क्या नागरिक संशोधन अधिनियम की मजहबी उन्मादी आग से 2024 में रोशन होगी भाजपा ?
लगता है 1555 में नॉस्त्रेदमस द्वारा की गयीं भविष्यवाणियां परवान चढ़ रही है। दूसरे, चाणक्य के कथन को देखें कि “जब देश के राजा के विरुद्ध शोर मचे, समझ लो राजा सख्त है।” भी चरितार्थ होती प्रतीत हो रही है।नागरिक संशोधन कानून पर हो रहे उपद्रवों से मोदी सरकार को लेशमात्र भी अन्तर नहीं पड़ने वाला, विपरीत इसके मोदी विरोधियों और मुस्लिम समाज को समय पूर्व ही उम्मीद से अधिक नुकसान हो रहा है, जिसे ये लोग समझने में पूर्णरूप से असफल हो रहे हैं। नेताओं की भड़काऊ बातों में आने वाले किसी ने इन नेताओं से यह पूछने का साहस नहीं किया कि “जब राज्यसभा में भाजपा का बहुमत नहीं था, फिर किस तरह बिल पास हो गया? सदन में कुछ और सदन से बाहर दोगली नीति क्यों?”
जैसाकि सर्वविदित है आतंकवाद के चलते विश्व मुस्लिम समाज को शंका भरी निगाह से देखता है। कई बार समाचार भी आते रहे हैं कि हवाई अड्डों पर मुस्लिमों को सुरक्षा बलों द्वारा निर्वस्त्र कर जाँच की जाती है।
भारत में हुए साम्प्रदायिक दंगों में आर्मी द्वारा की गयी घरों की तलाशी में भारी मात्रा में असला इन्हीं के घरों से बरामद होते देख तत्कालीन सरकारों ने तुरंत आर्मी को वापस बुला कर तुष्टिकरण के प्रमाण दिए जा चुके हैं। और जिस प्रकार नागरिक संशोधक कानून पर हो रहे प्रदर्शनों में अवैध पिस्टलों एवं पेट्रोल बमों का प्रयोग किया जा रहा है, संभावनाएं व्यक्त की जा रही हैं कि सरकार बहुत जल्द घरों की तलाशी भी कर सकती है।
मुस्लिम समाज और विपक्ष की गिरती साख
शान्तिरूप से प्रदर्शन के हिंसात्मक होने, पुलिस पर पत्थराव, गोली चलाना, एसिड फेंकना और पेट्रोल बम(जैसाकि उत्तर प्रदेश से समाचार मिल रहे हैं, दिल्ली तो बच गयी) आदि हरकतों से राजनीतिक लड़ाई में मुस्लिम समाज विश्व में अपनी विश्वसनीयता खो रहा है।
जो काम 1947 में मिली स्वतन्त्रता के बाद होने थे, लेकिन तुष्टिकरण पुजारियों ने नहीं किए, वही काम वर्तमान मोदी सरकार द्वारा करने पर विपक्ष के पेट में मरोड़ होना स्वाभाविक है। विश्व में भारत ही ऐसा देश है, जहाँ नागरिक कानून नहीं था। इतना ही नहीं, भारत ही एक ऐसा देश है जहाँ देशहित में बने नागरिक कानून का अपने वोटों की खातिर विरोध किया जा रहा है।
जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी में देश-विरोधी नारे लगाने वालों के साथ विपक्ष खड़ा हो जाता है। कश्मीर में आतंकवादियों पर होते प्रहार का विपक्ष विरोध करता है। पाकिस्तान में आतंकवादियों के ठिकानों पर सर्जिकल एवं एयर स्ट्राइक होने पर सरकार से सबूत मांगना क्या विपक्ष का जनहित अथवा देशहित में है? आतंकवादियों के मारे जाने पर आंसू बहाए जाते हैं, उन्हें फांसी होने पर आधी रात सुप्रीम कोर्ट तक खुलवा दी जाती हैं आदि आदि विपक्ष के कार्यकलापों को देख इनका कोई काम देशहित अथवा जनहित में नहीं दिखता।
