ऋषि दयानंद की संसार को देन , वेदों में वर्णित ईश्वर का प्रामाणिक सत्य स्वरूप
ओ३म्
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यह निर्विवाद है कि मूल वेद संहितायें ही संसार में सबसे पुरानी पुस्तकें हैं। वेद शब्द का अर्थ ही ज्ञान होता है। अतः चार वेद ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तथा अथर्ववेद ज्ञान की पुस्तकें हैं। इन चारों वेदों पर ऋषि दयानन्द का आंशिक और अनेक आर्य वैदिक विद्वानों का भाष्य वा टीकायें उपलब्ध हैं। अनेक विद्वान ऐसे भी हैं जिन्होंने किसी एक वेद अथवा दो वेदों पर भी हिन्दी भाषा में भाष्य व उनके सभी मन्त्रों के अभिप्राय प्रस्तुत किये हैं। अंग्रेजी भाषा में भी वेदों का भाष्य वा अनुवाद उपलब्ध है। वेदों से ही सबसे पहले संसार के लोगों को ईश्वर, जीवात्मा और सृष्टि के विषय में सत्य रहस्यों का ज्ञान हुआ था। ऋषियों ने वेदों का गम्भीर अध्ययन किया और सबने एक मत से कहा है कि वेद ईश्वर प्रदत्त ज्ञान है। ऋषि दयानन्द ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका में वेदों की उत्पत्ति और वैदिक मान्यताओं वा सिद्धान्तों पर प्रकाश डाला है। ऋषि दयानन्द वेदों के मर्मज्ञ विद्वान व ऋषि थे। उन्होंने वेदों का पारायण एवं समीक्षात्मक अध्ययन किया था। ऋषि दयानन्द ने योगाभ्यास कर समाधि को सिद्ध कर ईश्वर का साक्षात्कार भी किया था। जिस मनुष्य वा योगी को ईश्वर का साक्षात्कार हो जाता है उसे किसी विषय पर अपनी आत्मा व मन को एकाग्र करने पर उसका विस्तृत सत्य ज्ञान प्राप्त हो जाता है। अतः ऋषि दयानन्द ने वेदों की उत्पत्ति और उसमें वर्णित सभी विषयों सहित वेदों के विषय में जो कुछ कहा है वह सब तथा उनका किया यजुर्वेद और ऋग्वेद का उपलब्ध भाष्य पूर्ण सत्य व प्रामाणिक है। वेद यह बताते हैं कि इस सृष्टि का निमित्त कारण सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता, पालक तथा प्रलयकर्ता ईश्वर है। वेदों के अधिकांश मन्त्रों से ईश्वर के सत्य स्वरूप सहित उसकी उपासना की विधि व उससे होने वाले लाभों पर भी प्रकाश भी पड़ता है। यहां हम वेदों में उपलब्ध ईश्वर के स्वरूप पर विचार प्रस्तुत कर रहे हैं।
ऋषि दयानन्द सरस्वती (1825-1883) ने आर्याभिविनय नाम की एक पुस्तक लिखी है। इस पुस्तक में उन्होंने ऋग्वेद एवं यजुर्वेद के कुछ मन्त्रों का ईश्वर से प्रार्थना व विनय परक अर्थ प्रस्तुत किया है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठक को वेदों में ईश्वर के सत्यस्वरूप का ज्ञान हो जाता है। ऋषि दयानन्द ने इस पुस्तक में वेदों में प्रकाशित ईश्वर का जो स्वरूप व उसके गुण, कर्म, स्वभाव को प्रस्तुत किया है वैसा सत्य, यथार्थ और सारगर्भित स्वरूप महाभारत युद्ध के बाद और ऋषि दयानन्द के जीवन काल तक किसी विद्वान, महापुरुष व धार्मिक आचार्य आदि के किसी ग्रन्थ में उपलब्ध नही होता। हम यहां बानगी के तौर पर आर्याभिविनय पुस्तक में प्रस्तुत प्रथम वेद मन्त्र का ऋषि दयानन्द के हिन्दी व्याख्यान को प्रस्तुत कर रहे हैं। मन्त्र हैः ‘ओ३म् शं नो मित्रः शं वरुणः शं नो भवत्ययर्मा । शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरुरुकमः।।’ यह मन्त्र ऋग्वेद का 1/6/18/9 मन्त्र है। इस मन्त्र का हिन्दी में व्याख्यान व अर्थ करते हुए ऋषि दयानन्द ने लिखा है ’‘हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वमंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करुणाकरास्मत्पितः, परम सहायक, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे अधमोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरमय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्रयविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्द्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुप्रापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धम्र्मसुशिक्षक, रोगविनाशक, हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताड़न, गर्वकुक्रोधलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन, परब्रह्मन, हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर! आप सर्वथा सब के निश्चित मित्र हो। हमको सत्यसुखदायक सर्वदा हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर! आप वरुण अर्थात् सब से परमोत्तम हो, सो आप हमको परम सुखदायक हो। हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन्! आप अय्र्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो। हे परमैश्वर्यवन्, इन्द्रेश्वर! आप हम को परमैश्वर्ययुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये।
हे महाविद्यावाचोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन्! हम लोगों को (बृहत्) सब से बड़े सुख को देने वाले आप ही हो। हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर विष्णो! आप हमको अनन्त सुख दो। जो कुछ मांगेंगे सो आप से ही हम लोग मागेंगे। सब सुखों को देने वाला आप के बिना कोई नहीं है। सर्वथा हम लोगों को आप का ही आश्रय है, अन्य किसी का नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सब से बड़े पिता को छोड़ के नीच (ईश्वर की तुलना में सभी नीचे हैं) का आश्रय हम लोग कभी न करेंगे। आप का तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हम को सुख देंगे, यह हमको दृण निश्चय है।”
यजुर्वेद के अध्याय 40 मन्त्र 8 में भी ईश्वर के स्वरूप का वर्णन आता है। इस मन्त्र को भी ऋषि दयानन्द जी ने आर्याभिविनय में सम्मिलित किया है। यह मन्त्र है ‘स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरं शुद्धमपापविद्धम्। कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।।’ इस मन्त्र का व्याख्यान करते हुए ऋषि दयानन्द बताते हैं ‘‘स पर्यगात्” वह परमात्मा आकाश के समान सब जगह में परिपूर्ण (व्यापक) है, ‘‘शुक्रम्” सब जगत् का करनेवाला वही है ‘‘अकायम्” और वह कभी शरीर (अवतार) नहीं धारण करता, क्योंकि वह अखण्ड और अनन्त, निर्विकार है, इससे देहधारण कभी नहीं करता, उससे अधिक कोई पदार्थ नहीं है, इससे ईश्वर का शरीर धारण करना कभी नहीं बन सकता। ‘‘अव्रणम्” वह अखण्डैकरस अच्छेद्य, अभेद्य, निष्कम्प और अचल है इससे अंशांशीभाव भी उस में नहीं है, क्योंकि उसमें छिद्र किसी प्रकार से नहीं हो सकता ‘‘अस्नाविरम्” नाड़ी आदि का प्रतिबन्ध (निरोध) भी उसका नहीं हो सकता, अतिसूक्ष्म होने से ईश्वर का कोई आवरण नहीं हो सकता, ‘‘शुद्धम्” वह परमात्मा सदैव निर्मल अविद्यादि जन्म, मरण, हर्ष, शोक, क्षुधा, तृष्णादि दोषोपाधियों से रहित है। शुद्ध की उपासना करनेवाला शुद्ध ही होता है और मलिन का उपासक मलिन ही होता है। ‘‘अपापविद्धम्” परमात्मा कभी अन्याय नहीं करता क्योंकि वह सदैव न्यायकारी ही है, ‘‘कविः” त्ऱैकालज्ञ (सर्ववित्) महाविद्वान् जिसकी विद्या का अन्त कोई कभी नहीं ले सकता, ‘‘मनीषी” सब जीवों के मन (विज्ञान) का साक्षी सब के मन का दमन करनेवाला है, ‘‘परिभूः” सब दिशा और सब जगह में परिपूर्ण हो रहा है, सब के ऊपर विराजमान है, ‘‘स्वयम्भूः” जिसका आदिकारण माता, पिता, उत्पादक कोई नहीं किन्तु वही सब का आदिकारण है।
