इंकलाब जिंदाबाद-६
शांता कुमार
गतांक से आगे…
यदि गांधीजी को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए अहिंसा के मार्ग पर चलने का अधिकार था तो देश के इन जवानों को मां की गुलामी की श्रंखला तोड़ने के लिए उतने ही आदर और सम्मान से हिंसा का मार्ग अपनाने का अधिकार था। सिर इस मार्ग को प्रभु, राम, कृष्ण, शिवाजी, प्रताप, सावरकर तथा तिलक जैसे प्रतिष्ठित नेता अपने पद चिन्हों से प्रशस्त कर चुके थे। इस बात का अत्यंत खेद है कि गांधीजी क्रांतिकारियों से सदा घृणा करते रहे और उनके हृदय में देश भक्ति की जलती प्रखर ज्योति को न देख सके। देश के कार्य के लिए तिल तिल कर जलने वाले वे मां के अमर पुजारी कितनी वेदना का अनुभव करते होंगे ऐसे नेताओं के इस व्यवहार पर।
देशभक्त राष्ट्रीय शक्तियों की उपेक्षा तथा उन्हें ठीक से न समझने की यह परंपरा दुर्भाग्य से अब भी जीवित है। आज भी भारतीय जनता में देशभक्ति की भावना तथा प्रत्येक नागरिक में चारित्रय उत्पन्न करने का पवित्र कार्य राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ कर रहा है। यह एक सर्व स्वीकृत तथ्य है कि गांव गांव में दैनिक शाखाएं लगवाकर, नवयुवकों को देश धर्म की पवित्र शिक्षा देने का तथा एक संगठित चारित्रय राष्ट्र बनाने का प्रयत्न ये लेाग करते हैं। क्रांतिकारियों की ही तरह तपस्या व बलिदान की भावना से प्रेरित हो, ये लोग घरवालों की पूर्ण स्वार्थी भावनाओं से टक्कर लेकर अपने जीवन का अधिकाधिक समय देश कार्य में अर्पित करते हैं। इतना होने पर भी कुछ सैद्घांतिक मतभेद मात्र होने के कारण् प्रशंसा व प्रोत्साहन तो दूर रहा, आज का सत्ताधारी टोला इन्हें रोज गालियां देता है। मुझे एक सभा का स्मरण है, जहां पंडित नेहरू अच्छी भारी भारी राजनीतिक गालियों से संघ का नाम ले रहे थे, उन्हें द्रोही तक भी कह दिया, उसी सभा में मेरे साथ एक संघ के प्रचारक खड़े थे, जिन्होंने जीवन की भरी जवानी के पूरे 18 वर्ष अपने परिवार की जीवन की उमंगों, सुख सुविधाओं को तिलांजलि देकर इस पवित्र कार्य में व्यतीत किये थे। भाषण में अपने ही देश के एक वरिष्ठ नेता के ऐसे वचन सुन उनके हृदय में बड़ा क्षोभ हुआ। मेरी ओर देखकर वे बोले, हम लोगों का देशहित में तिल तिल कर जलते रहना भी नेहरू जी को न समझा सका कि हमारे दिल में भी देश का ही दर्द है और कहते कहते उनकी आंखों से आंसुओं की अविरल धारा बह निकली।
यशपाल सिंहावलोकन में लिखते हैं, गांधीजी शराब निरोध के लिए सरकारी शक्ति से जनता पर दबाव डालना नैतिक समझते थे। परंतु भगत सिंह आदि की फांसी रद्द करने के लिए विदेशी सरकार पर जनमत का दबाव डालना अनैतिक समझते थे सर्वसाधारण के लिए यह समझ सकना कठिन है कि जन भावना के प्रतीक बन चुके भगत सिंह आदि की प्राण रक्षा को समझौते की शर्त बनाने में गांधीजी ने शहीदों को फांसी न दिये जाने के प्रश्न को उचित महत्व नही दिया।
क्रांतिकारियों के प्रति उपेक्षा व घृणा की कांग्रेस की भावना के ही कारण फांसी से कुछ पूर्व गांधीजी को लिखे हुए अपने एक पत्र में सुखदेव कुछ कड़ुवे होकर लिखते हैं-समझौता करके आपने अपना आंदोलन समाप्त कर दिया। आपके आंदोलन के सब बंदी छूट गये हैं, किंतु क्रांतिकारी बंदियों के बारे में आप क्या कहते हैं। 1995 के गदर दल के बंदी आज भी जेलों में पड़े सड़ रहे हैं। यद्यपि उनकी सजाएं पूरी हो चुकी हैं। मार्शल लॉ के बीसियों बंदी आज भी जीवित ही कब्रों में दफन हैं। बब्बर अकाली आंदोलनों के सैकड़ों बंदी भी जेल यातनाएं भुगत रहे हैं। अनेकों क्रांतिकारी फरार हैं, जिनमें कई स्त्रियां भी हैं। आधे दर्जन से अधिक बंदी मृत्युदंड की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इन सबके विषय में आप क्या कहते हैं? (इन देशभक्तों के बारे में कुछ क्यों नही करते) इन परिस्थितियों में हमसे आंदोलन स्थगित करने की आपकी अपील क्या नौकरशाही का साथ देने के बराबर नही है?
