देश में राष्ट्रवादी विचारधारा का होना एकता व अखंडता के लिए अनिवार्य है
ओ३म्
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हमारा देश भारत संसार का सबसे प्राचीनतम देश है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने मनुष्य जीवन की उन्नति व मनुष्यों के सर्वविध कल्याण के लिए वेदों का सर्वोत्तम ज्ञान एवं संस्कृत भाषा प्रदान की थी। संस्कृत विश्व की सर्वोत्तम भाषा है। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह जिस में जन्म लेता व जिस देश का अन्न खाता है उस देश के प्रति निष्ठा व समर्पण का भाव रखे। वह धन व सम्पत्ति जैसे चन्द टुकड़ों के लिये अपनी आत्मा व भावनाओं का सौदा न करे। जो व्यक्ति अपने देश के पूर्वजों व अपने देश की उत्तम परम्पराओं को न मानकर विदेशी विचारों जो ज्ञान व देश हित की दृष्टि से तक एवं युक्तियों से खण्डनीय हों, जिससे देश में मतभेद उत्पन्न होते हैं, जो एकता स्थापित न कर देश को पृथकतावादी विचारधारा का आधार बनें, ऐसे मतों व विचारधाराओं को कदापि स्वीकार नहीं करना चाहिये। हमने विगत 45 वर्षों से वेद और वैदिक ऋषियों के ग्रन्थों का अध्ययन किया है तथा अन्य मतों की मान्यताओं, सिद्धान्तों व परम्पराओं पर भी ध्यान दिया है। हमारा निष्पक्ष मत है कि वेद की विचारधारा से हितकर संसार में कोई विचारधारा नहीं है। इसका प्रमुख कारण है कि वेद का ज्ञान इस सृष्टि को बनाने व चलाने वाले सर्वज्ञ ईश्वर का दिया हुआ ज्ञान है।
मनुष्य अल्पज्ञ होता है। इस कारण उसका ज्ञान भी निभ्र्रान्त नहीं होता। वह ज्ञान व अज्ञान दोनों का मिश्रित संग्रह हुआ करता है। उसका सत्य है अथवा असत्य इसका निर्णय वेद की मान्यताओं से तुलना कर अथवा उसे विवेचन, विश्लेषण, तर्क एवं युक्ति के आधार पर जो सृष्टिक्रम के अनुकूल हो, उसे ही स्वीकार किया जा सकता है। ऋषि दयानन्द ईश्वर के स्वरूप के साक्षात्कारकर्ता योगी एवं विद्या के सूर्य समान महापुरुष थे। उन्होंने वेदों का पुनरुद्धार किया। वेदों का उन्होंने गहन अध्ययन व विवेचन किया था। उनकी वेद विषयक मान्यतायें अपनी निजी मान्यतायें नहीं है अपितु यह सृष्टि के आरम्भ से प्रचलित मान्यतायें एवं सिद्धान्त हैं जिनका सभी राजा व ऋषि पालन करते आये हैं। अपने जीवन में उन्होंने सभी मतों के आचार्यों सहित प्रत्येक मनुष्य को यह अवसर दिया था कि वह वेदों की सत्यता पर उनसे शंका समाधान अथवा शास्त्रार्थ कर सकता है। उनके समय के किसी मताचार्य वा धर्माचार्य में यह योग्यता नहीं थी कि वह वेद के परिप्रेक्ष्य में अपने मत व सिद्धान्तों को सत्य सिद्ध करे और वेद को व वेद की किसी एक भी मान्यता को असत्य सिद्ध करके दिखाये। अतः वेद ऋषि दयानन्द के जीवन काल में भी सत्य सिद्ध हुए थे, आज भी हैं और सदा सर्वदा रहेंगे। आश्चर्य इस बात का है कि वेद ईश्वर से उत्पन्न होने के बावजूद भी लोग उसे स्वीकार न कर अनेक भ्रान्तियों सहित अनेक ज्ञान-विज्ञान विरुद्ध मान्यताओं से युक्त होने पर भी अपने अपने मतों की मान्यताओं को ही स्वीकार कर उन्हीं का प्रचार करते हैं और उन्हीं को मानते व दूसरों से मनवाते हैं। इस कार्य में वह छल, बल व प्रलोभन आदि निन्दित साधनों का भी प्रयोग करते हैं। आज विज्ञान के युग में ऐसा करना उचित नहीं है परन्तु लोगों ने ऐसी-ऐसी व्यवस्थायें बना रखी है जिनमें सत्य व असत्य को समान माना गया है और किसी को समाज में कुछ भी प्रचार करने व मानने व मनवाने की छूट है। समाज में भ्रान्ति फैलाने वालों के लिये दण्ड का कोई विधान नहीं है। सर्वत्र लोग मनवानी करते दीखते हैं और अशिक्षित व अज्ञानी लोगों को भ्रमित कर अपना हित सिद्ध करते हैं। इसके विरुद्ध प्रचार की आवश्यकता है। यही काम ऋषि दयानन्द जी ने अपने जीवनकाल में किया था और आज भी आर्यसमाज इसी कार्य को कुछ कम गति से कर रहा है।
एक परिवार को समाज व देश की सबसे छोटी इकाई कह सकते हैं। परिवार में एकता का आधार परिवार के सभी सदस्यों की एक समान विचारधारा होती है। यदि परिवार के लोगों की एक विचारधारा न हो तो सब एक साथ नहीं रह सकते। पृथक-पृथक विचारों के होने से घर टूट जाते हैं जिससे सभी को दुःख होता है। समान विचारों के साथ दूसरी महत्वपूर्ण बात यह होती है कि सबके विचार सत्य पर आधारित हों। यदि विचारधारा में सत्य नहीं होगा तो ऐसा न होने पर सबको हानि हो सकती है। बहुत से लोग पाखण्डो को मानते हैं। उन पाखण्डों के कारण उनका समय, पुरुषार्थ एवं धन नष्ट होता है और लाभ कुछ भी नहीं होता। इस श्रेणी में सभी मतों के धार्मिक अन्धविश्वास तथा भेदभाव पैदा करने वाले विचार आते हैं। परिवार की तरह से समाज व देश में भी एक समान विचार और वह सब भी सत्य पर आधारित होने से देश सही दिशा में आगे बढ़ता और उन्नति करता है। अन्धविश्वासों व मिथ्या विचारधाराओं से उन्नति होने का आभाष तो अज्ञानी व अल्पज्ञानी मनुष्यों को ही हो सकता है। वस्तुतः इससे हम अपना जन्म व परजन्म बर्बाद करते हैं। यह सिद्धान्त किसी एक मत पर नहीं अपितु सभी मतों पर लागू होता है। हमने इतिहास में शैव व वैष्णव मतों के विवादों व संघर्ष के बारे में सुना है। इसी प्रकार से संसार के प्रमुख सभी मतों में कई-कई सम्प्रदाय हैं जो आपस में विरोधी विचार रखते हैं और आपस में संघर्ष करते हैं जिससे उन्हें व उनके अनुयायियों को जानमाल की हानि होती है। इन मतों को मनुष्य के जीवन का यथार्थ उद्देश्य व उसकी प्राप्ति के उपायों का ज्ञान नहीं है जिससे यह स्वयं व अपने अनुयायियों को अन्धकार से निकाल कर प्रकाश में ले जाने के स्थान पर अन्धकार से अन्धकार में ही डालते दीखते हैं। हमें मनुष्य जन्म सद्ज्ञान को प्राप्त करने और उसके अनुसार ईश्वर व आत्मा आदि को जानकर ईश्वर की उपासना, अग्निहोत्र-यज्ञ सहित परोपकार व दुर्बल, दलितों व वंचितों की सेवा व सहायता कर अपने इस जन्म व परजन्म की उन्नति करने के लिये मिला है। सभी मतों के अनुयायी बातें तो बहुत बड़ी-बड़ी करते हैं परन्तु भारत सहित विश्व के अनेक देशों में दुर्बलों, निर्धनों, दलितों व वंचितों आदि को अज्ञान, अन्याय व अभाव से मुक्ति नहीं मिल रही है। इसका कारण अधिकार सम्पन्न लोगों का इस कार्य के प्रति उदासीनता का व्यवहार करना है जिसके लिये वह ईश्वर के अपराधी बनते हैं और जन्म-जन्मान्तर में दुःख पाते हैं।
ऋषि दयानन्द किसी भी विषय पर विचार करते हुए उसके दो पहलुओं सत्य और असत्य पर विचार करने को कहते हैं और असत्य का त्याग तथा सत्य के ग्रहण को उचित व आवश्यक प्रतिपादित करते हैं। इस आधार पर यदि सभी मतों सहित राजनीतिक विचारधाराओं पर भी विचार करें तो हम एक मत व एक विचारधारा को स्थिर कर सकते हैं। जिस देश व समाज में ऐसा होता है वह समाज सबसे श्रेष्ठ देश व समाज होता है। आर्यसमाज एक वैश्विक संस्था था। इसके सिद्धान्त व मान्यतायें विश्व भर में एक समान हैं। सब एक ही रीति से सन्ध्योपासना तथा अग्निहोत्र यज्ञ आदि करते हैं। इनमें कहीं किसी प्रकार का भेदभाव व मतभेद नहीं है। सब ईश्वर के स्वरूप को आर्यसमाज के दूसरे नियम के अनुसार मानते हैं और आत्मा का स्वरूप व इसके गुण-कर्म व स्वभाव पर भी सभी ऋषिभक्त व आर्यसमाज के अनुयायी एक मत हैं। इसी का विस्तार यदि पूरे देश व विश्व में हो जाये तो संसार के अनेक झगड़े व संघर्ष समाप्त हो सकते हैं। वैदिक धर्म पूर्णतः सत्य और अहिंसा के सिद्धान्तों का पालन करता है परन्तु यह कृत्रिम अहिंसा को नहीं अपितु व्यवहारिक व वेद, रामायण और महाभारत में ईश्वर, राम व कृष्ण की अहिंसा के सिद्धान्तों वा ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों को मानता है। ऋग्वेद में एक संगठन सूक्त भी आता है जिसमें मात्र चार मन्त्र हैं। इसमें ईश्वर को सर्वशक्तिमान तथा सृष्टि का उत्पत्तिकर्ता बताया गया है। इन मन्त्रों में ईश्वर को सभी मनुष्यों पर धन की वृष्टि करने की प्रार्थना की गई है। सबको प्रेम से मिलकर रहने तथा ज्ञान प्राप्ति का उपदेश है। अपने पूर्वजों से प्रेरणा लेकर अपने कर्तव्यों के पालन में सदैव तत्पर रहने की शिक्षा भी संगठन सूक्त के मन्त्रों में दी गई है। संगठन-सूक्त में कहा गया है कि हमारे सब देशवासियों व संसार के सभी मनुष्यों के विचार समान हों, चित्त व मन भी समान हों। हम सब वेद ज्ञान का अध्ययन कर उसको जीवन में धारण करें और उसका अन्यों में भी प्रचार करें। एक मन्त्र में कहा गया है कि हमारे विचार व संकल्प तथा दिल भी परस्पर समान व एक दूसरे अनुकूल व मिले हुए हों। सबके मन एक-दूसरे के प्रति प्रेम से भरे हों जिससे सभी सुखी हों व सम्पदावान हों।
आजकल देश में अनेक राजनीतिक दल हैं जो सत्ता पाने के लिये अनेक प्रकार के असत्य व अनुचित साधनों का सहारा लेते हैं और सत्ता में रहने पर बड़े बड़े भ्रष्टाचार के काण्ड सामने आते हैं। सत्ता प्राप्ति में जातिवाद, तुष्टिकरण, क्षेत्रवाद, भाषावाद के द्वारा परस्पर वैमनस्य उत्पन्न किया जाता है। ऐसा इसलिये हो रहा है कि ऐसा करने वाले मनुष्य वेदज्ञान से शून्य होने सहित निन्दनीय छल, कपट, लोभ, मोह, राग, द्वेष व स्वार्थ सहित काम व क्रोध आदि दुर्गुणों से भरे हुए हैं। जब तक वेद को प्रतिष्ठित कर इसका ज्ञान सभी देशवासियों को नहीं कराया जायेगा तब तक अन्धविश्वासों का उन्मूलन एवं देश में सच्ची एकता स्थापित नहीं हो सकती। हमें साम्यवाद, समाजवाद आदि विदेशी विचारधाराओं व मान्यताओं का त्याग कर वेद और स्वदेशी विचारधारा जिसमें सबका हित हो और जिसमें ईश्वर व आत्मा के अस्तित्व तथा इनके परजन्म का कर्म-फल सिद्धान्त स्वीकार किया गया जाये, अपनाना होगा। सत्य और देशहित को महत्व दिये बिना, स्वार्थ-लोभ व मोह का त्याग किये बिना हम अपने देश व समाज की रक्षा नहीं कर सकते। आजकल देश के राजनीतिक दलों के वैचारिक मतभेदों व गठबन्धनों सहित उनके सत्ता के लोभ व स्वार्थ पर आधारित निर्णयों को देख कर डर लगता है कि इन राजनीतिक दलों के विपरीत विचारों व सबके अपने अपने स्वार्थों के होते हुए क्या देश सुरक्षित रह पायेगा? आज भी हम वही गलतियां कर रहे हैं जिसके कारण हम अतीत में पराधीन हुए थे और हमने अपना स्वत्व तथा अपने परिवारवार जनों व जातीय बन्धुओं की इज्जत व आबरू लुटवायी थी। हमारी फूट आज भी जारी है। हमारे स्वार्थ हमें देश से ऊपर लगते हैं। कोई न कोई व्यक्ति अपने स्वार्थ के लिये देश हित को त्याग कर किसी भी विरोधी दल से जो उसके स्वार्थ में साधक होता है, मिल जाता है। अब हमें मोदी जी, अमित शाह जी और योगी सहित बीजेपी में ही कुछ आशा की किरण दृष्टिगोचर होती है। ईश्वर से ही प्रार्थना है कि देश को कमजोर करने वाले स्वार्थी, लोभी तथा एषणाओं से युक्त लोगों से देश व समाज को बचाये और साथ देश विरोधी बाह्य व आन्तिरिक शक्तियों व शत्रुओं को निर्मूल व उनका सम्पूर्ण उच्छेद कर दे। ओ३म् शान्ति।
-मनमोहन कुमार आर्य
मुख्य संपादक, उगता भारत