2014 के आम चुनावों में नरेंद्र मोदी ने एक तरह से अविश्वसनीय जीत हासिल की थी। उनसे नफरत करने वाले भी यह मानने को मजबूर हो गए थे कि उनका करिश्मा देशव्यापी है। आजाद भारत में शायद इसकी तुलना इंदिरा गॉंधी की अपील से की जा सकती थी। नफरत करने वालों ने इंदिरा से तुलना जान-बूझकर की, क्योंकि नेहरू के मुकाबिल मोदी को खड़ा करना उनके लिए ईश निंदा जैसा होता। एक तथ्य यह भी है कि चुनावी जीत के संदर्भ में नेहरू के बराबर पायदान पर खड़े होने के लिए मोदी को भी 2024 के आम चुनावों में लगातार तीसरी बार फतह हासिल करनी होगी।
हालॉंकि राजनीतिक नब्ज भॉंपने की क्षमता और करिश्मे को लेकर इंदिरा के साथ मोदी की तुलना के पीछे भी एक मकसद था। एक दबी हुई इच्छा थी। मकसद था इंदिरा की तरह मोदी की निरंकुश छवि गढ़ना। दबी आकांक्षा यह थी कि मोदी लड़खड़ाएँगे और आपातकाल लगा देंगे। इससे सत्ता से उनकी विदाई का रास्ता तैयार होगा। यही कारण है कि हर मौके पर बार-बार यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की गई कि देश में ‘अघोषित आपातकाल’ है।
छात्रों को मोहरा बनाता विपक्ष
मोदी से घृणा करने वाले आपातकाल का जिस बेचैनी और तड़प के साथ इंतजार कर रहे हैं, शायद ही कोई ‘संघी’ हिन्दू राष्ट्र को लेकर उतना बेसब्र होगा।
बड़े पैमाने पर छात्रों के प्रदर्शन जो तेजी से जनांदोलन में बदल हो गया के कारण 1975 में आपातकाल लागू किया गया था। मोदी से घृणा करने वाले चाहते हैं कि ऐसा दोबारा हो। नतीजतन, छात्र की तरह दिखने और नारे लगाने वाला नजर आते ही आपातकाल लगने की उनकी आस जग जाती है और उन्हें बहुप्रतीक्षित सपना साकार होता दिखता है।
2016 की शुरुआत में जेएनयू के कुछ छात्र जब देश विरोधी कार्यक्रम आयोजित करने और वहाँ आतंकी अफजल गुरु के समर्थन में नारे लगने के बाद गिरफ्तार किए गए तो उन्होंने सोचा कि उनके सपने के पूरा होने का वक्त आ गया। इसके एक या दो हफ्ते पहले ही कट्टर वामपंथी राजनीति से प्रताड़ित होकर रोहित वेमुला नाम के एक छात्र ने आत्महत्या कर ली थी।
‘गया! अब दलित वोट भी गया!’ रोहित वेमुला की मौत के बाद मोदी से घृणा करने वाली एक ‘पत्रकार’ की यही प्रतिक्रिया थी। बता दें कि यह घटना जनवरी 2016 की है। उससे पहले भाजपा दो चुनाव हार गई थी। पहले दिल्ली और फिर बिहार में। अरविंद केजरीवाल के ‘मैं बनिया हूँ’ भाषण का हवाला देते हुए कहा गया कि आप ने दिल्ली में बीजेपी के बनिया वोटर छीन लिए और बिहार में ओबीसी का वोट नहीं मिला। ‘लिबरल’ पत्रकार वेमुला के मरने से काफी उत्साहित थी, क्योंकि यह भाजपा के दलित वोटों को भी छीन सकता था।