‘‘याथातथ्यतोर्थान्व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः, समाभ्यः” उस ईश्वर ने अपनी प्रजा को यथावत् सत्य, सत्यविद्या जो चार वेद उनका सब मनुष्यों के परमहितार्थ उपदेश किया है। उस हमारे दयामय पिता परमेश्वर ने बड़ी कृपा से अविद्यान्धकार का नाशक, वेदविद्यारूप सूर्य प्रकाशित किया है और सब का आदिकारण परमात्मा है, ऐसा अवश्य मानना चाहिये। ऐसे विद्या पुस्तक का भी आदिकारण ईश्वर को ही निश्चित मानना चाहिये।
विद्या का उपदेश ईश्वर ने अपनी कृपा से किया है, क्योंकि हम लोगों के लिये उसने सब पदार्थों का दान दिया है तो विद्यादान क्यों न करेगा? सर्वोत्कृष्ट विद्यापदार्थ का दान परमात्मा ने अवश्य किया है और वेद के बिना अन्य कोई पुस्तक संसार में ईश्वरोक्त नहीं है। जैसा पूर्ण विद्यावान् और न्यायकारी ईश्वर है वैसा ही वेद-पुस्तक भी है। अन्य कोई पुस्तक ईश्वरकृत वेदतुल्य वा अधिक नहीं है। इस विषय का अधिक विचार ‘‘सत्यार्थप्रकाश” और ‘‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका” में किया गया है, वहां देख लेना चाहिये।”
ऋषि दयानन्द ने वेदों का गहन अध्ययन एवं मनन कर संसार को मुख्यतः आर्यसमाज को दो नियम दिये हैं। इन नियमों में भी ईश्वर का स्वरूप तथा उसके गुण, कर्म व स्वभाव पर संक्षेप में प्रकाश पड़ता है। इन नियमों का उल्लेख यहां करना उचित है। प्रथम नियम है ‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।’ दूसरा नियम है ‘ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’
संसार में जहां-जहां जिस-जिस मत में ईश्वर को किसी भी स्वरूप में स्वीकार किया गया है वह वेदों की परम्परा की ही देन है। उनमें जो सत्यता है उसका कारण वेदों का प्रभाव है और जो वेदों से परिवर्तित अविद्यायुक्त मान्यतायें हैं वह उनके मतों की अपनी हैं। हमारा विश्वास है कि यदि कोई मनुष्य निष्पक्ष रूप से ऋषि दयानन्द के सम्पूर्ण साहित्य व ग्रन्थों को पढ़ ले तो वह वेदों के आधार पर उनके द्वारा प्रस्तुत ईश्वर, जीवात्मा व सृष्टि विषयक सिद्धान्तों व मान्यताओं को सत्य पायेगा और स्वीकार भी करेगा। योग वा समाधि का अभ्यास कर भी ईश्वर के वेद वर्णित एवं अन्य मतों की पुस्तकों में उपलब्ध ईश्वर के स्वरूप व गुण, कर्म, स्वभावों की परीक्षा की जा सकती है। संसार में ईश्वर के सत्यस्वरूप के जिज्ञासु प्रत्येक व्यक्ति को ऋषि दयानन्द के सत्यार्थप्रकाश का पहला व सातवां समुल्लास तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थ का ईश्वर-प्रार्थना-विषय एवं वेदोत्पत्तिविषय प्रकरण अवश्य पढ़ना चाहिये। इसके साथ आर्याभिविनय पुस्तक के अध्ययन से किसी भी नास्तिक व अविद्यायुक्त मत को मानने वाले मनुष्य को ईश्वर के सत्य व यथार्थ स्वरूप का यथार्थ बोध निश्चय ही हो सकता है। संसार की सभी प्रमुख समस्याओं का निवारण भी ईश्वर के सत्यस्वरूप का विश्व में प्रचार करने, उसे स्कूलों के पाठ्यक्रमों में प्रथम कक्षा से सम्मिलित करने सहित ईश्वर उपासना की वेदोक्त विधि का प्रचार करने में ही प्रतीत होता है। लेख को यहीं पर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत