इतिहास का एक आश्चर्यजनक सत्य : अपने ही संरक्षक बने बैरम खान को भी नहीं पचा पाया था तथाकथित ‘अकबर महान’

अकबर चित्तौड़ को लेने में सफल हो गया और हमारे इतिहासकारों द्वारा उसे महान होने का गौरव भी दे दिया गया। हम उसे प्रचलित इतिहास में इसी नाम से पढ़ते हैं, पर उसकी महानता को इतिहास पर थोपते ही ‘भारत का इतिहास’ मर गया। अपने गौरवपूर्ण अतीत से मानो भारत का संबंध विच्छेद हो गया। क्योंकि अकबर को महान कहते ही भारत का महान सपूत महाराणा प्रताप सिंह अचानक एक डाकू या लुटेरा, या उपद्रवी उग्रवादी बन गया। हमारे विद्यालयों में प्रचलित इतिहास की पुस्तक में बच्चों के बालमन में ही महाराणा का तिरस्कार करने और अकबर को पुरस्कार देने का भाव भर दिया जाता है। अकबर का यह महिमामंडन किसी भी दृष्टिकोण से उचित नही कहा जा सकता।

इतिहास का महत्व

‘भारतीय इतिहास पर दासता की कालिमा’ के लेखक सियाराम सक्सेना लिखते हैं-‘‘इतिहास का राष्ट्र उत्थान में वही महत्व है जो एक कुटुम्ब में उसके महान पूर्वजों की गाथा का होता है। जैसे हम अपने पूर्वजों की गाथा सुनकर कि वह कितने विद्वान थे शूर थे, पराक्रमी थे, ऊंचे संगीतज्ञ थे-अपने को महान बनाने का प्रयत्न करते हैं। उसी प्रकार राष्ट्र भी अपनी प्राचीन भव्यता, शूरतापूर्ण पराक्रमी ज्ञान-विज्ञान से भरे इतिहास को जानकर ऊंचे उठते हैं, और यश को प्राप्त होते हैं। इतिहास ही प्राचीनता को आधुनिकता से जोड़ता और भविष्य का निर्माण करता है। संसार में कितने देश व जातियां उठीं और नष्ट हो गयीं न अब सुकरात का ग्रीक है, न जूलियस सीवर का रोम है, न वह पिरेमिड वाला मिश्र है, न वह प्राचीन प्रतिभाशाली ईरान है, सब नष्ट हो गये, उनकी प्राचीनता व आधुनिकता में कोई कड़ी जोडऩे वाली नही रही, राष्ट्र ही मर गये, क्योंकि इतिहास से संबंध न रहा, भारत के जीवित रहने का एकमात्र कारण उसके प्राचीन इतिहास में गौरव और विशालता में हिंदुओं का विश्वास था। उसको मिटाने का पाश्चात्य लोगों ने कितना प्रयास किया, यह तथ्य किसी से छिपा नही है।’’

राणा संग्रामसिंह की संतानों के साथ न्याय करो

भारत के हिंदू इतिहास के गौरव और विशालता को राष्ट्रघाती दृष्टिकोण अपनाकर लोगों ने छिपाने का प्रयास किया है। उसी दृष्टिकोण के कारण बाबर की संतानें पूजनीय और राणा संग्राम सिंह की संतानें उपेक्षित हो गयीं। जबकि होना यह चाहिए था कि भारत की स्वतंत्रता के अपहत्र्ता की संतानों के स्थान पर स्वतंत्रता के रक्षकों का गुणगान होना चाहिए था।