चाहे वह आत्महत्या हो, हत्या हो, विरोध हो, दुर्घटना हो, बिजनेस हो या फिर क्रिएटिव प्रोडक्ट- मोदी की चुनावी संभावनाओं पर इसका क्या असर पड़ेगा, इसकी परवाह लिबरलों की जमात को है। लिबरलों का जश्न या विरोध इस बात पर निर्भर करता है कि यह मोदी की मदद करेगा या नुकसान पहुँचाएगा। छात्रों का विरोध उनके अंदर आपातकाल की उम्मीद जगाता है। साथ ही इसमें यह भी अंतर्निहित होता है कि जिस तरह से 1977 में आपातकाल के बाद इंदिरा को हार मिली थी, उसी तरह से मोदी भी परास्त हो जाएँगे।
इसी उम्मीद के साथ उन्होंने जेएनयू के पार्ट-टाइम-छात्रों सह फुल-टाइम प्रदर्शनकारियों को हीरो बनाया गया था। रोहित वेमुला की मौत को विभिन्न शैक्षणिक परिसरों में भुनाने की कोशिश हुई। एफटीआईआई में गजेन्द्र चौहान को चेयरमैन नियुक्त किए जाने के विरोध में छात्रों का प्रदर्शन हुआ और फिर वह भी इस गतिविधि में शामिल हो गए। यहाँ तक कि हार्दिक पटेल जैसे को छात्र नेता के तौर पर पेश किया गया। छात्रों ने कैंपस को अशांत किया और फिर निराश हो बैठ गए। इसके बाद उन्होंने मॉब लिंचिंग, गौरी लंकेश की हत्या, घर वापसी इत्यादि को लेकर ‘माहौल’ बनाया और इसे अघोषित आपातकाल की निशानी के रूप में पेश किया गया।
ऐसा लगा आपातकाल उनके सपनों में आया। वे शोर मचाने लगे ये देखो आपातकाल। जिसका हम इंतजार कर रहे थे।
हालाँकि, उनके सपने 2019 में चकनाचूर हो गए, जब मोदी एक बार फिर से बड़े जनादेश के साथ सत्ता में लौटे। लेकिन जैसा कि एक लिबरल कभी गलत नहीं होता, लोग गलत होते हैं। मोदी से घृणा करने वाले पूरी तरह मुतमइन थे कि मोदी 2019 में हारने वाले थे, लेकिन बालाकोट एयरस्ट्राइक से बदले माहौल और उग्र राष्ट्रवाद के झॉंसे में मूर्ख जनता के आने की वजह से वे जीत गए।
यही कारण है कि ये लिबरल जमात दूसरे कार्यकाल में भी वही तीन-तिकड़म और भी आक्रामकता से दुहरा रहे हैं। वे एक बार फिर छात्र विरोध और क्रांति का सपना देख रहे हैं। इस बार नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को लेकर माहौल बनाया जा रहा है।
सबसे पहले, एएमयू और जामिया के मजहबी प्रदर्शन को छात्रों के विरोध के रूप में पेश किया गया। फिर जामिया में दंगाइयों के खिलाफ पुलिस की कार्रवाई को छात्रों पर कार्रवाई के तौर पर प्रस्तुत किया गया। अन्य परिसरों के छिटपुट प्रदर्शनों को ‘छात्रों पर कार्रवाई’ के समर्थन में ‘विद्रोह’ के रूप में प्रस्तुत किया गया। यह सब बेहद सोचे-समझे तरीके से बॉलीवुड अभिनेताओं और अभिनेत्रियों की मिलीभगत से किया गया ताकि ऐसा भ्रम पैदा हो कि छात्रों का विरोध जनांदोलन में बदल रहा है।
इस तरह का सन्देश देने की कोशिश हुई कि अब आपातकाल को कोई नहीं रोक सकता। अनुराग कश्यप ने इमरजेंसी हैशटैग के साथ ट्वीट भी किया।
तो क्या इतिहास खुद को दोहराएगा? या फिर पिछली बार की तरह विफल रहेगा और 2024 में मोदी को और भी व्यापक जनादेश मिलेगा?
