाई नहीं देते अथवा आग में पड़ा लोहा अग्नि के प्रभाव से दिखाई नहीं देता। परन्तु ज्ञान की आंख से वह दिखाई देते हैं- ऐसे ही परमात्मा के दर्शन के लिए भी अन्दर की आंख की आवश्यकता है। किसी ने ठीक कहा है कि-
कहाँ ढूंढ़ा उसे किस जा न पाया-कोई पर ढूंढने वाला न पाया,
उसे पाना नहीं आसां कि हमने, न जब तक आप को खोया न पाया।
नास्तिक- यदि वह सब जगह सर्वत्र व्यापक है तब तो टट्टी, पेशाब, गन्दगी, कूड़े-करकट में भी उसका वास मानना होगा, इस प्रकार तो दुर्गन्ध से उसकी बड़ी दुर्गति होती होगी।
आस्तिक- आपका यह विचार ठीक नहीं क्योंकि सुगन्ध, दुर्गन्ध इन्द्रियों द्वारा प्रतीत होती है और परमात्मा इन्द्रियातीत अर्थात् इन्द्रियों से रहित है इसलिए उसे सुगन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती।
दूसरे जो वस्तु अपने से भिन्न दूसरे स्थान पर या अपने से पृथक बाहर दूर हो उससे सुगन्ध-दुर्गन्ध आती है, जो वस्तु अपने ही अन्दर हो उससे सुगन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती। जैसे पखाना अपने अन्दर हो तो दुर्गन्ध नहीं आती परन्तु बाहर पड़ा हो तो दुर्गन्ध आती है। इसी प्रकार यह सारा संसार और उसकी सब वस्तुयें भी ईश्वर के भीतर विद्यमान हैं, इसलिए उसे सुगन्ध-दुर्गन्ध नहीं आती, न ही उस पर इनका कोई प्रभाव होता है। कठोपनिषद् में ठीक कहा है-
सूर्यो यथा सर्वलोकस्य चक्षुर्न लिप्यते चाक्षुषैर्बाह्यदोषै:।
एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा न लिप्यते लोकदुःखेन बाह्य:। -अ० २, वल्ली ५, श्लो० ११
जिस प्रकार सूर्य सब संसार की चक्षु है, परन्तु चक्षु के बाह्या दोषों से प्रभावित नहीं होता इसी प्रकार सब प्राणियों का अन्तरात्मा लोक में होने वाले दुखों से लिप्त नहीं होता क्योंकि वह सब में रहता और उसमें सब संसार रहता है। संसार में रहते हुए भी वह सब से बाह्य अर्थात् सब संसार से पृथक है, अलिप्त है।
नास्तिक- जब वह स्वयं इन्द्रिय रहित तथा इन्द्रियों से न जानने योग्य है तो उसका ज्ञान होना असम्भव है, पुनः जानने का प्रयत्न व्यर्थ है?
आस्तिक- उसके जानने का प्रयत्न करना व्यर्थ नहीं क्योंकि ईश्वर की सत्ता का उसके विचित्र ब्रह्माण्ड और उसमें विचित्र नियमानुसार कार्यों को देखकर बुद्धिमान, ज्ञानी, तपस्वी भलीभांति अनुभव करते हैं। इसके अतिरिक्त प्रभु-प्राप्ति का साधन इन्द्रियां नहीं अपितु जीवात्मा है। योगाभ्यास आदि क्रियाओं द्वारा जीवात्मा उनका प्रत्यक्ष अनुभव करता है तथा आनन्द का लाभ करता है। कठोपनिषद् में ठीक कहा है-
एको वशी सर्व भूतान्तरात्मा एकं रूपं बहुधा य: करोति।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरास्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम्। -अ० २, वल्ली ५, श्लो० १२
अर्थात् वह एक, सबको वश में रखने वाला, सब प्राणियों की अन्तरात्मा में स्थित है। अपनी आत्मा में स्थित उस परमात्मा का जो ज्ञानी जन दर्शन लाभ करते हैं वे परमानन्द को प्राप्त करते हैं।
नास्तिक- ईश्वर को मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता जाती रहती है, इसलिए मानना व्यर्थ है?