संरक्षक बैरम खां को भी नही पचा पाया अकबर

बैरम खां अकबर का संरक्षक था। उस व्यक्ति ने सम्राट हेमू के कारण भयभीत अकबर का उस समय संरक्षक बनना स्वीकार किया था, जब कोई भी मुगल सरदार या सेनानायक उसके साथ आना तक उचित नही मानता था, और 24 दिन तक लोग इस असमंजस में फंसे रहे कि हुमायूं की मृत्यु के पश्चात अकबर को उसका उत्तराधिकारी घोषित करें या न करें। तब बैरम खां ने साहस का परिचय दिया और वह अकबर का संरक्षक बनकर सामने आया। उसकी सेवाएं मिलते ही अकबर को मुगलों ने हुमायूं का उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। परंतु अभी उसे शासक भी बनना था, तो बैरम खां ने हेमू का अंत कराके उसे शासक भी बनवा दिया। यहीं से अकबर के सम्राट बनने का मार्ग प्रशस्त हुआ।

जिस बैरम खां के अकबर पर अनेक और अविस्मरणीय उपकार थे और जो अत्यंत निश्छल भाव से अकबर की सेवा में तत्पर रहता था, उसी को अपने मार्ग में बाधा समझकर अकबर ने उससे मुक्ति प्राप्त करनी चाही।

हम इस विषय में आगे बढऩे से पूर्व अकबर के आधीन हुए क्षेत्र राज्यक्षेत्र पर विचार करें तो हमें ज्ञात होता है कि प्रारंभ में बहुत थोड़े से क्षेत्र पर उसका अधिकार था। जैसा कि एलफिंस्टन का कथन है-‘‘अकबर के शासन काल के पहले वर्षों में अकबर का राज्य पंजाब, आगरा तथा दिल्ली के आसपास के प्रदेशों तक सीमित था। तीसरे वर्ष में उसने बिना युद्घ लड़े ही अजमेर पर अधिकार कर लिया। चौथे वर्ष के प्रारंभ में उसने ग्वालियर का दुर्ग प्राप्त कर लिया और बैरम खान के पतन के कुछ समय पूर्व उसने अफगानों को लखनऊ तथा गंगा के साथ-साथ पूर्व में जौनपुर तक के समस्त प्रदेश से निकाल दिया।’’ (संदर्भ: हिस्ट्रीशीट ऑफ इंडिया पृष्ठ 210)

निष्ठावान बैरम खां के साथ किया गया क्रूर अन्याय

इस कथन से स्पष्ट है कि अकबर को शून्य से शिखर की ओर बढऩे का मार्ग बैरम खां ने उपलब्ध कराया। जब वह कुछ नही कर सकता था और बच्चों व किशोरों की भांति केवल शरारतें ही कर सकता था, उस समय उसके लिए बैरम खां ने इतने आत्मीय भाव से मार्ग प्रशस्त करना आरंभ किया कि इतने आत्मीय भाव से तो हुमायूं भी उसके लिए मार्ग प्रशस्त नही कर सकता था।

अब उसी बैरम खां को अकबर ने हटाने का निर्णय ले लिया। बैरम खान बाबर के शासन काल में भारत आया था, और उसने बाबर के साथ-साथ हुमायूं की भी मन लगाकर सेवा की थी। अकबर ने उसे प्रारंभ में सम्मान देते हुए सरहिंद की जागीर दे दी थी और उसे सम्मानवश वह खान बाबा कहकर पुकारा करता था। पर चार वर्ष में ही अकबर का बैरम खां से मन भर गया। उसने बैरम खां का संरक्षण समाप्त कर स्वतंत्र रूप से शासन करना चाहा। उस समय अकबर ने अपने शासन के चौथे वर्ष में अब्दुल लतीफ के माध्यम से बैरम खां से कहला दिया-‘‘मुझे आपकी ईमानदारी और राज्यशक्ति पर पूरा-पूरा भरोसा था। इसलिए मैंने राज्य का सब काम आपको सौंप दिया था, और मैं केवल आनंद करता था। अब मैंने निश्चय कर लिया है कि शासन सूत्र अपने हाथ में ले लूं। इसलिए मैं चाहता हूं कि आप मक्का की यात्रा करें। एक अर्से से आपका यह विचार भी था।’’