मृत्यु के क्रूर हाथों अपने पुत्र को सदा के लिए छिनते हुए देखकर भगत सिंह के पिता से न रहा गया। उन्होंने वायसराय को भगतसिंह की प्राण रक्षा के लिए प्रार्थना पत्र भेजा। अपने जीवन के अंतिम दिनों में पिता का यह प्यार ही भगत सिंह के लिए एक महान अत्याचार बन गया। इससे उन्हें बड़ा मानसिक आघात पहुंचा। पता लगने पर उन्होंने कहा था, My Father Has stabbed me in the back(मेरे पिता ने मेरी पीठ में छुरा घोंपा है) विपरीत इसके भगत सिंह, राजगुरू व सुखदेव ने सरकार को संदेह भेजा, हम कोई चोर डाकू या लुटेरे नही हैं। यदि आपको वीरता के प्रति थोड़ा भी आदर शेष है तो हमें युद्घ भूमि में सैनिकों की तरह बंदूक की गोलियों से उड़ाने की आज्ञा दीजिए।
इस समय तक देश का वातावरण बहुत गरम हो चुका था। यह तीनों क्रांतिकारी जन भावना के प्रतीक बन चुके थे और इनकी प्राणरक्षा भारत के करोड़ों लोगों की मांग बन चुकी थी। उधर चौबीस मार्च इनकी फांसी का दिन घोषित किया गया और छब्बीस मार्च को गांधी इरविन समझौते की कांग्रेस की महान सफलता के बाद कांग्रेस का कराची अधिवेशन होने जा रहा था। कांग्रेस की दृष्टि में यह समझौता महान था। यद्यपि भारतमाता के तीन लाडलों के बचाने की बात तक भी इस समझौते में प्रवेश न कर सकी।
ज्यूं ज्यूं फांसी का दिन नजदीक आने लगा, बलिदान का स्वर्ण अवसर प्राप्त होने के गौरव में इन तीनों के चेहरे निखरने लगे। अपने छोटे भाई कुलतार को भगतसिंह ने अंतिम पत्र इस प्रकार लिखा-अजीज कुलतार आज तुम्हारी आंखों में आंसू देखकर बहुत रंज हुआ। आज तुम्हारी बातों में बहुत दर्द था। आज तुम्हारे आंसू मुझसे बर्दाश्त नही होते। बरखुरदार हिम्मत से शिक्षा प्रज्ञतप करना और सेहत का ख्याल रखना। हौसला रखना और क्या कहूं….
उसे फिकर है हरदम नया तर्जे जफा क्या है,
हमें यह शौक देखें तो सितम की इन्तहा क्या है।
कोई दम का मेहमां हूं अहले महफिल,
चिरागे सहर हूं, बुझा चाहता हूं।
मेरी हवा में रहेगी ख्यालों की बिजली,
यह मुश्ते खाक है फानी रहे रहे, या न रहे।
अच्छा, आज्ञा। खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं। हौसले से रहना। नमस्ते।
तुम्हारा भाई
– भगत सिंह