आस्तिक- ईश्वर को मनाने तथा उसकी उपासना करने का अन्तिम फल मुक्ति है। मुक्ति स्वतन्त्रता का केन्द्र है, जहां सब प्रकार के बन्धन टूट जाते हैं; अतः ईश्वर के मानने से मनुष्य की स्वतन्त्रता के साथ दुःखों की समाप्ति तथा आनन्द की प्राप्ति भी होती है इसलिए उसका मानना तथा जानना आवश्यक है, व्यर्थ नहीं।
नास्तिक- ईश्वर को अज्ञेय अर्थात् न जानने योग्य कहा गया है तो उसके जानने का परिश्रम करना व्यर्थ है।
आस्तिक- सृष्टि और उसके विविध पदार्थों तथा उसमें काम कर रहे अनेक विध नियमों को देखकर उसके रचयिता का बोध सरलता से हो जाता है। जैसे आकाश, वायु, अणु, परमाणु आदि इन्द्रिय रहित है परन्तु उसका निश्चय बुद्धि से हो जाता है, इसी प्रकार शुद्धान्त:करण द्वारा प्रभु का ज्ञान हो जाता है। इसमें किसी प्रकार की कोई बाधा नहीं, परिश्रम की आवश्यकता है।
नास्तिक- ईश्वर को सगुण कहा गया है। प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है, इसलिए ईश्वर को भी नाशवान् मानना पड़ेगा।
आस्तिक- प्रत्येक सगुण वस्तु नाशवान् होती है, यह कोई नियम नहीं। जब सत्व, राजस्, तमस् गुणवाली प्रकृति ही नाशवान् नहीं तो ईश्वर सगुण होने से कैसे नाशवान् माना जा सकता है। ईश्वर न्याय, दया, ज्ञानादि गुणों से सगुण और अजर, अमर, अजन्मा आदि होने से निर्गुण कहलाता है।
नास्तिक- जगत् नित्य है, इसी प्रकार अनादि काल से चला आ रहा है और इसी प्रकार अनन्त काल तक चलता रहेगा। संसार की समस्त वस्तुएं अपने स्वभाव से बनती और बिगड़ती हैं- इसलिए ईश्वर के मानने की क्या आवश्यकता?
आस्तिक- जगत् मिश्रित वस्तुओं के संग्रह का नाम है। चूंकि संसार की समस्त वस्तुएं मिश्रित हैं इसलिए ये कभी न कभी अवश्य बनी है। मिश्रित वस्तुएं नित्य नहीं हुआ करती, अपितु नाशवान् होती हैं। इसलिए जगत् नित्य नहीं बल्कि रचा हुआ है। जब रचा हुआ है तो इसका रचियता भी कोई न कोई अवश्य है। उसको जानना सत्य ज्ञान को प्राप्त करना है अतः व्यर्थ नहीं।
नास्तिक- संसार में कोई नियम दिखाई नहीं देता, समस्त घटनाएं आकस्मिक (Accidental) दिखाई पड़ती हैं इसलिए नियामक ईश्वर को मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं?
आस्तिक- संसार एक नियम में बंधा हुआ है, आकस्मिक रूप में कभी कहीं कुछ नहीं होता। सूर्य का समय पर उदय और अस्त होना, दिन के पश्चात् रात और रात्रि के पश्चात् दिन का होना, ऋतुओं का नियम से आना और जाना, सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय किसी वस्तु पर दृष्टि डालिये नियम में बंधी दिखाई पड़ेंगी, जब नियम है तो नियामक का होना भी आवश्यक है इसलिये उपनिषद्कार कहते हैं-
भयादस्याग्रिस्तपति भयात्तपति सूर्य:।
भयादिन्द्रश्च वामुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम:।। -कठ० अ० २, वल्ली ६, श्लोक ३
इसी ब्रह्म के भय (नियम) से अग्नि तपता है, उसके भय से सूर्य प्रकाश देता है, उसी के नियम में बंधे हुए बिजली, वायु और मृत्यु अपना-अपना कार्य नियमपूर्वक कर रहे हैं।
नास्तिक- जो गुण ईश्वर में हैं वही सारे गुण प्रकृति में हैं पुनः ईश्वर की क्या आवश्यकता?