बैरम खां का करा दिया अंत

बैरम खां ने समझ लिया कि राजनीति कूटनीति के कपट-जाल बुनकर अपनी छलनीति में उसे फंसा रही है। इसलिए उसने समय की गंभीरता को समझते हुए अकबर के प्रस्ताव को स्वीकार करने में तनिक भी देरी नही की। उसने अकबर के प्रस्ताव पर अपनी सहमति व्यक्त कर दी। पर उसके निश्छल मन को अकबर के इस कृत्य से असीम पीड़ा इुई। वह मौन रहकर अपने महल में चला गया, तभी अकबर के चाटुकारों ने उसे अतिशीघ्र महल छोडक़र मक्का जाने का बादशाह का आदेश भी दे दिया। इसे बैरम खां ने अपने स्वाभिमान पर की गयी एक चोट समझा और उसने मक्का जाने के स्थान पर अकबर के विरूद्घ विद्रोह कर दिया।

बैरम खां को समझ तो आयी -पर देर से आयी। अब वह वृद्घ हो चुका था उसके साथी उसका साथ छोडक़र अकबर के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर चुके थे। समय की सुई विपरीत दिशा में घूमने लगी थी, पर स्वाभिमान की चोट तो व्यक्ति को बेचैन कर ही देती है और फिर उसी बेचैनी में से फूटती है-विद्रोह की ज्वाला। और यही ज्वाला बैरम खां के शरीर के रोम-रोम से फूट पड़ी थी। फलस्वरूप उसका और अकबर का सामना जालंधर में हो गया। बादशाह की विशाल सेना को जब कभी बैरम खां लेकर चला करता था, तो उसकी विशालता के दर्शन करके स्वयं उसकी छाती चौड़ी हो जाया करती थी और शत्रु को वह परास्त करने में भी सफल हुआ करता था, पर आज विधि की विडंबना देखिए कि वही सेना उसे गिर$फ्तार करने या मारने के लिए तैयार खड़ी थी। कुछ ही देर में युद्घ का परिणाम आ गया। बैरम खां को निर्णायक पराजय मिल गयी। कहा जाता है कि अकबर ने उसे क्षमा कर दिया और उपहार देकर मक्का जाने की आज्ञा दे दी। जब बैरम खां मक्का के लिए जा रहा था तो मार्ग में पटन नामक स्थान पर एक पठान ने उसकी हत्या कर दी।

अनेकों इतिहासकारों ने बैरम खां के पतन को अकबर के शासन काल की दुखद घटना कहा है और उसकी मृत्यु पर दुख व्यक्त करते हुए उस पर शंका व्यक्त की है कि वह अकबर के संकेत पर ही मरवाया गया था।

स्पीकर के अनुसार-‘‘अकबर ने बैरम खां को उसी प्रकार हटा दिया, जैसे कैंसर विलियम द्वितीय ने बिस्मार्क को हटा दिया था।’’

खान बाबा का अंत कर खानखाना से दिखाया प्रेम

वास्तव में बैरम खां का वध किया जाना अथवा उसे अपमान जनक से ढंग से पदच्युत करने से अकबर की मानसिकता का पता चलता है। अच्छा होता कि उसे या तो किसी प्रांत का सूबेदार बना दिया जाता या, किसी महत्वपूर्ण पद पर उसकी नियुक्ति कर दी जाती। अकबर ने अपने संरक्षक बैरम खां के पुत्र को संरक्षण अवश्य दिया, और उसका पालन -पोषण भली प्रकार राजकीय कोष से कराया गया। यही बच्चा आगे चलकर अब्दुर्रहीम खानखाना के नाम से प्रसिद्घ हुआ। खानबाबा का विनाश कर दिया और उसके पुत्र खानखाना का समग्र विकास किया, पर क्यों? यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है।

डॉ राकेश कुमार आर्य

संपादक : उगता भारत

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