2024 बहुत दूर है और कोई भी निश्चित तौर पर नहीं कह सकता कि उस समय क्या होगा। लेकिन मुझे लगता है कि मोदी 2024 में भी इसका फायदा उठाने की स्थिति में होंगे क्योंकि उनसे नफरत करने वाले 2019 की हार से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं हैं। 2016 में जेएनयू के गढ़े हुए छात्र विरोध की वजह से आम लोगों के मन में राष्ट्रवाद की भावना बालाकोट एयरस्ट्राइक से पहले ही मजबूत हो चुकी थी। जेएनयू में लगे ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे सभी ने सुने थे। इसके बाद ही राष्ट्रवाद की भावना पैदा हुई। बावजूद इसके प्रोपेगेंडा फैलाने वाले धूर्त लिबरलों ने कहा कि इस वीडियो के साथ छेड़छाड़ की गई है।
इसी तरह, CAA को लेकर किए जा रहे छात्रों का मनगढ़ंत प्रदर्शन आम मतदाताओं के भीतर हिंदुत्व की भावना को मजबूत कर सकता है। ऐसा इसलिए क्योंकि CAA के खिलाफ हो रहे विरोध-प्रदर्शन मजहबी नंगई और मुसलमानों के तुष्टिकरण से हटकर कुछ भी नहीं है। फिर भी हिंसा में हिंदुओं के शामिल होने जैसे धूर्त दुष्प्रचार किया जा रहा है। ध्यान देने वाली बात है कि ऐसा कर वे ‘JNU वाली वीडियो के साथ छेड़छाड़ हुई है’ वाले उसे हास्यापद षड्यंत्र को आगे बढ़ा रहे हैं जैसा मोदी के पहले कार्यकाल में किया गया था।
यदि मोदी से नफरत रखने वाले इतनी बेताबी से इतिहास को दोहराने में लगे हैं, तो इतिहास निश्चित रूप से उन्हें निराश नहीं करेगा और 2019 के नतीजें फिर से 2024 में दोहराए जाएँगे। कम से कम आज तो मुझे ऐसा ही लगता है।
तो क्या यह तय मान लिया जाए कि विरोध-प्रदर्शनों से मोदी सरकार बेअसर है? किसी भी स्तर पर छात्रों या आम लोगों का प्रदर्शन उसकी चुनावी संभावनाओं को नुकसान नहीं पहुॅंचा सकता? तब भी जब कोई कहे कि मौजूदा CAA विरोधी प्रदर्शनों की तुलना 2016 के जेएनयू के प्रदर्शनों की बजाए 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से की जानी चाहिए? कुछ लोग बेहद चालाकी से “IAC” का इस्तेमाल करने भी लगे हैं। तब इसका मतलब था इंडिया अंगेंस्ट करप्शन और अब यह इंडिया अंगेस्ट CAA के तौर पर प्रचारित किया जा रहा है।
यह एक अच्छा तर्क है कि इसका विश्लेषण इसकी खूबियों के आधार पर किया जाना चाहिए। क्या यह मोदी 2.0 के लिए अन्ना आंदोलन साबित हो सकता है? क्या 2024 में इतिहास खुद को 2019 की बजाए 2014 के रूप में दोहरा सकता है?
हमें यह देखना होगा कि अन्ना आंदोलन क्यों सफल हुआ? इसने कांग्रेस पार्टी को कैसे नुकसान पहुँचाया? क्या वही बात CAA के विरोध और भाजपा पर लागू होती है?
दोनों विरोधों के बीच प्रमुख अंतर मुद्दे का है। भ्रष्टाचार एक ऐसा मसला है जिससे हर भारतीय प्रभावित होता है। इससे हर कोई जुड़ा होता है। नागरिकता खोने का खतरे ऐसा नहीं है। मोदी विरोधी रणनीतिकारों ने यहाँ गलती की। वे चिल्लाते रहे कि CAA+NRC मुस्लिम विरोधी है और इस तरह उन्होंने अप्रत्यक्ष रूप से कहा कि गैर-मुसलमानों को परेशान होने की आवश्यकता नहीं है। यह भ्रष्टाचार जैसी समस्या नहीं थी जो हर नागरिक को प्रभावित कर सके।
हालाँकि वामपंथी अब महसूस करते हैं कि यह एक बड़ी रणनीतिक गलती थी। अब गलती को सुधारने के लिए फरहान अख्तर जैसे लोगों ने अत्यधिक भ्रामक पर्चे फैलाए, जिसमें दावा किया गया कि गरीब, दलित, आदिवासी, ट्रांसजेंडर और अन्य समूह भी अपनी नागरिकता खो सकते हैं। वास्तव में ये बेतुकी बात है। उनके कहने का मतलब है कि करीब 90 फीसदी भारतीयों की नागरिकता चली जाएगी और उन्हें निर्वासित कर दिया जाएगा। कहॉं निर्वासन किया जाएगा? इस तरह के बेवकूफाना दुष्प्रचार पर भला कौन यकीन करे?