आस्तिक- जो गुण ईश्वर में हैं वे सब गुण प्रकृति में हैं यह कहना ठीक नहीं। ईश्वर चेतन और प्रकृति जड़ है। जब तक ईश्वर उसमें गति उत्पन्न नहीं करता वह कुछ भी नहीं कर सकती। प्रकृति जब सृष्टि अवस्था में होती है, काम करती है। जब प्रलयावस्था में होती है, विश्राम करती है। जब प्रलय समाप्त होकर सृष्टि रचना का काल आता है तो ईश्वर अपनी शक्ति से परमाणुओं में गति उत्पन्न कर देता है, उससे प्रकृति सूक्ष्मावस्था से स्थूलावस्था में परिणत होना प्रारम्भ हो जाती है। प्रथम अवस्था को महत्तत्व, दूसरी को अहंकार, तीसरी को पञ्चतन्मात्रा या सूक्ष्मभूत कहते हैं, चौथी अवस्था से १० इन्द्रियां और ग्यारहवां मन बनता है, पांचवीं अवस्था से सूक्ष्म शरीर बनता है। इन्हीं पांच स्थूल भूतों से सारी वस्तुएं और सब प्राणियों के विविध शरीर बनते हैं। यदि वह ईश्वर जड़ प्रकृति में गति न दे तो कुछ भी न बन सके? इसलिए उसके माने बिना निर्वाह नहीं।
नास्तिक- उस ईश्वर को मानने में क्या युक्ति व प्रमाण है, जिससे उसे माना जाये?
आस्तिक- उसके मनाने में अनेकों युक्ति व प्रमाण हैं जिससे उसकी सिद्धि होती है, परन्तु संक्षेप से यह कह सकते हैं कि-
(१) जो इस संसार का कर्त्ता, धर्त्ता और संहर्त्ता है वह ईश्वर है क्योंकि बिना किसी चेतन सत्ता के सृष्टि का उत्पादन, धारण, पालन-पोषण तथा प्रलय में परिणत होना असम्भव है। वेदान्त दर्शन में भी कहा है- “जन्माद्यस्यपत:” जिससे संसार की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय होती है वह परमेश्वर है।
(२) जो जीवों के कर्मों का फल प्रदाता है वह ईश्वर है क्योंकि स्वेच्छा से कोई भी जीव पाप कर्मों का फल नहीं भोगना चाहता।
(३) जो आदि सृष्टि में जीवों का ज्ञान प्रदाता है वह ईश्वर है क्योंकि बिना गुरु के ज्ञान प्राप्त हो नहीं सकता और आदि सृष्टि में उसके सिवा कोई दूसरा गुरु न था। स: सर्वेषामपि गुरु कालेनानवछेदात्।
(४) जो इस सारे संसार को नियम में चला रही है उस चेतन शक्ति का नाम ईश्वर है।
तदेजति तन्नैजति तद्द्रे तद्वन्तिके।
तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:। -यजु० अ० ४०, मं० ५
वह सबको गति देता है परन्तु स्वयं गति नहीं करता, वह दूर से दूर और समीप से समीप है। वह सबके अन्दर तथा बाहर प्रत्येक वस्तु में ओत-प्रोत हो रहा है।
(५) समाधि सुषुप्ति मोक्षेषु ब्रह्मरूपता, समाधि, सुषुप्ति और मोक्ष में जिसके सम्पर्क में आकर जीव को परमानन्द की प्राप्ति होती है वह परमात्मा है- परन्तु आज संसार उसको भूलकर महान् कष्ट पा रहा है। अकबर इलाहबादी ने ठीक ही कहा था कि-
भूलती जाती है दुनिया आसमानी बाप को
बस खुदा समझा है इसने बर्फ को और भाप को
बर्फ गिर जायेगी इक दिन उड़ जायेगी भाप
देखना अकबर बचाये रखने अपने आपको
नास्तिक- आप कहते हैं कि ईश्वर की इन्द्रियाँ वा शरीर नहीं। जब इन्द्रियां और शरीर ही नहीं, तब वह इस विविध संसार की रचना कैसे करता है?
आस्तिक- वह सारे कार्य जो इन्द्रिय शरीर तथा अन्तःकरण द्वारा किए जाते हैं, अपने सामर्थ्य से करता है। इसलिए उसे इन्द्रियों व शरीर की आवश्यकता नहीं। उपनिषद् भी कहते हैं-
अपाणिपादो जबनो ग्रहीता, पश्यत्यचक्षु स: श्र्णोत्यकर्ण:।
सवेत्ति वेद्य न च तस्यास्ति वेत्ता, तमाहुरग्रयं पुरुषं महान्तम्।।
अर्थात् वह परमात्मा बिना हाथ के सब वस्तुओं का ग्रहण करता है, तथा पैर के बिना चलने वाला है। बिना आंखों के देखता और बिना कानों के सुनता है। वह सबको जानता है परन्तु उसे पूर्ण रूप से कोई नहीं जानता। उसको ज्ञानी महान् और आदि पुरुष कहते हैं।
तुलसीदास जी भी कहते हैं-
बिनु पग चले सुने बिनु काना, कर बिनु कर्म करे बिधि नाना।
बिनु वाणी वक्ता बढ़ योगी, आनन रहित सकल रस भोगी।।