दूसरा अंतर यह है कि दोनों विरोध सत्ता के संबंधित पक्षों को कैसे प्रभावित करते हैं। 2011 के भ्रष्टाचार विरोधी प्रदर्शन ने कॉन्ग्रेस पार्टी को भ्रष्टाचार का पर्याय बना दिया। ऐसा नहीं है कि पहले उसे कुछ साफ-सुथरी पार्टी के रूप में देखा जाता था, लेकिन कॉन्ग्रेस की छवि, विशेषकर शहरी युवाओं के बीच काफी बुरी तरह से बिगड़ गई। अगर भ्रष्टाचार आपके लिए चिंता की बात थी तो कॉन्ग्रेस एक विकल्प के रूप में भी नहीं रही।
यदि यह मान लिया जाए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह ही सीएए का विरोध है, तो भाजपा को सबसे बड़ा नुकसान यह होगा कि वह मुस्लिम विरोधी पार्टी का पर्याय बन जाएगी। क्या वास्तव में इससे भाजपा को कोई नुकसान होगा? क्या भाजपा को मौजूदा वक़्त में मुस्लिम समर्थक पार्टी के तौर पर देखा जाता है या यह भी माना जाता है कि उसे मुसलमानों का समर्थन हासिल है? गौर करने वाली बात यह भी है कि बॉलीवुड अभिनेताओं और ‘बुद्धिजीवियों’ के समर्थन वाले ऐसे विरोध-प्रदर्शन शहर के अंग्रेजीदा युवाओं को सबसे ज्यादा पसंद आते हैं। यह वर्ग पहले से ही स्टैंड अप कॉमेडी के रूप में भाजपा विरोधी प्रोपेगेंडा और अन्य ‘रोमांचों’ से घिरा हुआ है।
इसका मतलब यह कतई नहीं है कि यदि आपकी छवि मुस्लिम विरोधी है तो आम भारतीय या हिंदू को इससे फर्क नहीं पड़ता और बीजेपी को कोई चिंता नहीं करनी चाहिए। असल में एक आम हिंदू में अपराध बोध का भाव इतना गहरा होता है कि ऐसे हालात में वह मान लेगा कि भाजपा मुसलमानों के साथ अन्याय कर रही है और उसे इसका दंड मिलना चाहिए।
लेकिन, मुसलमानों का हिंसक प्रदर्शन इस कदर उन्मादी हो चुका है कि उसके दृश्य हिंदुओं में उस अपराध बोध को गहराने नहीं देंगे जिसमें उसे मुस्लिम खासकर बांग्लादेशी और रोहिंग्या घुसपैठिए बेबस और लाचार दिखें। अपनी हिन्दुफोबिया से वामपंथी इस भाव को और गहरा ही करेंगे। बस वक्त की बात है जब विरोध की लपटें गाय, बीफ, मंदिर वगैरह तक पहुॅंचेगी। वे खुलकर आगे आएँगे। कुछ स्वयंभू सर्वज्ञ ‘कॉमेडियन’ तो वास्तव में इस मोर्चे पर जुट भी गए हैं। इस सूरतेहाल में एक आम हिंदू के मन में अपराध बोध कोई भाव बचा भी होगा तो उसकी तिलांजलि तय है।
यकीनन, इसका प्रभाव इस बात पर निर्भर करेगा कि मजहबी भीड़ का उन्माद और लिबरलों का हिन्दुफोबिया कितने वक्त तक चलता रहता है। जेएनयू से निकले “टुकड़े टुकड़े” नारे करोड़ों लोगों तक पहुॅंचे थे। मुझे एक दोस्त का कहा याद आ रहा है। जेएनयू के पास जाने के लिए उसने ऑटो लिया। ऑटो ड्राइवर जेएनयू को पाकिस्तान जैसा बता रहा था। इसी ने पुलवामा और बालाकोट से काफी पहले राष्ट्रवाद और पाकिस्तानी विरोधी भावनाओं को गहरा दिया था। फिर से वही सब दोहराया जा रहा है और यह इस्लाम विरोधी भावनाओं को गहरा सकता है। चिंता का सबब वे हिंसक घुसपैठिए हो सकते हैं जिन्हें ‘धर्मनिरपेक्ष’ भारत ने अरसे से पनाह दे रखी है।
2024 के शुरुआती दिनों में नरेंद्र मोदी यदि अयोध्या में बने भव्य मंदिर में पूजा करते नजर आए तो लिबरल शोर करेंगे कि लोकसभा चुनावों में जीत सुनिश्चित करने के लिए वे हिंदुत्व की भावनाओं को उभार दे रहे हैं। पर हकीकत यही है कि लिबरल खुद सांप्रदायिकता की आग लगा चुके हैं।
मुख्य संपादक, उगता भारत